Saturday, 5 September 2020
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श्री गुरूवे नमः--अश्मजा प्रियदर्शिनी
श्री गुरुवे नमः
“गुरु” शब्द का पर्याय है अध्यापक, शिक्षक “गु” का अर्थ है अंधकार और “रू” का अर्थ है निरोधक अर्थात गुरु वह है जो शिष्य के अज्ञानांन्धकार को दूर करें।
“गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरु देवो महेश्वर:
गुरु साक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।“
अर्थात गुरु वह है जो शिष्यों के हृदय में शुभ संस्कारों का सृजन करें जिससे वह पारब्रह्म परमेश्वर कहलाए। शुभ गुणों का लक्षण वर्धन करने के कारण वे पालनहार विष्णु कहलाए एवं शुभ संस्कारों को प्रवृत्तियों कुत्सित कुंठित मनो वृत्तियों अंतर विकारों को दूर करने के कारण महादेव महेश कहलाए।
गुरु कुम्हार की तरह है जो बाहर से घड़े को ठोकते पीटते हैं तथा भीतर से हाथ का सहारा देकर खोट निकाल कर लोकोपयोगी बनाते है। कबीर दास जी ने लिखा है –
“गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है गढीं-गढीं काढे खोट।
अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहर चोट।“
सुफनी ने लिखा हैं- “The teacher is like a candle which lights others in consuming itself.” अर्थात अध्यापक या गुरु उस मोमबत्ती के सदृश्य है जो स्वयं जलकर दूसरे को प्रकाश देते हैं। वह ज्ञान की ज्योति सम्भाव से विकीर्ण करते है। महर्षि अरविंद के अनुसार “अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली हैं संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सीचकर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं। “गुरु भवितव्यता की उज्जवल भव्यता का वास्तुकार होता है। वह ऐसा शिल्पकार है जो मानव निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान करता है। वह भव्य भवन की नींव का पत्थर है आदर्श शिशु के लिए वित्तापहरण नहीं चित्तापहरण है ।वह शिष्यों को विद्युत यष्टिका से नहीं वरन प्रमोत्कर्ष से जोड़े रखते है।
संस्कृति के उदय एवं सभ्यताओं के विकास की भूमि में जो भी तत्व अंकुरित पल्लवित पुष्पित हुए हैं उन सभी का निर्माण किसी न किसी गुरु के माध्यम से अवश्य हुआ है। अरब सभ्यता के विकास में अलबरूनी की कुशलता श्रेष्ठ थी। यूनान के उत्कर्ष में सुकरात, प्लेटो, जेने, एपिक्योरस के प्रयास महत्वपूर्ण है। अरस्तु ने सिकंदर को बनाया। इटली में दाँते, ईसाइयत को उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करने में आँगस्टीन एंथोनी, एकहर्ट के प्रयास अद्वितीय है। भारत में विष्णु गुप्त जैसे गुरू ने दासी पुत्र को अखंड भारत का निर्माता बनाया। ऐसे सद्गुरु सभी को नहीं मिलते। सद्गुरु की खोज कठिन है।आखिर ज्ञान देने वाले गुरु कहाँ मिलेंगे? हम सभी जानते हैं गुरु बिन ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। गुरु का सानिध्य
अनूठा है, अनमोल है। उनके सानिध्य एवं निरंतरता साथ से जीवन चक्र बदलने लगता है। मन में जड़ जमाए बैठी गलत भावनाएँ, आस्थाएँ, मान्यताएँ बदलकर सही आकृति लेने लगते हैं। गुरु के सानिध्य में विचार परिवर्तन के साथ जीवन परिवर्तन के क्रान्ति का स्फुरण स्वत: हीं होने लगता है। उनके दाहक स्पर्श से जीवन की अवांछनीयताओं का दमन हो जाता है। सत् का सत्य बोध अनायास हीं हो जाता है। ऐसे हीं सत्य की सात्विकता में भटकते ब्रहमवेत्ता दत्तात्रेय ने ब्रह्मा जी से पूछा कि गुरु का ज्ञान कैसे मिलेगा? ब्रह्मा जी ने कहा “आप जहाँ भी जाएँ, हर चीज का सुक्ष्म अध्ययन करें।“ इस प्रकार निर्भयमुक्त भाव से विचरण करते हुए ब्रह्मनिष्ठ दत्तात्रेय जी ने चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया और उनसे शिक्षा ग्रहण किए।
1)पृथ्वी से शिक्षा:- दत्तात्रेय ने पृथ्वी से धैर्य, परोपकार, क्षमा एवं सहिष्णुता की शिक्षा ली। जिस प्रकार पृथ्वी पर अनेक उत्पात होते रहते हैं पर वह किसी से बदला नहीं लेती। वृक्ष स्वयं फल न खाकर दूसरे को देने में हीं हितकारी है। अत: मानव को चाहिए की वह सदा सन्मार्ग पर चलता रहे एवं परोपकारी बनें।
2)वायु से शिक्षा: दत्तात्रेय ने प्राणवायु से शिक्षा ग्रहण किया कि जितने से जीवन का निर्वाह हो जाए उतना हीं भोजन करना करना चाहिए। विषयों का उपयोग ऐसे करना चाहिए कि बुद्धि विकृत न हो। वायु कहीं भी बहे ,उसमें आसक्ति न हो। अर्थात साधक को अपने लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए। अन्यत्र कहीं आसक्ति नहीं होनी चाहिए। गन्ध पृथ्वी का गुण है वायु को गन्ध वहन करना पडता है। फिर भी वायु शुद्ध हीं रहती है। इसी प्रकार पार्थिव शरीर से जब तक संबंध है व्याधि, पीडा आदि सहन करना हीं पडेगा परन्तु आत्मदर्शी साधक उक्त पीडा से निर्लिप्त रहते हैं।
3)आकाश से शिक्षा: दत्तात्रेय ने आकाश से आकाशरूपता की भावना की शिक्षा ली। पृथ्वी पर प्रलय, महामारी, बाढ.,आग, सृष्टि, जन्म-मृत्यु आदि होते रहते हैं पर आकाश अछूता हीं रहता है। इसी प्रकार मानव जीवन में अनेकानेक घटनाएँ घटती रहती है पर आत्मा का इससे कोई संस्पर्श नहीं है।
4) जल से शिक्षा: जल स्वच्छ, शुद्ध, पवित्र, मधुर, मीठा होता है। तीर्थों में प्रवाहित गंगा आदि के दर्शन स्पर्श और नामोच्चारण पवित्र होते हैं उसी प्रकार मानव मात्र को भी लोकपावन होना चाहिए जिसके दर्शन, स्पर्श और नामोच्चार से लोक में पवित्रता व पुण्यता का अनुभव हो।
5) अग्नि से शिक्षा: अग्नि तेजस्वी एवं ज्योतिर्मय होती है। उसे कोई दबा नहीं सकता। उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं है। सर्वभक्षी होने पर भी वह निर्लिप्त है। अग्नि की तरह साधक को कहीं प्रकट कहीं अप्रकट तथा कल्याणकारी पुरुष उपास्य होना चाहिए।जैसे अग्नि लंबी-चौडी, टेढी-सीधी लकडिय़ों में रहकर उसके समान लंबी व टेढी दिखाई देती है। वास्तव में वह वैसी नहीं होती है। वैसे हीं सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य करण रूप जगत में व्यापक होने के कारण वस्तुओं के नाम रुप से कोई संबंध न होने पर भी उनके रुप में प्रतीत होती है।
6) चन्द्रमा से शिक्षा: काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढती रहती है। तथापि चन्द्रमा न घटता है ना बढता है। वैसे ही जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अनेक घटनाएँ शरीर पर घटती रहती है पर आत्मा से इसका कोई संबंध नहीं है। आग की लौ क्षण-क्षण उत्पनन एवं नष्ट होती रहती है। जल- प्रवाह के समान वेगवान काल द्वारा क्षण-क्षण शरीर की उत्पत्ति एवं विनाश होता रहता है पर अज्ञानता वश यह दिखाई नहीं देती पर जीवन काल की कलाओं से संचालित होती रहतीं है।
7) सूर्य से शिक्षाः दत्तात्रेय ने सूर्य से ये शिक्षा ग्रहण की कि जैसे वह अपने किरणों से जल संचित करता है व समय आने पर उसे बर्षा भी देता हैं वैसे हीं योगी समयानुकूल विविध विषयों को ग्रहण करते हैं, उन्हें कभी आशक्ति नहीं होती। जैसे विविध पात्रों में विविध प्रतिबिंब होने पर भी आत्मा सूर्य के समान एक ही है।
8)कपोत से शिक्षाः दत्तात्रेय ने कपोत अर्थात कबूतर से ये शिक्षा ली कि कभी किसी से अत्यंत स्नेह, प्रेम व आशक्ति नहीं रखनी चाहिए अन्यथा उसकी बुद्धि अपना विवेक खो देती है और कष्ट उठाना पडता है। उदाहरणार्थ एक कबूतर का जोडा अपने बच्चों को घोसला में छोडकर चारा चुगने गया। जब वह लौट के आया तो देखा कि उसके बच्चों को शिकारी ने जाल में बाँध रखा है। मोहवश कबूतर अपने बच्चों को निकालने के क्रम में स्वयं भी फँस गई और फिर कबूतर भी मोहान्धता के कारण जाल में फँस गया और मार दिया गया। इसी प्रकार यह मानव जीवन मुक्ति का खुला द्वार है इसे मोहान्धकार में नहीं बिताना चाहिए।
9) समुद्र से शिक्षाः समुद्र से भगवान दत्तात्रेय ने शिक्षा ग्रहण किया कि साधक को सदा सर्वदा प्रसन्न, अथाह, गंभीर एवं अपार होना चाहिए। उसे ज्वार भाटा या तरंगों से रहित शांत समुद्र की तरह होना चाहिए। समुद्र वर्षा में न तो बढता है न हीं गृष्म ऋतु में घटता है उसी प्रकार भगवत परायण साधक को सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति से प्रफुल्लित या उदास नहीं होना चाहिए।
10) मधुमक्खी से शिक्षाः जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से रस का संचय करती है चाहे वह फूल बडा हो या छोटा वैसे हीं बुद्धिमान पुरूष वह है जो छोटे-बडे सभी से सार तत्व को ग्रहण करे साथ हीं संग्रही नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मधुमक्खी के समान अपना जीवन भी संग्रहित करने में बिता देता है। अर्थ लिप्सा में उसका जीवन नष्ट हो जाता है।
11)पतंगा से शिक्षाः दत्तात्रेय ने पतंगा से सीखा कि पतंगा मोहासक्त होकर लौ की चपेट में आकर जल जाता है वैसे ह़ीं इन्द्रियों को वश में न रखनेवाले मनुष्य घोर अन्धकार में गिरकर सर्वनाश का पर्याय बन जाता है। मनुष्य में पाँच इन्द्रियों शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध से आसक्ति होने से बचने की आवश्यकता होती हैं।
12)हाथी से शिक्षाः शिकारी एक हाथी को बंधन में कर दूसरे हाथी को फँसाता है। एक हाथी को फँसा देख दूसरा भी अपने को बंधन में डाल लेता है इसी प्रकार स्वजनों के मोहजनित भ्रम से मनुष्य को मोह से बचना चाहिए क्योंकि यह शोक का कारक है।
13)मधु निकालने वाले से शिक्षाः मधु निकालने वाले से दत्तात्रेय ने ये शिक्षा ली कि संसार के लोभी पुरूष बडी कठिनाई से धन संग्रह करते हैं किन्तु उसका स्वयं उपयोग नही कर पाते। मधु निकालने वाला छत्ते से बडी कठिनाई से मधु निकालता है पर वह मधु बेच देता है स्वयं उपयोग नहीं कर पाता है। इसी प्रकार संग्रह की प्रवृत्ति से ग्रस्त मनुष्य स्वयं कष्ट से उपार्जित, संग्रहित धन का उपयोग नहीं कर पाता है।
14) हिरण से शिक्षाः शिकारी के गीत गुंजन से मोहित होकर हिरण जाल में फँस जाता है वैसे हीं मनुष्य को श्रुति, मधुर संगीत स्वर, नृत्य, नाद, वचन अथवा शब्द धुन से विरत रहना चाहिए अन्यथा वह बंधन नाश का कारण बनती है।
15) मछली से शिक्षाः मछली बंशी में लगे टुकड़े से आकर्षित होकर लोभवश वंशी में फँस जाती है और अपने प्राण गँवा देती है वैसे हीं रसेंद्रियों के वश में न रहनेवाला मनुष्य स्वाद के लोभ में अपनी जिह्वा पर नियंत्रण न कर पाने से अपने प्राण गँवा देता है।
16)पिंगला वैश्या से शिक्षाः स्वेचछाचारिणी, रूपवती पिंगला से दत्तात्रेय ने शिक्षा ली कि कभी-कभी निराशा भी वैराग्य का कारण बन जाती है। अपने व्यवसाय में इन्द्रियों के अधीन होने के कारण वह पुरुषों के अधीन हो गई। माया मोह के कारण वह बिक गई। मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है, इसे तलवार की तरह काटने वाली कोई वस्तु है तो वह वैराग्य है। पिंगला ने प्रण किया कि अब वह प्रभु सुमिरन में हीं अपना जीवन समर्पित करेगी।
17) कुरर पक्षी से शिक्षाः कुरर पक्षी माँस का बडा टुकड़ा लेकर उड चला तो उसके पीछे अनेक पक्षी पीछा कर छीनने के लिए उद्धत हो गए। तब कुछ टुकड़ा जमीन पर जा गिरा सभी उसपर टूट पड़े। कुरर शांत आकाश में उडता माँस भक्षण करता रहा। इसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष को भी अनन्त सुख की प्राप्ति हेतु संचित धन का त्याग कर सुख पूर्वक रहना चाहिए। जीवन में निश्चितता, त्याग एवं अपरिग्रह से हीं आ सकती है।
18) कुआँरी कन्या से शिक्षाः अतिथि सत्कार में अपने अल्हड़पन के कारण बालाओं के हाथों में बजने वाली चुडियों से दत्तात्रेय को ये शिक्षा मिली कि जब बहुत से लोग साथ में रहते हैं तो आपस में कलह होता है। अतः किसी साधना के लिए साधक को एकांत एवं शांति का मार्ग अपनाना चाहिए।
19) बालक से शिक्षाः मान-अपमान, जय-पराजय, धन-वैभव, आशा-निराशा, सुख-दुख, घर-परिवार की चिंता से विहीन मासूम बालक से ये सीख मिली कि संसार में दो प्रकार के व्यक्ति निश्चिंत एवं परमानंद से जीवन यापन कर सकते हैं। एक भोला निकृष्ट बालक एवं गुणातीत वैरागी पुरूष।
20) वाण बनाने वाले व्यक्ति से शिक्षाः वाण बनाने में पैनी निगाह रखनी पडती है। दत्तात्रेय ने शिक्षा ग्रहण किया कि मनुष्य को अपने जीवन के कार्य में तल्लीन रहना चाहिए। आसन एवं श्वास को भी जीतकर वैराग्य एवं अभ्यास के द्वारा अपने मन को संयमित रखना चाहिए।
21) सर्प से शिक्षाः सर्प से ये शिक्षा मिली कि योगी पुरुषों को सर्प के समान अकेले विचरण करना चाहिए।उसे मंडली में नहीं रहना चाहिए। उसे मितभाषी, गृह त्यागी होना चाहिए। उसे जहाँ स्थान मिले आराम से मिथ्या प्रपंच से बचकर निफिक्र जीवन जीना चाहिए।
22) मकडी से शिक्षाः एक मकडी जाल बुनते-बुनते जाल में फँस गई। वह निकल नहीं पा रही थी फिर उसने जाल को मुँह में समेटना शुरु किया जिससे स्थान रिक्त हो गया और मकडी बन्धन मुक्त हो गई। इसी प्रकार परमात्मा की बनाई दुनिया में जब अव्यवस्था उत्पन्न होती हैं तो जगत पालक परमेश्वर उसे अपने में समा लेते हैं।
23) भृंगी कीडे से शिक्षाः एक भृंगी कीडे को पकड़कर अपने रहने के स्थान पर रख देता है। वह कीडा उठकर भाग नहीं पाता है। वह भृंगी के डर से उसी का चिंतन करता रहता है और शरीर से तद्रूप हो जाता है। अतः प्राणी स्नेह से, द्वेष से या भय से जान-बुझकर एकाग्रता पूर्वक अपना मन किसी चीज में लगाता है तो उसी वस्तु का स्वरूप उसे प्राप्त हो जाता है। इसलिए मनुष्य को विषय वस्तु से आशक्त न रहकर ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए।
24) अजगर से शिक्षाः जीवन में सुख-दुख पूर्व के कर्म के अनुसार स्वतः हीं मिलता रहता है। रूखा-सूखा या स्वादिष्ट जो भी मिले उसी में संतुष्ट रहकर जीवन निर्वाह करना चाहिए।
अतः साधक के प्राणों की पीर जब पुकार बनती है तब वह सद्गुरु व सद्ज्ञान की तलाश करता है। इसके लिए अपने अस्तित्व को गलाकर, प्राणों को पिघलाकर, स्वयं को नवीन रूप में ढालना पडता है। वह रूप है शिष्य का जो साहस, संकल्प और समर्पण की त्रिधातु से ढाला जाता है। सही कहा गया है-
“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरु शंकर रूपिणम्।“
यदि साधक उन्मुक्त भाव से शिक्षा ग्रहण करे तो अच्छे-बुरे, छोटे-बडे किसी भी जीव से उसे उपयुक्त ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है परन्तु मोह, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या के कार्य से ज्ञान की प्राप्ति नही हो सकती है। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेनद्रियों के कारण मनुष्य भटकते रहते हैं।मनुष्य जीवन की समझदारी इसी में है कि माया-मोह एवं भव-बंधन को को त्याग कर सांसारिक मुक्ति एवं मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। समस्त आसक्तियों का परित्याग कर परमात्मा की प्राप्ति को जीवन का उद्देश्य बनाना चाहिए। उन्मुक्त, आसक्ति रहित मोहोत्कर्षण से विहीन, पूर्वाग्रह मुक्त, शुद्ध दृष्टि एवं बुद्दि व गतानुगतिकता से रहित सद्बुद्धि हीं ज्ञान का मुख्य आधार एवं माध्यम है। दत्तात्रेय ने शिष्य बन अनेक गुरु बनाए एवं उनसे शिक्षा प्राप्त किए। संपूर्ण जीव जगत में, कण-कण में गुरु का वास है। कबीर दासजी ने लिखा है-
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
अत: सद्गुरु का वंदन बारंबार है जय श्री गुरु देवाय नम:!
अश्मजा प्रियदर्शिनी
पटना, बिहार
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बहुत ही सुन्दर रचना है। इसे सुपर से भी ऊपर कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद!
हार्दिक धन्यवाद🙏💕
Deleteअदभुत, आपने शिक्षा के महत्व को काफी बेहतर तरीके से बताया है। हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDelete🙏
हार्दिक धन्यवाद🙏💕
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