Friday, 5 June 2020
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विश्व पर्यावरण दिवस-एकलव्य
विश्व पर्यावरण दिवस
आज पूरा विश्व प्रकृति के लिए समय निकाल पा रहा है। कोरोना का कहर कुछ ऐसा चला कि पूरा विश्व पर्यावरण दिवस 2020 का थीम "प्रकृति के लिए समय" को स्वतः प्राप्त करने लगा है। जिसे वर्षो से या यूं कहूँ सन 1972-74 से पर्यावरण को स्वस्थ बनाने का निष्फल प्रयास चल रहा था, वह प्रकृति इस महा विपदा में स्वंय से सँवरने को आतुर हो चली है। न चाहते हुए भी सबको प्रकृति के लिए समय देना पड़ रहा है। कोई भी विपदा अपने साथ निर्माण और प्रलय लाती है। लॉक डाउन मनुष्य को कोरोना से बचाने के साथ जीवन जीने की कला का भी पाठ पढ़ा गया है। जो वायु प्रदूषण अनेक रोगों का कारक बन हमारे जीवन के साथ अर्थव्यवस्था को लील रहा था सहजता से स्वच्छ व स्वस्थ बनने लगा। हम अपनी विलासिता को पाने के लिए प्रकृति का केवल और केवल दोहन ही करते रहे। पर्यावरण संरक्षण के लिए केवल कागजों, प्रयोजनों व 5 जून को शाब्दिक शपथ लेकर फिर से अपनी अनिवार्यता को व्यापकता प्रदान करने में लग जाते थे। सत्य तो यही है जहाँ आदान-प्रदान होता है वहाँ व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है परंतु हमने केवल आदान को अपनाया। पर्यावरण भी इससे अछूता नहीं रहा।
मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया हजारों वर्षो में होती है। उस मिट्टी का भी हमने भरपूर दोहन किया। प्राकृतिक खाद की जगह रासायनिक खाद ने अपना स्थान स्थापित कर लिया। जो जैविक खाद हमारे मिट्टी के सहायक सूक्ष्म जीव व केंचुआ का पोषण कर बदले में उर्वरता प्रदान करता था। उसको भी रासायनिक खाद ने बेमौत मार दिया। आज सरकार भी जैविक खाद को अपनाने के लिए अथक प्रयास कर रही है। फैक्ट्रियों से निकलने वाला कचरा हमारे जल व मिट्टी को प्रदूषित कर दिया। रीसाइक्लिंग ज्ञान का उपयोग जब तक होता तब तक नदियों में अवैध रूप से कचरा बहाया जाता रहा। यमुना का ही उदाहरण लीजिए जो कभी पवित्र थी वह कचरा ढोने वाली नाला बन कर रह गयी। गंगा अपनी सामर्थ्य से अब तक खुद को बचाने में अथक प्रयास करती नजर आ रही है। कहर कोरोना एक मनुष्य को छोड़कर लगता है सब के लिए वरदान बन गया है। जनसंख्या का बढ़ता दबाव हमारे सारे पर्यावरण को उलट-पलट कर रख दिया है। छोटे-छोटे तालाब, गड्ढे, कुएँ को भरकर लोग घर बनाने लगे। वही बड़े-बड़े गड्ढों को भरकर अट्टालिका और अपार्टमेंट बनाया जाने लगा । खाद्य सुरक्षा और आवास अति आवश्यक है परंतु जनसंख्या नियंत्रण की नैतिक जिम्मेदारी लेना जरूरी नहीं समझा गया। हमारा आयुर्वेद का ज्ञान भी जो दादी नानी के पास था तथा जिससे हम अपनी प्रतिरोधक क्षमता को खोए बिना ही स्वस्थ रहा करते थे उसको भी खत्म कर दिया गया। आज जब इम्युनिटी सिस्टम की बात करते हैं तब हमें दादी नानी के ज्ञान की अनिवार्यता महसूस हो रही है जो हमारी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर भी बनाए रखा था।उसे आयातित दवाओं के हवाले कर आश्रित बना दिया गया। ग्राउंड वाटर का स्तर भी दिन-ब-दिन नीचे गिरता जा रहा है। जो प्राप्त हो रहा है वह भी जल प्रदूषित ही माना जाता है। देश का अरबों खरबों रुपया तो स्वास्थ्य पर ही खर्च हो जाता है। हमें जल, वायु, ध्वनि प्रदूषण को स्वस्थ बनाना है तो 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस को कागजों और प्रतीकों के बजाय जीवन की अनिवार्यता के साथ भावनात्मक संबंध को सुनिश्चित करना होगा। प्रत्येक को इसकी जिम्मेदारी प्राप्त करना होगा। ताप को नियंत्रित करके भी भीषण बाढ़ व ग्लेशियर को पिघलने से बचाना होगा। जब हम जंगल को फिर से बसाना शुरू करेंगे तभी हम स्वच्छ व स्वस्थ रह सकते हैं। अपनी आवश्यकताओं को संयमित करके ही पर्यावरण को स्वस्थ बनाते हुए देश को भी आत्मनिर्भर बना सकते हैं। विलासिता और आवश्यकता से हम पूर्णरूपेण परिचित हैं। फिर भी व्यवहार में न प्राप्त करते हुए केवल शाब्दिक रह जाता है। शास्त्री जी देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए दो कदम ताशकंद क्या चले उन्हें जीने न दिया गया। निष्कर्षतः हम अपनी आवश्यकताओं और जनसंख्या को कम करके पर्यावरण को बेहतर बनाने में अपना सर्वोत्तम योगदान दे सकते हैं। जंगल को फिर से बसाकर पर्यावरण को उन्नत बना सकते हैं। साथ ही देश को भी आत्मनिर्भर बनाने की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। इस छोटी सी कविता के साथ आओ एक शपथ ले-
शाब्दिक नहीं सैद्धांतिक नहीं
व्यवहार कर्म को पाए
जल, जंगल, जलवायु को
मिलकर स्वच्छ बनाएँ।
आवश्यकता और जनसंख्या को
फिर से कम कर जाए
जैविक, ह्यूमस को अपनाकर
धरा स्वस्थ कर जाए
तालाब, कुँए जिंदा कर
भौमजल पा जाए
जंगल को फिर से बसाकर
विश्व पर्यावरण दिवस मनाए
5 जून सत्य सिद्ध कर जाए।
एकलव्य
M.S.Baura
Pupri, sitamarhi.
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बहुत हीं सुन्दर आलेख!
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