धर्म और हमारी सोच - श्री विमल कुमार "विनोद" - Teachers of Bihar

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Friday, 2 December 2022

धर्म और हमारी सोच - श्री विमल कुमार "विनोद"

धर्म का साधारण अर्थ होता है, "धारण करना"अर्थात हम अपने जीवन में अपने माता-पिता, परिवार,समाज तथा पर्यावरण से जो कुछ भी सीखते हैं,उसे हम धारण करते हैं,उसे हम साधारण अर्थ में धर्म कहते हैं।

विशेष अर्थ में यदि कहा जाय तो  हमारे जीवन की शैली कुछ लिखित कानून तथा अभिसमयों पर आधारित है,जिसके आधार पर हम अपना साधारण जीवन जीने का प्रयास करते हैं।

मेरा यह आलेख भारत वर्ष के लोगों के जीवन में नीहित विभिन्न धर्मों तथा उनके बारे में उनकी सोंच पर आधारित है।

भारत एक"धर्मनिरपेक्ष"राष्ट्र है, जिसका अर्थ है कि"राष्ट्र का अपना कोई धर्म नहीं होगा और न ही राष्ट्र किसी भी धर्म के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव करेगा"।भारतीय संविधान के भाग-03 में वर्णित मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 25 से 28 तक में धार्मिक सवतंत्रता के अधिकारों का वर्णन किया गया है जिसमें कहा गया है कि देश का कोई भी नागरिक किसी भी धर्म को अपना सकता है,उसके अनुसार आचरण कर सकता है, उसके विकास के लिये प्रयास कर सकता है ।लेकिन किसी भी शिक्षण संस्थान में धर्म से संबंधित शिक्षा नहीं दी जा सकती है।इसके अलावे सिखों को कृपाण रखने की आजादी है।

जहाँ तक धर्म की बात है प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अपना कोई- न-कोई धर्म होता ही है और किसी-न-किसी धर्म को अपनाना ही चाहिये,लेकिन मुझे लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिन्दगी में फुर्सत के पल में अपने अंगीकार धर्मस्थल में जाकर एवं अपने पूज्य देव से अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये कामना करता है,जिससे कि शांति की प्राप्ति हो।लेकिन कभी-कभी लोग अंधविश्वास के चक्कर में पड़कर तबाही का शिकार हो जाते है,जब किसी वृक्ष के पास बिछाये गये लाल कपड़े के पास दूर से ही रूपया फेंक कर उस आसपास के कुछ लोगों को भीखमंगे की तरह बेरोजगार बना कर उसे भीख माँग कर परजीवी बनाकर ही दम लेते हैं।

मुझे लगता है कि विश्व में जितने भी धर्म हैं सभी का लक्ष्य जन कल्याण करना है,लेकिन कभी-कभी लोग धर्म की आड़ में गलत कार्य को कर बैठते हैं जो कि समाज तथा राष्ट्र के लिये घातक होता है। एक सार्वभौमिक सत्य है कि, "कण-कण में है भगवान"जो कि कटु सत्य है,जिसके लिये विश्वास करने की जरूरत है।मैं न तो किसी धर्म,न किसी की सोच का विरोधी हूँ,बल्कि जो मेरे जीवन का वास्तविक धर्म है,जिस कार्य को मुझे करना है,उसे करना चाहिये।

विश्वास हमेशा फलदायी होता है, इसीलिए हम साधारण पत्थर के शिवलिंग पर भी जब श्रद्धा और समर्पण पूर्वक जल अर्पित करते हैं तो मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।जैसा कि प्राचीन समय से ही लोग वृक्ष,नदी,पहाड़,पर्वत,पशु पक्षी आदि में देवी-देवता का रूप देखते हैं,जो कि शत-प्रतिशत सत्य भी हैं क्योंकि यही हमारे लिये जीवन रक्षक भी है जिसकी रक्षा की जानी चाहिये,क्योंकि जब ये प्राकृतिक चीजें नष्ट हो जायेंगी तो फिर सृष्टि का भी नाश हो जायेगा।जैसा कि वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि हमारे जैसे लोग जिसे  प्राकृतिक देवी देवताओं,नदी,पहाड़ों,वृक्षों की रक्षा करनी चाहिये जो कि आपका सबसे बड़ा धर्म तथा पूजा है जहाँ पर हम नहा-धोकर कर पवित्र महसूस करते हैं,उसी को तबाह करना अपना धर्म समझ लिये हैं।प्रतिदिन सुबह नहा धोकर ईश्वर को अगरबत्ती दिखाकर अपनेअधिक-से-अधिक फायदे के लिये दूसरे का तथा अपने समाज एवं देश का अहित करना मुझे नहीं लगता है,कि उस अगरबत्ती को जला कर पूजा करने का कोई उद्देश्य ही नहीं रह जाता है।

अंत में मेरी जो सोच है कि हमें अपने जीवन में मानव धर्म का पालन करते हुये,"सर्वे भवंतु सुखिनःसर्वे संतु निरामया"की बातों को सोचकर अपने जीवन के प्रत्येक कार्य को विश्व के लोगों के विकास तथा सुख सुविधा के नाम समर्पित करना चाहिये।जीवन में"मैं"नामक अहंकार को त्याग करने का प्रयास करना चाहिये।सिर्फ मंदिर,मस्जिद, गिरजाघर या अन्य पवित्र स्थलों में जाकर मत्था टेकने से कुछ भी मिलने वाला नहीं है,यह तभी संभव हो सकता है जब आप उत्कृष्ट तथा सकारात्मक सोच को विकसित कर सकते हैं।इसलिये हमलोगों को जीवन में सभी धर्मों के बीच सामंजस्य बनाये रखते हुये मानव कल्याण की बात को सोचनी चाहिये।


आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"

प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा, बांका(बिहार)

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