बच्चा जन्म लेने के बाद से ही वातावरण में नई-नई बातों को जानने का प्रयास करता है। किसी भी नये चीज को बच्चों को बताते समय उनके मानस पटल पर दबाव पड़ता है,क्योंकि किसी भी नये चीज को सीखने के समय वह दबाव महसूस करता है।
प्रत्येक माता-पिता की यह हार्दिक इच्छा होती है कि मेरा बच्चा बहुत सीखता,पढ़ता,इसके लिये वह अपने बच्चे को कम उम्र से ही सीखाना चाहता है ।यदि उनके बच्चे सीखना नहीं चाहते हैं तो वैसी स्थिति में उनके माता-पिता उस पर दबाव डालना शुरू कर देते हैं,जिसके चलते उसमें चिड़चिड़ापन तथा उनके साथ बराबरी का बहस करने की आदत सी हो जाती है ,जिसे बच्चे अपनी पढ़ाई का बोझ समझने लगते हैं।
शिक्षा को बोझ के रूप में समझने के मेरे विचार से निम्नलिखित कारण है,जो इस प्रकार हैं-
कम उम्र के बच्चों को पढ़ने की बाध्यता
प्रायः ऐसा देखा जाता है कि माता-पिता अपने बच्चों को कम उम्र में ही सीखने का दबाव बनाते हैं,जिससे कि छोटे-छोटे उम्र के बच्चों के मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
कम उम्र के बच्चों का विद्यालय में नामांकन
आज के समय में माता-पिता अपने आप को बच्चों की परेशानी से बचने के लिये छः वर्ष की उम्र के पहले ही किड्स प्ले विद्यालय में नामांकन कराकर बच्चों के मानसिक विकास में बाधक बन जाते हैं। इसका मुख्य कारण है कि इस उम्र में बच्चों को न तो कपड़ा पहनने आता है और न ही शौच जाने तथा शौच से आने के बाद हाथ धोने के सही तरीके का पता रहता है।इसके बाबजूद भी यदि नौनिहाल बच्चे कहीं गंदगी फैला देते हैं तो वहाँ उपस्थित शिक्षक-शिक्षिका का उसे कोप भाजन बनना पड़ता है।
चूँकि बच्चों को कम उम्र में सीखने के लिये किसी भी तरह का मानसिक तथा शारीरिक दबाव नहीं दिया जाना चाहिए,क्योंकि अगर बच्चों को कम उम्र में सीखने या लिखने का दबाव दिया जाये तो बच्चों को वह बोझ रूपी शिक्षा मानी जायेगी।साथ ही बच्चों को जब कम उम्र में विद्यालय में सीखने के लिये भेजा जाता है ,उस समय वह अपना पैंट भी पहनना नहीं जानता है तथा विद्यालय में वह अगर वह शौच करने तथा मल मूत्र करने में गलती करता है तो उसको शिक्षक द्वारा दंडित किया जाता है, जिसका बच्चे की मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है,जो कि भविष्य में बच्चों के मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है।इसलिये अविभावकों को चाहिये कि सरकारी विद्यालयों में नामांकन की निर्धारित उम्र के बाद ही बच्चों को विद्यालय में भेजने का प्रयास करना चाहिए।
गतिविधि पर आधारित शिक्षा-
विद्यालय को पूरी तरह से गतिविधि पर आधारित होनी चाहिए तथा उसको विद्यालय में प्रोजेक्टर के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। साथ ही बच्चों को सीखाते समय बार-बार समझाने का प्रयास करना चाहिए तथा जब तक वह न सीखे तब तक समझाने का प्रयास करना चाहिए।इसके अलावे बच्चों को विद्यालय में ही सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिये ,साथ ही आकलन तथा मूल्याकंन किया जाना चाहिये ।
शिक्षा बिना बोझ के लिये शिक्षकों में विषय वस्तु चा विस्तृत तथा स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए। साथ ही बच्चों को उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने की बातों को नहीं बताया जाना चाहिये।इसके लिये उनको बार-बार सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिये।जब तक कि वह पूरी तरह से सीख नहीं पाता है,तब तक लगातार प्रयास किया जाना चाहिये।
पुस्तकों के बोझ से मुक्त करना
शिक्षा बिना बोझ के अंतर्गत शिक्षाविदों के द्वारा बार- बार यह प्रयास किया जा रहा है बच्चों को पुस्तकों के बोझ से मुक्ति होनी चाहिए,क्योंकि जब बच्चे 10 किलोग्राम भार के 'बसता' का बोझ लेकर अपने पीठ पर चलता है तो ,लगभग वह मानसिक,शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से अपने को थका हुआ महसूस करता है तथा अपनी पढ़ाई तथा आज की शिक्षा पर अफसोस करता है। शिक्षा व्यवस्था इस तरह की होनी चाहिए कि बच्चों के लिये विद्यालय में तथा घर में पुस्तक की व्यवस्था की जानी चाहिये तथा विद्यार्थी विद्यालय मात्र कापी लेकर जाये।चूँकि आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में लगातार शोध कार्य किये जा रहे हैं,जिसके चलते शिक्षा में बोझ को समाप्त किये जाने की बात पर जोर दिया जा रहा है,साथ ही यह भी युक्तिसंगत नहीं लगती है कि सप्ताह में एक दिन बच्चों से पुस्तक का बोझ कम कर दिये जाने से शिक्षा बोझ के बिना हल्की हो जायेगी,क्योंकि उसे मनोवैज्ञानिक रूप से भी शिक्षा भारविहीन महसूस होना चाहिये।
इन सभी तर्क के बाद कहा जा सकता है कि छोटे बच्चों को पुस्तक की आवश्यकता नहीं है।साथ ही बच्चों को छोटा में दबाव के साथ पढ़ने न कहा जाय,यदि वह खेलना पसंद करता है तो खेलने के लिये छोड़ देना चाहिए जब तक खेल कर संतुष्टि न हो जाय। बच्चों को बोझ मुक्त छोड़ने के लिये स्वच्छंदता का समय देना चाहिए।विद्यालय में बच्चों को गृह कार्य तथा पढ़ने का दबाव देने से बच्चों की मनोवृत्ति गुलामी की ओर बढ़ती है। बच्चों को कम उम्र में उसकी मर्जी से पढ़ने देना चाहिए तथा उसको कहानी सुना कर कुछ सीखाने का प्रयास करना चाहिए।
जहाँ तक स्मार्ट क्लास की बात है वह भी शिक्षा को बोझ मुक्त कर पाने में असमर्थ है क्योंकि मशीन के द्वारा की जाने वाली पढ़ाई बच्चों में व्यवहार पैदा नहीं कर सकता है,इसके लिये शिक्षक की आवश्यकता होती है जिसके बिना शिक्षा प्राप्त करना असंभव है। शिक्षा विभाग द्वारा तनाव मुक्त शिक्षा के लिये प्रत्येक विषय में प्रायोगिक अंक दे दिया जाना बोझ मुक्त शिक्षा नहीं हो सकती है ,बल्कि यह विद्यार्थी को ज्ञान की प्राप्ति कम ,केवल परीक्षा केउत्तीर्णता की बात ही करता है।
अफसोस की बात है कि (1992-93) में छोटे-छोटे बच्चों से"शिक्षा बिना बोझ"का अध्ययन करने केलिये गठित की गई यशपाल समिति में शिक्षा को विकेन्द्रीकृत करने की बात कही गई थी। इसके बाबजूद भी आज तक बच्चों से पुस्तकों का बोझ कम नहीं हो पाया,क्योंकि शिक्षा को लगातार व्यापार से जोड़ने का प्रयास किया गया तथा विशेषकर निजी विद्यालयों में पुस्तकों का बोझ बच्चों पर भारी पड़ता रहा। आने वाले समय में जब लगातार बच्चों से पुस्तकों के बोझ को कम कराने का प्रयास किया जा रहा है, सफलता अवश्य मिलेगी की आशा के साथ आपका ही
श्री विमल कुमार' विनोद'प्रभारी
प्रधानाध्यापक,उच्चतर माध्यमिक
विद्यालय पंजवारा बांका
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