बैगलेस शिक्षण की अवधारणा - मो.जाहिद हुसैन - Teachers of Bihar

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Monday 8 August 2022

बैगलेस शिक्षण की अवधारणा - मो.जाहिद हुसैन

 सुनने में बड़ा अटपटा-सा लगता है, लेकिन यह संभव भी है और उचित भी तथा व्यवहारिक भी है, लेकिन प्राथमिक एवं प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चों के लिए सही है, न कि माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों के लिए। बैगलेस शिक्षण का मतलब है: बिना पुस्तक के शिक्षण-अधिगम की एक स्वछंद प्रक्रिया। यहां बैगलेस हों, लेकिन बच्चे एवं शिक्षक स्पीचलेस न हों,नहीं तो फलदायक अंतः क्रियात्मक प्रक्रिया संभव नहीं हो सकेगी। बैगलेस शिक्षण की अवधारणा (The Concepts of Bagless Teaching) पूरी तरह सफल हो सकती है,यदि विद्यालय को नवाचारी तकनीक और गतिविधि आधारित शिक्षण से मानसिक एवं शारीरिक गतिविधियों का केंद्र बना दिया जाए,जिसमें बिना भय के सीखने-सिखाने (Learning without fear) का माहौल बने। उन पुरातन ढर्रों को छोड़ना होगा कि बिन भय प्रीत कहां (Spare the rod spoil the child); सीखने-सिखाने की प्रक्रिया बिल्कुल आनंद के वातावरण में हो, तभी बच्चे आनंद की घाटी में जाकर कल्पना की दुनिया में जा पाएंगे और फिर कल्पना को हकीकत में बदलने की कोशिश करेंगे। सपने खूब देखना चाहिए और उसे साकार करने की सोचना चाहिए। शीर्ष वैज्ञानिक तथा पूर्व राष्ट्रपति महर्षि एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा है,"सपने वो नहीं हैं जो हम नींद में देखते हैं, सपने वो हैं जो हमको नींद नहीं आने देते।" 'टीचर' (Teacher) की लेखिका सिलविया ईस्टन वार्नर लिखते हैं," बच्चों को सीखने का मतलब खेलना और स्वप्न बुनना है--।"

    यशपाल कमिटी की रिपोर्ट' शिक्षा बिना बोझ के' (Learning without Burden-1993) के अनुसार बच्चों पर दो तरह के बोझ होते हैं:- शारीरिक एवं मानसिक। कॉन्वेंट कल्चर ने तो बच्चों को जैसे पंडित राहुल सांकृत्यायन के तिब्बती यातायात का साधन बना दिया है, जिनके पीठ पर 5 किलो से 7 किलो तक का वजन होता है। चलने में जरा-सा संतुलन बिगड़ा कि नहीं बच्चे पीठ के बल गिरते हैं। यह तो गुरुत्वाकर्षण का नियम है,भाई। बच्चे बैग लादे सीधे खड़े नहीं हो सकते। उन्हें पहाड़ चढ़ने जैसा सिर झुका कर चलना पड़ता है। वे सीना तान कर इस तरह कैसे चल सकते? यदि वे ऐसा करेंगे तो गुरुत्व केंद्र उनके दोनों पैरों के बीच में नहीं होगा और उलट जाएंगे धड़ऽ धड़ाम। यह बच्चों पर जुल्म नहीं है तो और क्या है? उनके नरम व नाजुक फूल जैसे बदन दर हकीकत ये सब सहन करने लायक नहीं होते। वे पशोपेश में रहते हैं। उनकी पीठ अकड़-सी जाती है। इससे बच्चों को भारी नुकसान होता है। जुल्म की ये हद कि उन्हें रट्टू मल तोता बना दिया जाता है। गृह कार्य की भी भरमार। डायरी लिखी जाती है: इन चार प्रश्नों के उत्तर गेट वाई हर्ट करके आना और उन चार प्रश्नों के उत्तर लिखकर लाना। एक बात देखने में खूब आता है कि सरकारी विद्यालयों में तो निर्धारित पाठ्यपुस्तकें हैं, लेकिन निजी विद्यालयों में पाठ्यपुस्तकों के चयन में कुछ ज्यादा ही लचीलापन है। निजी विद्यालयों में पुस्तकें डॉक्टर साहब के नुस्खे की दवाई के समान हो गई हैं, जो और कहीं नहीं मिलती; वही निजी विद्यालय के व्यवसायिक काउंटर पर  मिलते हैं,जहां बच्चे पढ़ते हैं। कोट, टाई, बेल्ट, स्कर्ट, शर्ट,पेंट तथा बैज की दुकान भी विद्यालय ही होती है। पठन-पाठन सामग्री से लेकर जूते चमकाने की सामग्री भी उपलब्ध करवाए जाते हैं। इससे अभिभावकों के दिलों दिमाग पर भी बल पड़ता है,लेकिन वे तो इतने में ही इतराते हैं; चलो,बच्चे टाई-कोर्ट में स्कूल जाते हैं और आकर "जॉनी जॉनी एस पापा, शुगर ईटिंग नो पापा" सुनाते हैं, तो दिल खुश हो जाता है; चाहे उनके पेट में बुनियादी अवधारणा न हो। मशहूर कहावत है कि डॉक्टर साहब को एम आर लोगों ने बिगाड़ा है और निजी विद्यालय के निदेशकों को प्रकाशकों ने। प्रकाशकों के ऑफर पर उल जलूल किताबें बच्चों के स्तर के प्रतिकूल चयनित कर ली जाती हैं,जो बच्चों के दिमाग के ऊपर से बाउंस करती हैं और उनके शब्द अपरिचित,अव्यवहारिक एवं अनफैमिलियर होते हैं। बच्चे उसकी शब्दावली के मकड़जाल में फंस जाते हैं, लेकिन पढ़ाई तो लकीर के फकीर (Stereotype) चलती रहती है। कभी-कभी तो दूसरी कक्षा की पुस्तक के जी में भी चला दी जाती है, ठीक उसी तरह जिस तरह आधुनिक चिकित्सक हाई एंटीबायोटिक मेडिसिन लिखते रहते हैं। निदेशक महोदय के जी (KG) का मतलब किलोग्राम तो नहीं समझ लिए? भाई, फ्रोबेल साहब ने 'किंडर गार्टन' का मतलब "बच्चों की फुलवारी" बताया है। भला, ऐसे में स्कूल बच्चों की फुलवारी कैसे बन पाएगा और उनके चेहरे पर मुस्कान कैसे आ पाएगा? क्या उनके चेहरों की अनोखी मुस्कराहट छीन लेना जुर्म नहीं है? क्या यह शिक्षा के अधिकार-2009 का वायलेशन नहीं है? प्रश्न तो उठता है कि 7 किलो के वटखरे इतना पुस्तकों का वजन बच्चे के पीठ पर लादा जाना कहां तक न्याय संगत है? यहीं जरूरत है:- बैगलेस शिक्षण की, जिसे विद्यालयों में कम-से-कम बैगलेस सैटरडे या बैगलेस थर्सडे के रूप में अपनाया जा सकता है। फिर तो शिक्षकों की कार्यकुशलता एवं दक्षता पर निर्भर करेगा कि वे अन्य दिनों में भी बच्चों को बैगलेस होते हुए भी कारगर आनंदायी शिक्षण कैसे करायेंगे। शिक्षकों के पास ऐसी तकनीक होनी चाहिए कि वे पुस्तक से इतर कुछ ऐसा पढ़ा-सिखा सकें कि जो उसके जीवन में उपयोगी हो और वह ज्ञान पुस्तकों से कहीं ऊपर का हो। इसके लिए सुव्यवस्थित प्रशिक्षण की आवश्यकता भी पड़ेगी। देखिए, पुस्तक शिक्षण-अधिगम के लिए अटल सत्य नहीं है। हमारी पाठ्यचर्या बतलाती है कि खिड़की के बाहर की दुनिया में झांकना जरूरी है। सह-संज्ञानात्मक गतिविधियां दमदार होंगे, तो संज्ञानात्मक क्षेत्रों में बच्चे अवश्य निपुण होंगे। शिक्षण-अधिगम शैली को क्रियात्मक बनाने की आवश्यकता है, न कि केवल सैद्धांतिक। एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटी (Extra-curricular Activity) बच्चों को एक्सपेरिमेंटल और प्रैक्टिकल बनाती है तथा उनमें स्किल पैदा करती है। ज्ञान शैक्षिक एवं शैक्षणिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पहली सीढ़ी है और कौशल अंतिम।  बीच में आता है भाव: आचार एवं विचार; जिससे लोगों में नैतिकता आती है और फिर जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति होती है।



    विद्यालय से बच्चों के ड्रॉप-आउट का एक महत्वपूर्ण कारण उनके भारी बस्ते के बोझ हैं जो उनपर शारीरिक बोझ के साथ गहरा मानोवैज्ञानिक कुप्रभाव भी डालता है। नई शिक्षा नीति-2020 के द्वारा बैगलेस डे (Bagless Day) के अंतर्गत  पाठ्यचर्या के विषयवस्तु को कम करने की सिफारिश लाभप्रद साबित होगी। बच्चों के कंधों पर से बस्ते का बोझ कम करने हेतु शैक्षिक विमर्श एवं संवाद निरंतर चलती रहनी चाहिए। बिहार में सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या ढाई करोड़ से भी ज्यादा है। टीचर्स ऑफ़ बिहार एक बैगलेस सैटरडे सर्वे (Bagless Saturday Survey) कर रही है जो एक सराहनीय कदम है। क्यों न बच्चों को घर से विद्यालय में किताब-काँपी लाने से छुट्ट दी जाय और सीखने-सिखाने का अंदाज़ रोचक एवं नवाचारी गतिविधियों से भरपूर इस प्रकार किया जाय कि बच्चें स्वतः ही विद्यालय के प्रति आकर्षित हों और शैक्षिक एवं शैक्षणिक उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें। प्रत्येक शनिवार को ऐसा करने से आगामी सप्ताह की पढ़ाई का स्वागत बच्चे स्वयं अति उत्साह से करेंगे और उनका उबाऊपन दूर करेगा तथा पढ़ाई में मन लगाएंगे। 

        

   


               - मो.जाहिद हुसैन 

                     प्रधानाध्यापक       
उत्क्रमित मध्य विद्यालय मलहविगहा चंडी,नालंदा

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