बच्चे-बच्चियों को ज्ञान माता-पिता,परिवार,समाज, शिक्षक तथा विद्यालय के द्वारा दी जाती है। बच्चा पूर्व बाल्यावस्था तक यानि छः वर्ष की उम्र के पहले तक अपनी माता तथा परिवार वालों के साथ नित नई-नई चीजें सीखने की कोशिश करता है।उसके बाद उनका पदार्पण अपने गुरु देव के संरक्षण में शिक्षा प्राप्त करने के लिए होता है,जहाँ बच्चों के माता-पिता गुरूजनों से बहुत बड़ी उम्मीद करते हैं कि वे बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर तालिम करेंगे लेकिन ज्यादातर सरकारी विद्यालयों में यह खानापूरी मात्र देखने को मिलती है।एक विद्यालय प्रधान, शिक्षाविद,चिंतक होने के नाते आज के समय में सरकारी विद्यालयों की दशा और दिशा देखकर मुझे बहुत अफसोस हो रही थी कि आखिर सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों के मन में अपने कार्य के प्रति बढ़ती उदासीनता के कारण शिक्षा को एक न एक दिन निजी वयवस्था के हाथों में दे दी जायेगी तो फिर अफसोस की क्या बात है?
लगभग हम सभी शिक्षक गण सुबह होते ही अपने बच्चों को उनके विद्यालय में पहुँचाने के लिये तैयार हो जाते हैं,उनकी माता जी बच्चों के लिये नाश्ता तैयार करने लगती है कि बच्चे विद्यालय जायेंगे नई-नई चीजों को हासिल करने के लिये।लेकिन आप जब अपने विद्यालय में जाते हैं तो आपकी मानसिकता बदली हुई सी नजर आती है।विद्यालय प्रधान या दैनिक दिनचर्या प्रभारी के कहने के बावजूद भी आप वर्ग कक्ष में जाने को उत्साही नजर नहीं आते हैं,आखिर आपकी मानसिकता को हो क्या गया है?
श्रीमान जी आप जरा सोचिये कि आखिर वैसे विद्यार्थियों का क्या होगा ।वैसे अविभावकों के बच्चों का जो कि समाज के निम्न आय वाले हैं को शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी जहाँ पर सरकारी विद्यालय में सरकार द्वारा भारी भरकम राशि खर्च की जाती है। विद्यालय को सरकारी तथा निजी में बांट दिया गया है--जिसमें निजी विद्यालय का अर्थ है वैसे विद्यालय जिसका संगठन तथा संचालन निजी हाथों में रहता है जहाँ पर वैसे शिक्षक जिनको सरकारी विद्यालयों में नौकरी नहीं मिल पाते हैं-वैसे विद्वान शिक्षकों को उन विद्यालयों में सेवा करने का सुअवसर प्राप्त होता है।
जबकि सरकारी विद्यालय में अपेक्षाकृत प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लेकर सरकारी नौकरी में आते हैं,और सरकारी विद्यालय के शिक्षक कहलाने में गर्व महसूस करते हैं,लेकिन विद्यालय जाने के बाद पठन-पाठन के प्रति उदासीनता का भाव देखने को मिलता है। दुर्भाग्य की बात है कि सत्य हमेशा कड़वी होती है और एक समालोचक के रूप में मैं अपने को रोक नहीं पाता हूँ।विद्यालय की दशा और दिशा के संबंध में मेरे कुछ विचार निम्न प्रकार के हैं-
(1)समय के पाबंदी की कमी-
सरकारी विद्यालयों में आज के समय में बहुत सारे शिक्षक ऐसे देखने को मिलती है कि जिनको समय से विद्यालय जाने में बहुत समस्या नजर आती है।साथ ही विद्यालय से घर वापसी में भी जल्दबाजी नजर आती है यानि आगमन में देरी तथा प्रस्थान में जल्दी जो कि किसी भी व्यक्ति की आने वाली पीढ़ी के लिये दुःखदायी महसूस होती है। जिस व्यक्ति में समय की पाबंदी देखने को नहीं मिलती है वह जीवन में तरक्की कर पाने में असफल हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन में अपनी कमाई से ज्यादा खर्च की उम्मीद करने वाले अधिक धन कमाने के चक्कर में पड़ जाते हैं।
(2)कुंठित मानसिकता से ग्रसित-
बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षकों को विद्यालय में जाकर गपशप करने तथा मोबाइल से खेलने में मजा आता है लेकिन जब वर्ग कक्ष में जाने की बात किया जाय तो उनकी तबीयत खराब होने लगती है,वैसे ही जैसे हाय रे मेरी किस्मत जागने से पहले सो जाती है।
(3)अपने कार्य के प्रति नीरसता-
विशेषकर सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों में अपने कार्य के प्रति नीरसता का भाव देखने को मिलता है।विधार्थी यदि बाहर खेल रहे हैं तो शिक्षक यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि उनको वर्ग कक्ष में ले जाकर कुछ सीखाने का प्रयास किया जाय।यदि आप बच्चों को बिना कुछ सीखये शाम को घर वापस हो जाते हैं तो शायद आपकी आत्मा अपने में बहुत अफसोस करती होगी कि आज का दिन मेरा बेकार हो गया।
(4) बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़-
प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों में संस्कार देने का प्रयास करते हैं।ठीक वैसा ही संस्कार आप यदि बच्चों में देने का प्रयास करें तो कितना अच्छा होगा।लेकिन शायद आप अपने ज्ञान को दूसरे को न देने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं तो फिर आप अपने शिष्यों को शिक्षा क्या देंगे?
आज जब शाम में मैं विद्यालय से निवास स्थान की ओर वापस हो रहा था तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि आखिर उन सरकारी विद्यालयों का क्या होगा जहाँ पर बच्चों का वर्ग कक्ष तथा विद्यालय परिसर से पलायन हो रहा है जहाँ इसकी चिंता विद्यालय के शिक्षकों को नहीं है। साथ ही बहुत सारे शिक्षक ऐसे भी हैं जिनमें विषयवस्तु की अवधारणा की कमी देखने को मिलती है,जिसके कारण बच्चे-बच्चियाँ या तो उनके वर्ग में रूचि लेने में उत्साही नहीं होते हैं या पठन-पाठन में रूचि नहीं लेते हैं। सबसे दुःख की बात है कि विद्यालय में बच्चों का ठहराव में कमी देखने को मिलती है,इसका मूल कारण है शिक्षकों का अपने शिष्यों के पठन-पाठन की रूचि में कमी जो कि शिक्षा व्यवस्था के बिखराव का मुख्य कारण है।
(5)विद्यालय प्रधान की उदासीनता-
वर्तमान समय में विद्यालय प्रधान की भी अपने कार्यों के प्रति उदासीनता देखने को मिलती है ।साथ ही उनमें समय की पाबंदी की कमी भी देखने को मिलती है। विद्यालय प्रधान को चाहिये कि विद्यालय में आने के बाद वहाँ की सारी गतिविधियों पर पैनी नजर रखनी चाहिए तथा विद्यालय की सारी गतिविधियों का आकलन तथा समीक्षा करनी चाहिये तथा
विद्यालय में शिक्षक अविभावक गोष्ठी करके विद्यालय के विकास तथा उसकी समस्या पर विचार- विमर्श करनी चाहिये। कुछ सरकारी विद्यालय के विद्यालय प्रधान तथा शिक्षकों ने सेवा भाव से ओतप्रोत होकर विद्यालय परिसर तथा बच्चे-बच्चियों की दशा तथा दिशा में सुधार लाने का प्रयास किया है,जबकि अधिकतर विद्यालय आज भी अपनी बेबफाई पर अफसोस कर रही है।
अंत में,मैं गुरुजनों से आशा के साथ विश्वास करता हूँ कि आने वाले समय में सरकारी विद्यालयों की दशा और दिशा दोनों में सुधार आयेगा,अन्यथा भविष्य में इनका निजीकरण होना शत-प्रतिशत सही है।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"शिक्षाविद भलसुंधिया,गोड्डा
(झारखंड)।

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