वर्तमान परिस्थित पर आधारित आलेख।
राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौते के सिद्धांत में प्राकृतिक अवस्था का चित्रण करते हुये हाॅबस नामक चिंतक ने कहा था कि"सभी मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी होते हैं।" इनके अनुसार प्रकृतिक अवस्था में लोगों का जीवन घृणित,पतित की तरह है,जो कि अपने हित के लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं।मुझे भी जीवन में लगता है कि सुबह से शाम काम ही काम, फिर भी किसे खुश करूँ इसका पता नहीं चलता है।घर में परिवार के लोगों को खुश करने का प्रयास करता हूँ लेकिन खुश नहीं कर पाता हूँ।समाज में भाई-गोतिया को खुश करना चाहता हूँ,फिर भी वे नाराज रहते हैं।वहाँ से बाहर निकलता हूँ तो अपरिचित लोगों से मिलने के बाद थोड़ी राहत सी महसूस होती है।उसके बाद धीरे-धीरे अपने विद्यालय की ओर बढ़ता हूँ जहाँ मेरे बच्चे मेरा इंतजार करते हैं,जिसे देखकर थोड़ी सी तसल्ली तो होती है,उसके बाद विद्यालय प्रधान के रूप में क्षणिक तनाव की जिन्दगी के काले साये में अपने को घिरता हुआ देखने के बाद यह समझ में नहीं आती है कि किसको निगल जाऊँ किसको छोड़ दूँ। इस बीच लगता है कि राम बाबू जो कि ग्यारह बजे तक विद्यालय में नहीं आये हैं,जिस पर जैसे ही लाल इंक वाली कलम चलाना चाहता हूँ तो लगता है कि कल शाम के समय तो इन्होंने मोदी जी के दुकान पर रसमलाई खिलायी थी।दूसरी ओर देखता हूँ कि विद्यालय के बाबू की नींद पौने बारह बजे खुली है जो कि कंधे पर रूमाल,मुँह पर मीठा पत्ता पान,कंधे पर पाउडर छींटे हुये हाथ मेें मोटर साइकिल के चाभी का रिंग घुमाते हुये आ रहे हैं,पूछने पर कह पड़ते हैं कि कितने बजे भी आऊं कुछ होने वाला नहीं है।इसी बीच एक सर जी आते हैं,जिनको अपना कर्तव्य का पता नहीं,चिल्लाकर कहते हैं कि फलना नहीं आये हैं लगता है कि विद्यालय प्रधान को बीच-बीच में रसमलाई खिलाते रहते हैं।इस प्रकार के रस्साकशी के खेल में मारा जाता है,विद्यालय प्रधान।वह भी लाचार पंगु सा होकर अपने आप की जीवन की वैतरणी को किसी प्रकार गले की फंसड़ी समझकर निभाने की कोशिश तो करता है,लेकिन यह भी डर लगा रहता है कि कब उसे कौन निगल जायेगा लेकिन जायें तो जायें जहां नीचे जनता और उपर कृपा करने वाले।लूटूं तो किसको उन गरीब नौनिहाल बच्चों को जिनके माता-पिता अपने बच्चों को भगवान की कृपा पर हमारे यहाँ भेजते हैं।इसी पर मुझे एक सुन्दर पंक्ति याद आ गयी कि "भई सांप-छुछूंदर की गति मरी,उगलत आंनर,निगलत कौड़ी होई वाली बात चरितार्थ होती है।अपनी जीवन को इस प्रकार की तबाही पर देखते हुये लगता है किसको खूश करूँ,किसको नाराज करूँ वाली बात नजर आती है।
इसी संदर्भ में मुझे लगता है कि लोगों की नारजगी में ही सफलता का रहस्य छुपा रहता है,क्योंकि जितने ही लोग नाराज रहेंगे उतना ही आपको भी भय बना रहेगा और आप अपने कर्म पथ पर उतनी ही अच्छी तरह से आगे बढ़ते जायेंगे।इसलिए मुझे लगता है कि दुनिया को खुश करके कुछ भी नहीं मिलने वाला है,सिर्फ अपने आपको को खुश करने का प्रयास कीजिए और वह भी तभी संभव है जब आप अपने कर्म पथ पर लगातार बढ़ते रहियेगा।आपको जिस कार्य के लिये चुना गया है,वह काम कीजिए तभी खुशी होगी।अपने कर्त्तव्य को समझिए दूसरों को सलाह मत दीजिए,तभी आपके जीवन का उद्धार होगा।
आलेख साभार श्री विमल कुमार "विनोद"शिक्षाविद।

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