Friday, 10 July 2020
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नैतिक शिक्षा "शिक्षा की जरूरत"-शुकदेव पाठक
नैतिक शिक्षा "शिक्षा की जरूरत"
बरसात का मौसम था। मुझे चौथी कक्षा की वो छोटी सी घटना आज भी याद है। मैं गाँव के कुछ मित्रों के साथ स्कूल पहुँचकर बस्ता रखा और मैदान में जाकर खेलने लगा। खेल ही खेल में एक मित्र हमसे टकरा कर गिर जाता है तथा उसका यूनिफॉर्म गंदा हो जाता है। वह जाकर हेड sir से शिकायत कर देता है। प्रार्थना की घंटी बजती है और सभी स्कूल के बच्चे प्रार्थना की कतार में खड़े होकर प्रार्थना करते हैं परन्तु मेरा मन विचलित सा रहता है। एक अजब सी सिहरन महसूस होती है। मन भयाक्रांत रहता है। प्रार्थना समाप्त होने के बाद मुझे बुलाया जाता है और हमारे क्लास टीचर ने बड़े ही प्यार से हमें अपने ही सिलेबस के उस पुस्तक ( नैतिक शिक्षा) की याद दिलाते हुए सबके सामने अपने मित्रों, सहपाठियों, गुरुजनों, माता-पिता, गाँव-समाज के प्रति समझाने की भरपूर कोशिश की जाती है।
दरअसल, उन दिनों सभी क्लास के सिलेबस में “नैतिक शिक्षा” के पुस्तक की पढ़ाई होती थी जिसमें बच्चों को अपने सामाजिक वातावरण में अनुशासित ढंग से जीने की कला का सामंजस्य बिठाने की शिक्षा होती थी। यह पाठ वह था जिसमें समाज का हर बच्चा अपने परिवार, पास-पड़ोस, बड़े-छोटे का व्यवहार निरंतर सीखता जाता था और अपने जीवन में उतारने की शैली को अपनाने का बहाना खोजता फिरता था।
जैसा कि हम सभी जानते हैं जीना एक कला है। कोई भी कलाकार तब तक कला को नहीं निखार सकता जब तक वह कला के तपस्या रूपी अग्नि में न तपे और इसकी शुरुआत बाल्यावस्था में बालकों के रुझान से होती है। उसमें उसके माता-पिता, गुरुजन, सगे-संबंधी अपनी महत्ती भूमिका निभाते हैं। चरित्र निर्माण में यह आवश्यक हो जाता है कि बालक का पालन-पोषण, सामाजिक परिवेश तथा शैक्षिक वातावरण किस प्रकार का है जिसमें बालक अपने को कुम्हार के उस बर्तन के समान धीरे-धीरे ढालता है और जब वह बनकर तैयार होता है तो उसके पीछे उसका कच्चापन तथा लचीलापन होता है जो उसके बनावट में पूर्णतः सहयोगी होता है। यह तभी संभव है जब जीवन बाल्यावस्था से किशोरावस्था के बीच हो। इसी अवस्था के बीच वह पककर तथा दृढनिश्चय होकर लक्ष्य के लिए तैयार हो जाता है।
न जानें क्यों हमें आज भी इस वैभवशाली समाज की इस शिक्षा में उस “नैतिक शिक्षा की जरूरत” महसूस होती है। आज हमारी शिक्षा के विकास में सभी क्रियाशील आयाम होते हुए भी हमारे बच्चों में उस उम्दा व्यवहार की कहीं न कहीं कमी महसूस होती है। जिस तरह हमारे बच्चे शिक्षा के नए-नए क्रियाकलापों से आसमान छू रहे हैं, उसमें यदि ‘नैतिक शिक्षा का नगीना’ बैठा दिया जाय तो ‘सोने पर सुहागा’ वाली कहावत पूर्ण रूपेण चरितार्थ होगी।
✍️ शुकदेव पाठक
म. वि. कर्मा बसंतपुर, कुटुंबा
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Really, moral education is the base of successful life. Discipline is key for bright future. Nice article👌👌💐💐
ReplyDeleteबहुत सुंदर👌👌👌
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeletenice sir ! इसकी आवश्कता हमारे सिलेबस को होनी चाहिए !
ReplyDeleteबहुत सुंदर।वर्तमान शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा का घोर आभाव है।जिसका कुप्रभाव तैयार हो रही देश की नवीन पीढ़ियों पर प्रत्यक्षतः दॄश्यमान है। माता-पिता, गुरुजनों एवं घर के अन्य वृद्धजनों के प्रति बच्चों में अनुशासित व्यवहार का आभाव अब आम बात हो गयी है।
ReplyDeleteपाठक जी हमें आज भी याद है कि हमने अपने स्कूली शिक्षा के दौरान नैतिक शिक्षा में अब्राहम लिंकन की एक कहानी पढ़ी थी।आज भी उसकी एक-एक पक्तियां हमारी यादों में हैं।उंस पंक्तियों में दिए हुए एक एक शिक्षा आज भी हमारा पथ प्रदर्शित करती हैं।
पुनः स्कूली पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा को शामिल करने के लिए आप सभी शिक्षकों द्वारा सरकार से मांग की जानी चाहिए।
सादर आभार।
मिथिलेश पाठक
बहुत-बहुत सुन्दर!
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