श्रीकृष्ण की बाल क्रीड़ा में समाहित है शिक्षणशास्त्र-चन्द्रशेखर प्रसाद साहु - Teachers of Bihar

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Wednesday, 12 August 2020

श्रीकृष्ण की बाल क्रीड़ा में समाहित है शिक्षणशास्त्र-चन्द्रशेखर प्रसाद साहु

श्रीकृष्ण की बाल क्रीड़ा में समाहित है शिक्षणशास्त्र

          श्रीकृष्ण का बाल क्रीड़ा बच्चों के लिए दर्शनीय है, उपयोगी है व प्रेरक है। उनकी बाल क्रीड़ाओं को देखना, सुनना और समझना बच्चों के मानसिक एवं भावनात्मक विकास के लिए जरूरी है। श्रीकृष्ण अपने बाल-आयु में जो कौतुक करते हैं उसे बच्चों को देखना फायदेमंद है, खासकर आठ से दस वर्ष तक के आयु के बच्चों के लिए। इससे उनमें प्रेम, मेल-मिलाप, तर्क करने, अन्वेषण करने, निर्णय लेने, अपनी सूझ का विकास करने, सामूहिक भावना, साहसी बनने आदि गुणों का विकास होता है। श्रीकृष्ण के बालपन में चपलता, चंचलता एवं मनमोहक कौतुक में ये सारे गुण प्रकट होते हैं जो एक सामान्य बच्चों के लिए आवश्यक है
          आज जब शहरी सभ्यता में बच्चे एकल परिवार में एकांत व अकेलापन का शिकार होते हैं, अपने पास- पड़ोस में रहने वाले परिवार व बच्चों से अनभिज्ञ रहते हैं, उनसे किसी प्रकार का प्रेम-संपादान, प्यार-दुलार का नाता नहीं रहता, एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना लगभग नहीं के बराबर होता है। ऐसे में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप बाल-सखा के बीच मेल, प्रेम और आत्मीयता के रूप में एक व्यापक दृष्टि बोध उत्पन्न कराता है। श्रीकृष्ण अपनी बाल-सखा मंडली के साथ रहते हैं। उस सखा मंडली में गाँव के सभी बालसखा होते हैं। यह सखा मंडली ही पूरे गाँव में चपलता करता है और लोगों के आनंद-रस की रसानुभूति कराता है
          श्रीकृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ गाय चराने जाते हैं, गायों की झूंड लेकर वह वन-क्षेत्र में भटकते हैं।श्री कृष्ण का यह पशु-प्रेम के साथ-साथ समस्त प्रकृति के साथ अगाध अनुराग  व लगाव को प्रकट करता है। वह अपने साथ घर से बंधा हुआ कलेवा (भोजन) ले जाते हैं। भूख लगने पर वही कलेवा अपने बाल-सखाओं के साथ मिल-बाँट कर खाते हैं और खिलाते हैं। यह सामाजिक समरसता को प्रदर्शित करता है। आज कुछ घर-परिवार ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों में जातीय भावना एवं जातीय पहचान से अवबोध कराते हैं। अपनी जाति की प्रतिष्ठा, गौरव गाथा की कहानी सुनाते हैं। ऐसे में श्रीकृष्ण का यह बाल चरित ऐसे घर-परिवार के लिए सीख है।
          बच्चों के लिए कोई जाति या वर्ग नहीं होता है। वह जाति-वर्ग से ऊपर उठकर अपने बाल-सखाओं से  प्रेम करते हैं, उनके साथ खाते-पीते हैं, घूमते-फिरते हैं । उनके लिए केवल बाल-मैत्री ही  स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। श्रीकृष्ण अपने बाल-सखाओं के साथ अनेक प्रकार के खेल खेलते हैं। उनके साथ के बाल-सखा भी कई नए प्रकार के खेल खेलते हैं, नए-नए खिलौने गढ़ते हैं। नए खेल-गतिविधि की कल्पना करते हैं। खेलने में बच्चों को बहुत आनंद मिलता है। बच्चों के लिए खेलना ही उनकी पहली चाह होती है। खेलना उनका सहज स्वभाव है। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ और ग्वाल-बाल के साथ अनेक खेल खेलते हुए कौतुक करते हैं। गाय चराने  जब वह वन-क्षेत्र में जाते हैं तो उन्हें खेलने के लिए रमणीक स्थान मिलते हैं। हरे-भरे पेड़-पौधे, पुष्पों एवं फलों से लदे वृक्ष, अनेक प्रकार के सुंदर-सुंदर पुष्पों के पौधे, लता, वल्लरी, विटप के मनोहारी दृश्य, इस प्राकृतिक सुषमा में ही श्याम अपनी सखाओं के साथ खेल खेलते हुए इसका भरपूर आनंद लेते हैं। वह इस बाल क्रीड़ा में खेल भावना, सामूहिक भावना का विकास करते हैं।
          बच्चों के लिए प्रकृति का सानिध्य आवश्यक है। नैसर्गिक सुषमा में बच्चों का भ्रमण अनिवार्य है। नदी, झरना, पहाड़, वन आदि का भ्रमण बच्चों को सौंदर्य अनुभूति कराने के लिए जरूरी है। प्राकृतिक भ्रमण से जहाँ बच्चों में प्रकृति के प्रति लगाव, आकर्षण उत्पन्न होता है वहीं उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी विकास होता है। वह कल्पना अवलोकन, परीक्षण, तर्क, तुलना, परिणाम आदि प्रक्रियाओं से तथ्यों को समझते हैं। श्रीकृष्ण का प्रकृति-भ्रमण सौंदर्य बोध के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी विकसित करता है।
          श्री कृष्ण की बाल क्रीड़ा में समावेशी शिक्षा भी समाहित है। उनके श्रीदामा और श्याम सखा दो ऐसे ग्वाल बाल हैं जो दिव्यांग है। श्रीकृष्ण उनके साथ मित्रता करते हैं, अपनी बाल मंडली में समानता का व्यवहार करते हैं, उनके प्रति उपेक्षा, तिरस्कार और भेद का व्यवहार नहीं करते हैं। ये दोनों ग्वाल बाल सभी सामान्य बच्चों के साथ ही खेलते हैं, रहते हैं, खाते-पीते हैं व  क्रियाकलाप में समान रूप से भागीदार होते हैं। उनका यह कौतुक बच्चों में समानुभूति के साथ-साथ समावेशी भावना का विकास करता है। श्रीकृष्ण अपने ग्वाल-बाल के साथ गांव के हर घर-परिवार में भ्रमण करते हैं। उनका यह भ्रमण चपलता से भरा होता है। वह लोगों के साथ हास-विलास करते रहते हैं। मिलने के पहले अभिवादन करते हैं, उनका आशीर्वाद लेते हैं, फिर उनके घरों में रखे खाने-पीने की चीजों की मांग करते हैं। उनका सबसे प्रिय मांग है- माखन। वह माखन खुद भी  खाते हैं और अपने ग्वाल-बाल को भी खिलाते हैं। वह बार-बार कहते हैं कि खाने-पीने के चीजों पर पहला अधिकार बच्चों का है। इसी बाल अधिकार की भावना से वह हर घर में जाते हैं और वहां गृहस्वामी-स्वामिनी रहे या ना रहे, कोई अंतर नहीं पड़ता। वह साधिकार माखन से भरे घड़े को छींके से उतारते हैं और सारा माखन चट कर जाते। इसी संदर्भ में वह माखन चोर कहलाते हैं।
          श्रीकृष्ण गोकुल, नंदगांव को अपना ही घर समझते थे, हर चीज उनके लिए अपनी होती थी, दूसरे घर की चीजों पर भी उतना ही अधिकार रखते थे जितना अपने घर की वस्तुओं पर। श्रीकृष्ण की यह  दृष्टि निर्मल थी, भेदभाव रहित थी। इस संदर्भ में वह निष्कलुष एवं समदर्शी हो उठते हैं। बालकों की यह सहज प्रवृत्ति होती है, उनका स्वभाव व प्रवृत्ति निर्मल, निष्कलुष, भेदभाव रहित, समदर्शी होती है। बच्चों को देखने, परखने एवं उनसे व्यवहार करने के समय हमें उनके इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का पूरा ध्यान रखना चाहिए। बच्चे सुंदर होते हैं, चंचल व चपल होते हैं, उनका व्यवहार कोमल एवं मृदुल होता है। वे अपने कौतुक से सबों को आनंदित करते रहते हैं। इसी भाव के कारण श्री कृष्ण के नटखट व्यवहार से कोई खिन्न या दुखी नहीं होता बल्कि आनंद रस की रसधार में बेसुध होकर पुलकित, प्रमुदित एवं प्रफुल्लित होता रहता है। यह आत्मीयता, प्रेम, स्नेह की सुधा हर घर-परिवार, हर गली, मुहल्लों, शहरों-कस्बों में बरसाने की जरूरत है क्योंकि बच्चे तो हर जगह  हैं। वह स्नेह, प्यार एवं ममता के अभिलाषी होते हैं।
          श्रीकृष्ण में बाल्यावस्था से ही निर्णय लेने की क्षमता दिखती है। पराक्रमी  इंद्रदेव की पूजा के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का प्रस्ताव हो अथवा क्रूर राजा कंस को माखन से भरे घड़े भेजने पर रोक का सुझाव हो। उनमें अन्याय का प्रतिकार करने की चेष्टा देखने को मिलती है। वह अपनी सूझ एवं निर्णय लेने की क्षमता से ब्रज वासियों को प्रभावित करते रहते हैं। बच्चों में सूझ व विवेक के आधार पर स्व-निर्णय लेने की क्षमता होती है, हमें इस क्षमता को उभारने की चेष्टा करनी चाहिए।
          श्रीकृष्ण में बाल्यावस्था में अद्भुत साहस भी है। वह यमुना नदी से कालिया नाग का पलायन कराते हैं, गोवर्धन पर्वत धारण करते हैं, अत्याचारी शासक कंस के द्वारा भेजे गए कई राक्षसों का संहार करते हैं, मल्ल-युद्ध प्रतियोगिता में सहर्ष भाग लेते हैं। अंत में अनाचारी कंस का भी वध करते हैं। उनमें अद्भुत शौर्य और पराक्रम है। वह बच्चों के सामने एक बहादुर बच्चे का दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। बच्चों को शौर्य व पराक्रम दिखाने का हमें अवसर देना चाहिए। प्रतियोगिता आयोजित कर उनकी प्रतिभा को निखारना चाहिए। श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ा में कई ऐसे कौतुक हैं जो बच्चों, अभिभावकों एवं शिक्षकों के लिए दृष्टि बोध कराने वाले हैं। वस्तुतः श्री कृष्ण की बाल लीलाओं में उच्च स्तर का शिक्षण-शास्त्र उदघाटित होता है।


चंद्रशेखर प्रसाद साहु
प्रधानाध्यापक
रा कन्या मध्य विद्यालय कुटुंबा
प्रखंड- कुटुंबा, औरँगाबाद (बिहार)

5 comments:

  1. Wah
    Gadgad kar diya aapka yah dristikon
    Abhar

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  2. श्री कृष्ण पूर्ण हैं। अनेकता में एकता। बहुत बढ़िया 👌👌

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