Monday, 16 November 2020
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बच्चों को समझने का दिवस बाल दिवस-चन्द्रशेखर प्रसाद साहु
बच्चों को समझने का दिवस है बाल दिवस
चाचा नेहरू के जन्मदिन के बहाने बच्चों का विशेष दिवस- बाल दिवस बेहद प्रासंगिक दिवस है। प्रासंगिक इसलिए कि इस दिन बच्चों के बचपन को स्वीकार करें, उसे महसूस करें एवं उसे और अधिक सुंदर तरीके से सजाएं, सँवारें साथ ही उसे एक अद्वितीय स्वरूप में गढ़ने का विचार करें।
बच्चे प्रकृति की सुंदरतम रचनाओं में सबसे मनमोहक हैं। इनका भोलापन, मासूमियत, निर्द्वन्द्व एवं खिलखिलाहट से भरा चेहरा सबका मन आह्लादित कर देता है। इनका सच्चा प्यार और सुंदर मन सबको दुःख, शोक, चिंता और तनाव से दूर कर प्रफुल्लित कर देता है। इसलिए यह सबके प्यारे, दुलारे और न्यारे होते हैं।
इनका बचपन हर निराशाओं, कुंठाओं, अंतर्द्वंदों और उदासी से रिक्त होता है। यह हर एक दु:ख, शोक और गम से दूर होते हैं। इनके पास तो केवल प्रेम, स्नेह और खुशियां ही होती हैं, जिसे वह अपने से मिलने वालों को नि:शुल्क, नि:स्वार्थ और नि:संकोच देकर उसे हँसी-खुशी से मालामाल कर देते हैं। इनका प्रेम संपादन जोड़-तोड़ एवं लाभ-हानि की गिनती के आधार पर नहीं मिलता बल्कि इनका प्रेम- प्यार निर्विकार, निष्कलुष एवं निर्मल तरीके से सबको प्राप्त होता है। वह राग-द्वेष ईर्ष्या-घृणा, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छूत-अछूत की रूढ़, योजनागत एवं सामूहिक भावना से मुक्त होते हैं। इनकी यही समानता, निरपेक्षता एवं समव्यवहार, परिपक्व, अनुभवी एवं समझदार व्यक्ति के कृत्रिम व्यवहार से अलग करता है। इसलिए वह सर्वाधिक सुंदर, सर्वस्व स्वीकार्य एवं सब के चहेते होते हैं।
ऐसा बचपन हर हाल में बरकरार रखने की दरकार है। इनका बचपन कुम्हलाए नहीं, मुरझाए नहीं, इन्हें कोई कुचले नहीं, मसले नहीं, इसके लिए पूरी मानव जाति को संगठित रूप से सजग व सक्रिय रहना होगा। कोई तत्व (परिवार या समाज) इन्हें दूषित नहीं बनाए, विषाक्त नहीं बनाए अथवा विघटनकारी नहीं बनाए, यह सबसे जरूरी है। बच्चों को जाति, धर्म, भाषा, नस्ल, क्षेत्र आदि के आधार पर द्वेष, घृणा आदि की भावना से सर्वथा दूर रखना ही देश एवं समाज के हित में है। देश एवं समाज में कई ऐसी संस्थाएं हैं, कुछ संगठन है, कुछ परिवार हैं जो बच्चों में जाति, धर्म, भाषा, नस्ल आदि के भेदभाव, कटुता एवं घृणा के बीज बो रहे हैं, यह बहुत खतरनाक स्थिति है। यह न तो मानव जाति के लिए लाभदायक है और न ही देश एवं समाज के लिए हितकर है।
विद्यालय हो या परिवार हमें हर जगह सावधान रहने की जरूरत है। बच्चों को समानता, सद्भाव और समानुभूति का व्यवहार अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बच्चों को बैठाने, संबोधन, तथ्यों को स्पष्ट करने में उदाहरणों का इस्तेमाल, ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन, सामाजिक रीति-रिवाजों, पर्व-त्योहार, वर्ण, धर्म, भाषा, नस्ल आदि पर समझाने एवं वर्णन करने के समय अधिक सावधान रहने की जरूरत है। सभी धर्मों, वर्णों, भाषा आदि के प्रति बच्चों में समानता, सहिष्णुता समादर की दृष्टि विकसित करना हमारे लिए चुनौती है। हम बच्चों को खतरनाक रास्ते का पथिक नहीं बनाएं। जिस प्रकार बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं और ईर्ष्या, घृणा एवं ओछी मानसिकता से लिखे पोस्ट उनकी नजरों से गुजर रहे हैं, वैसे में हमारा दायित्व बढ़ जाता है कि बच्चों को विवेकशील बनाएं, सही एवं गलत को स्पष्ट कर उन्हें दिग्भ्रमित होने से बचाएं। बाल दिवस पर ऐसे विचारों को क्रियान्वित करने का निर्णय लेना सार्थक पहल होगा।
बच्चों के बचपन को समझना बहुत जरूरी है। यह तभी संभव है जब हम बच्चों की भावना का आदर करें। उसकी पसंद-नापसंद को स्वीकार करें। उनके लिए जरूरी साधनों को सुलभ कराना हमारी जिम्मेवारी बनती है। कई ऐसे बच्चे हैं जो भूख, गरीबी, शोषण, उपेक्षा एवं दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। अधखुले कपड़े व बिना बटन के पहनावे में लिपटे बच्चे, बीमार एवं कुपोषित बच्चे, दुबले-पतले एवं उभरी हड्डियां वाले बच्चे, पौष्टिक आहार के लिए तरसते बच्चे, विद्यालय छोड़कर घर में अपने छोटे बच्चों को संभालते बच्चे, होटलों, ढाबा एवं दुकानों पर बाल श्रमिक बच्चे, मजदूर माँ-बाप को उनके कामों में सहायता करते बच्चे ----ऐसे दर्जनों बच्चे हैं जो हमारी नजरों के सामने से गुजरते हैं परंतु हम उनके प्रति बेपरवाह, अनजान एवं उदासीन होते हैं। हमें ऐसी मनःस्थिति से उबरने की जरूरत है। अब बच्चों की समस्याओं पर शिद्दत से ध्यान केंद्रित करने की अनिवार्यता है। इन्हें अपने सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय पृष्ठभूमि के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। इनका अभिशप्त जीवन समाज एवं देश के लिए कलंक है। बच्चों के स्वस्थ, शिक्षित एवं सुरक्षित जीवन के लिए सरकार ने राष्ट्रीय आयोग, कई संस्थाओं एवं समितियों का गठन किया है। बाल सुरक्षा एवं संरक्षण पर कई अच्छे कानून बनाए गए हैं। राष्ट्रीय आयोग, संस्थाएं एवं समितियां काम भी कर रहीं हैं। बाल अधिकारों से जुड़े कानूनों का इस्तेमाल भी हो रहा है, परंतु ऐसे सैकड़ों बच्चे हैं, जिन तक सरकारी नीतियां नहीं पहुंच पाई है। ऐसे बच्चों के लिए कई सामाजिक संस्थाएं भी कार्य कर रही हैं जो सराहनीय हैं। परंतु अब समाज के हर व्यक्ति का सामाजिक दायित्व बनता है कि ऐसे बच्चे, जिनका बचपन भूख, गरीबी, एवं शोषण में खो रहा है, उनके लिए कुछ सकारात्मक पहल करें। उन्हें अपने सामर्थ्य के अनुरूप मदद करें। शिक्षा, पोषण एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से उनकी सहायता करना हमारा सामाजिक और नैतिक जिम्मेवारी है। हमें बाल अधिकारों की जानकारी होनी चाहिए। बाल अधिकारों के बारे में जानकर हम उनकी सहायता बेहतर तरीके से कर सकते हैं। जीने का अधिकार, पोषण का अधिकार, अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, बाल-श्रम के विरुद्ध अधिकार, बाल-शोषण के विरुद्ध अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, सहभागिता का अधिकार आदि ऐसे कई बाल अधिकार हैं जिन्हें जानना एवं समझना आवश्यक है। बच्चों की उपेक्षा, मार-पीट करना, डांटना-फटकारना जैसी शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना गैरकानूनी व्यवहार है। ऐसे क्रूर एवं उदंड व्यवहार बच्चों के लिए किसी भी दशा में अनुकूल नहीं हैं। उपेक्षा, उत्पीड़न, डांट, मार-पीट से उत्पन्न भय, उनके मानसिक पटल पर गहरा एवं प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए हमें बच्चों के प्रति ऐसा व्यवहार करने से बचना चाहिए। उनके साथ हमेशा प्रेम, प्यार, दुलार, स्नेह, विश्वास, आदर एवं समानता का व्यवहार करना चाहिए यह उनके विकास के लिए अनिवार्य है। मार-पीट एवं डांट-फटकार से बच्चे खिन्न, जिद्दी, उदंड, क्रूर, झगड़ालू आदि हो जाते हैं। इस प्रकार बच्चों के समझने का दिवस है - 'बाल दिवस' ।
चन्द्रशेखर प्रसाद साहु
प्रधानाध्यापक
कन्या मध्य विद्यालय कुटुंबा
प्रखंड- कुटुंबा, जिला- औरंगाबाद
बिहार
नोट:- आलेख के विचार लेखक के स्वयं के हैं।
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