"चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
उठ गये कोटि दृग उसी ओर।"
'सोहनलाल द्विवेदी'
परिधान एक साधारण- सी लंगोटी, तपस्वी का वेश लेकिन विचार उच्च कोटि का, साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल देने वाले तथा कथनी एवं करनी, विचार और आचार दोनों में अभेद रखने वाले महान कर्मयोगी, विभूति एवं तपी कोई और नहीं, हमारे ही देश के स्वप्नद्रष्टा, युग- पुरूष, महात्मा गांँधी जिनकी जयन्ती 2 अक्टूबर को सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन इस युग- मानव का हमारे देश की धवलमयी वसुंधरा पर आविर्भाव हुआ था। हम प्रतिवर्ष उनकी जयंती मनाकर उनके गुणों की बखान तथा देश के प्रति उनके अप्रतिम व अविस्मरणीय योगदानों की चर्चा करते हैं। सचमुच वे सत्य एवं अहिंसा के पुजारी व त्याग एवं सहनशीलता की साक्षात मूर्ति थे। पीड़ितों एवं दलितों के उद्धारक थे।
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय एक बार लाहौर से साबरमती आश्रम गये। उन्हें महात्मा जी से कुछ परामर्श लेना था। बातचीत करते-करते भोजन का समय हो गया। गाँधी जी और लाला जी साथ - साथ भोजन करने बैठे। लालाजी कुछ जल्दी भोजन कर चुके। महात्मा जी ने कहा, " आप जाइए और आराम कीजिए। मुझे कुछ देर लगेगी।" थोड़ी देर बाद लाला जी ने देखा कि महात्मा जी जूठी थालियाँ धो रहे थे। इतने में लालाजी लपक कर आए और बोले- " बापू आपने यह क्या किया? जूठी थालियाँ क्यों धोने लगे?" गाँधी जी ने उत्तर दिया, आश्रम का नियम है अपना काम स्वयं करना चाहिए। आप आश्रम के अतिथि हैं, इसलिए आपकी थाली मैं धो रहा हूँ। लालाजी ने उसी दिन से अपना काम स्वयं करने का संकल्प कर लिया। गाँधी जी ने अपने व्यवहार विचार से उनके जीवन को ही बदल दिया। वाकई इस प्रसंग से हमें प्रेरणा मिलती है कि हमें अपने यहाँ आए अतिथियों की सेवा करनी चाहिए तथा अपना कार्य स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। यानि सेवा भाव सच्चे दिल से होना चाहिए। चाहे माता-पिता की सेवा हो, गुरुजनों की हो या अपने राष्ट्र की। खासकर हमारे देश की युवा पीढ़ियों, विद्यालयी छात्रों को भी गाँधी जी के जीवन से सीख लेनी चाहिए तथा तनाव मुक्त होकर हर तरह की परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। सहयोग एवं सहानुभूति की भावना रखनी चाहिए। लगन व परिश्रम से पढ़ाई करनी चाहिए।
इस प्रकार गाँधी जी महान पुरुषों में से एक थे। ये महात्मा बुद्ध की दया और अहिंसा, स्वामी दयानंद के सत्य, तथा अछूतोद्धार के नियमों पर स्वयं चले तथा औरों को भी चलना सिखाया। इन्होंने अपना सम्पूर्ण सुख स्वदेश के लिए बलिदान कर दिया था। सादा जीवन उच्च विचार इनके जीवन का मूल मंत्र था। सेवा- भाव इनमें कूट कर भरा हुआ था। वे देश ही नहीं सारी दुनियाँ में सत्य और अहिंसा की प्रधानता के पक्षधर थे। सच में, वे महात्मा थे। 'महान आत्मा येन स:।' बिल्कुल सही चरितार्थ होता है। इन्हीं के चलते इन्हें यादगार व महान फल की प्राप्ति हुई। इस अप्रतिम व अलौकिक महान कार्य हेतु देश इनका हमेशा चिर ऋणी रहेगा। दुर्भाग्यवश आज दुनियाँ दूसरी ओर झुकी हुई हैं। परन्तु, हम उनकी राह पर चलकर ही अपने समाज, राष्ट्र तथा संसार को सुन्दर साँचे में गढ़ सकते हैं। इस संबंध में मेरा विचार है-
नई राह दिखाने, धरा भारत की आए।
निज हित का त्याग से, संसार में छाए।।
कर देश को आजाद, खिला दिए चमन।
जयंती पर उन्हें करें, हम शत् शत् नमन।।
देव कांत मिश्र 'शिक्षक'
मध्य विद्यालय धवलपुरा, सुलतानगंज, भागलपुर
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