डॉ. राजेन्द्र प्रसाद: प्रखर, सरल व निष्कपट व्यक्तित्व के धनी
रचनाकार: देव कांत मिश्र 'दिव्य'
"""""'''""""""""''""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
हमारा देश भारत प्रखर व प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी महापुरुषों से भरा-पड़ा है जिन्होंने अपनी सरलता, सादगी और सच्चे भाव से स्वदेश का गौरव बढ़ाया है। इन्हीं में से डा. राजेन्द्र प्रसाद का नाम आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। वे भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। कहा गया है - " होनहार बिरवान के होत चिकने पात।" सच में, पनपने वाले पौधे के पात जिस तरह प्रारंभ से ही दिखाई पड़ने लगते हैं ठीक उसी तरह महापुरुषों में महानता के लक्षण शुरू से ही दृष्टिगोचर होने लगते हैं। यों तो यह बात सबों के साथ नहीं उतरती, पर राजेन्द्र प्रसाद के संबंध में यह बात बिल्कुल ठीक उतरी।
जीवन परिचय: इनका जन्म ३ दिसम्बर,१८८४ को सारण जिले के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय तथा माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। इनके पिता फारसी व संस्कृत के विद्वान थे और माता धर्मपरायण महिला थी। छात्र- जीवन के एक- एक सोपान पर वे पाँव बढ़ाते गए और उन्हें असाधारण सफलता मिलती गई। १२-१३ वर्ष की उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ। विवाहोपरांत वे अध्ययन को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ते गए। प्रवेशिका परीक्षा में तो वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आए। उस समय विश्वविद्यालय का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। बिहार, बंगाल, उड़ीसा आदि सभी क्षेत्रों का यही एक विश्वविद्यालय था। राजेन्द्र प्रसाद ही प्रथम और अंतिम बिहारी छात्र थे, जिन्हें इतने बड़े विश्वविद्यालय में प्रथम आने का गौरव प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं परीक्षक ने उनकी उत्तर- पुस्तिका में लिख दिया -' परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक योग्य है।'
वे हमेशा कार्य के प्रति जागरूक तथा क्रियाशील रहा करते थे। वे जानते थे कि शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र साधन पुस्तक ही नहीं, शिक्षा के कण समाज में चारों ओर बिखरे पड़े हैं। अतः वे नियमित रूप से पुस्तकों के अध्ययन के साथ- साथ जन-जीवन तथा देश के सामाजिक जीवन का भी अध्ययन करते थे। छात्र जीवन समाप्त कर वे लंगट सिंह महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हुए। पुनः वकालत पास करने पर कलकत्ता हाईकोर्ट में उन्होंने वकालत शुरू की। यदि वे चाहते तो एक अच्छे न्यायाधीश के रूप में उनकी गिनती होती। पर उन्हें तो अपने देश के लिए कुछ करना था। वे सादा जीवन और उच्च विचार के अनासक्त योगी थे। हिंदी भाषा के प्रति उन्हें बहुत अनुराग था। वे कहा करते थे - हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है। यह गुण देश की अन्य किसी भाषा में नहीं। हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने में उन्होंने सक्रिय सहयोग किया। आत्मकथा, खंडित भारत, बापू के कदमों में, गाँधीजी की देन, साहित्य और संस्कृति जैसी उनकी कृतियाँ चिरकाल तक हिंदी का श्रृंगार करती रहेंगी। वे अनेक बार इंडियन नेशनल कांग्रेस के सभापति हुए। सेवा भाव उनमें कूट- कूट कर भरी हुई थी। उनके समय में देश का समुचित विकास हुआ। जब हमारा देश भारत आजाद हुआ तब वे भारतसंघ के राष्ट्रपति चुने गए। १९६२ तक वे इस पद पर बने रहे। युवकों में देश- सेवा की भावना भरने तथा उन्हें सच्चे सत्याग्रही के रूप में तैयार करने के लिए जब पटना में 'सदाकत आश्रम' खोला गया तो उसके कर्णधार राजेन्द्र प्रसाद ही बने। सर्वोदय सिद्धांतों को अपनाने तथा भारतीय संविधान में उनकी महती भूमिका रही।या यों कहा जाए कि भारत गणराज्य को आकार देने में मुख्य वास्तुकारों में से वे एक थे।१९६२ में उन्हें 'भारत रत्न' की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया गया। देश के ईमानदार व स्पष्टवादी छवि वाले व्यक्ति को हर व्यक्ति का प्यार व सम्मान मिलता था तथा उनका व्यक्तित्व मित्रता, सादगी व विश्वास की प्रेरणा देता था। हम भारतवासी उनके दिखाए गए मार्ग पर चलें और देश को आगे बढ़ाएंँ।
देव कांत मिश्र 'दिव्य'
मध्य विद्यालय धवलपुरा,सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार
No comments:
Post a Comment