Thursday, 13 August 2020
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शिक्षा और सिनेमा-हर्ष नारायण दास
सिनेमा और शिक्षा
शिक्षा का उद्देश्य ही है-सार्थक जीवन जीना। जीवन की सार्थकता में समाजीकरण की महती भूमिका होती है। दरअसल सिनेमा समाज का यथार्थवादी चित्रण करता है। समाज के ज्वलन्त मुद्दों को रुपहले पर्दे पर दिखाता है और सवाल उठाता है।
बच्चों में अंतर्निहित क्षमताओं का अधिकतम विकास करना जिसमें शिक्षक की भूमिका एक सुगमकर्ता की होती है, जो ऐसा परिवेश रचता है जिसमें बच्चे की प्रतिभाएँ स्वयं ही उभरने लगती हैं। उन्हें पल्लवित, पुष्पित होने का अवसर मिलता है। सिनेमा जगत में विपुल कुमार द्वारा लिखित और नागेश कुकनूर द्वारा निर्देशित फिल्म "इकबाल'' एक ऐसे ही बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है जो न तो बोल सकता है और न सुन ही सकता है। बाबजूद इसके क्रिकेट में इकबाल की गहन रुचि है। वह भारतीय टीम की नीली टी-शर्ट पहनने के सपने देखता रहता है। यानी वह भारतीय टीम में शामिल होना चाहता है। लेकिन उसके पिता उसे इसके लिये निरुत्साहित करते हैं। वे सोचते हैं कि इकबाल दिन में सपने देखता है। वे उसे अपनी तरह किसान बनाना चाहते हैं ताकि जिन्दगी की गुजर-बसर हो सके। इकबाल की बहन खदीजा इकबाल के सपने को साकार करने में उसकी भरपूर मदद करती है और उसके शब्द बनती है यानि वह इकबाल के संकेतों की भाषा में प्रस्तुत करती है। हालांकि उसे उस भाषा की जरूरत नहीं है। गुरुजी इकबाल को क्रिकेट की कोचिंग में शामिल तो करते हैं लेकिन जब इकबाल की प्रतिभा उसी कोचिंग के एक अमीर लड़के पर भारी पड़ने लगती है तो वे कोई बहाना बनाकर इकबाल को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। फिर मोहित सर जो बहुत अलग तरह के हैं लेकिन क्रिकेट के महारथी हैं इकबाल को क्रिकेट के गुर सिखाते हैं। इस काम में सहायक बनते हैं। इकबाल की बहन और उनकी भैसें जिनकी पीठ पर भारतीय टीम के क्रिकेटरों के नाम लिखे हैं। बहुत सारी कठिनाइयों को झेलने के बाद अंततः इकबाल का हुनर काम करता है और वह नीली टी-शर्ट पहनकर भारतीय टीम में शामिल हो जाता है।
यह फ़िल्म शिक्षा व्यवस्था के अनेक पक्षों पर कुठाराघात करती है। फिर चाहे वह एक शिक्षक की नकारात्मक सोच हो या बच्चों के अमीर-गरीब होने का अंतर हो। एक शिक्षक के लिये उसकी ईमानदारी और निष्ठा ही सर्वोपरि होती है। वह बच्चों में कोई भेद-भाव नहीं करता।उससे भी ज्यादा उसका मानवीय गुणों से युक्त होना अनिवार्य है। लेकिन इकबाल के गुरुजी में शिक्षकत्व है ही नहीं। वे अपनी क्रिकेट एकेडमी को चलाने के लिए उसे बचाने की खातिर अमीरों के हाथों बिक जाते हैं और अपने सभी मूल्यों को ताक पर रख देते हैं। दूसरी और मोहित जैसे गुरु हैं जो परिस्थितियों और षडयंत्रो का शिकार हो इतना त्रस्त हो चुके हैं कि अब होश में रहना ही नहीं चाहते लेकिन एक बार तय होने और इकबाल की प्रतिभा में दम को मानते हुए जी जान से उसकी सहायता करते हैं। पूरी फिल्म शिक्षा व्यवस्था के उस सच की ओर संकेत करती है कि अक्षमताएँ कभी भी आगे बढ़ने, कुछ कर गुजरने, अपने सपनों को साकार करने में आड़े नहीं आती। बस कोई न कोई उपाय हमें खोजना होगा। प्रतिभा अपना रास्ता तय कर लेती है अगर हम पूर्ण निष्ठा से लगे रहें। यह निष्ठा इकबाल में है।
भारतीय कक्षाओं का समावेशी स्वरूप भी इसी दर्शन को स्वीकार करता है कि बच्चों की वैयक्तिकता को स्वीकार करते हुए उनकी अस्मिता बनाये रखना चाहिये। बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो शिक्षकों की असंवेदनशीलता के चलते शिक्षा की दुनियाँ से बाहर हो जाते हैं। शिक्षा का अधिकार यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी बच्चे को उसकी अक्षमता, जाति, धर्म, भाषा के आधार पर शिक्षा से वंचित न रखा जाए। यह फ़िल्म बच्चों की शिक्षा संबंधी अधिकार का समर्थन करती है।
कहानी का यह हिस्सा इस बात पर बल देता है कि बच्चों के सपने साकार होने में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फ़िल्म "इकबाल'' की कहानी निश्चित ही शिक्षा के बहुत सारे आयामों को उद्घाटित करती है। विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों की उम्मीदों को संजोए रखती है। इकबाल को भी शिक्षक चाहिए जो उसे क्रिकेट के गुर सिखाए, क्रिकेट के जंगल में बिछे काँटों से बचाए। हमारे करोड़ों बच्चे ऐसे ही शिक्षकों की राह ताक रहे हैं। क्या उन्हें ऐसे शिक्षक मिल पाएँगे?
हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
म. विद्यालय घीवहा
फारबिसगंजअररिया
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