कहते हैं कि जब किसी को कोई सम्मान प्राप्त होता है तो उससे उसकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उस सम्मान की प्रतिष्ठा में उसे पूरी जिंदगी लगानी होती है और शायद इसलिए सम्मानित करने वाले लोग ऐसे व्यक्ति का चयन करते हैं जो उस सम्मान की और सम्मानित करने वाली संस्था दोनो की प्रतिष्ठा को ताउम्र निभा सके।
परंतु बदलाव की आंधी केवल अन्य क्षेत्रों को ही प्रभावित नहीं किया। इस क्षेत्र में भी अपना विकृत रूप धारण किया हुआ है। आगे बढ़ने की होड़ और झूठी आत्मप्रशंसा में सम्मान के नाम पर लूट और नंगापन व्याप्त है। न तो आज सम्मान देने वालों पर विश्वास रहा और न ही उसे प्राप्त करने वालों पर। आज कई संस्थाओं की विश्वशनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है।
किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट होने हेतु कड़ी मेहनत करनी होती है। जातिवाद,आरक्षण या किसी सिफारिश की बदौलत हम रास्ते तो तय कर सकते हैं,परंतु मंज़िल पा नहीं सकते। आज 300-500 - 1000 रुपए में संस्था लोगों को सम्मानित कर रही है। कोई भी ये रुपए देकर खुद को सम्मानित करवा सकते हैं। बड़ा आयोजन तो राशि बड़ी खर्च करनी होगी। छोटा आयोजन तो राशि छोटी और यदि घर बैठे मंगवाना हो तो डाक खर्च जोड़ दें सम्मान आपके घर पे ही पहुंच जाएगा। ऐसा नहीं है कि हर संस्था ऐसा करती है। बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं जो सराहनीय कार्य कर रही हैं। ऑनलाइन माध्यम से ही वो ज़मीनी स्तर का कार्य कर रहीं हैं। लेकिन इन्हीं टूट को वजह से वो भी गेंहू में घुन की तरह पीस रही हैं।
आखिर इन्हें ये समझ क्यों नहीं आता कि पैसे देकर कब तक और कहां तक जाया जा सकता है। जब कार्य हम स्वयं कर रहें हैं और आपको अच्छा लग रहा तभी सम्मानित करेंगे तो फिर हम ही पैसे क्यूं दे भई? कभी ये सवाल इन लोगों ने नहीं उठाया,और जिसने उठाया वो मेरी ही तरह हाशिए पे कर दिए गए हैं। तो इससे क्या ही फर्क पड़ता है? जिस दिन लोग ये समझ जायेंगे कि मेहनत और सच्चाई से ही लंबे समय तक की जीत हासिल की जा सकती है ,उस दिन इन पोंगा संस्थानों की दुकान बंद हो जाएगी।
आज धड़ल्ले से प्रकाशन खुल रहा है,लेखक छप रहे । कोई मतलब नहीं कि पुस्तक में वर्तनी शुद्ध है या नहीं? साहित्य की बात है या नहीं? छपने के नाम पर कुछ भी छापा जा रहा है। शुरुआत में जब मेरी भी रचनाएं छपी थीं तो खुशी हुई थी,आज जब उसे देखती हूं तो लगता है कि ये क्या छपा था? इतनी अशुद्धियां और छप गए?
पत्रिकाओं में ,समाचारपत्रों में छपने का मतलब होता है कि ये सबसे बेहतरीन है जिसे पढ़कर और लोग भी प्रयास करे,कुछ सीखे।लेकिन जब पढ़ने के बाद अशुद्धियों को देख कर मन खिन्नता से भर उठे तो सवाल उठता है कि माना रचनाकार को तो सब रचनाएं प्यारी होती हैं।वो भेज देते हैं किंतु संपादक महोदय की बुद्धिमत्ता को क्या हो जाता है? वो क्यूं अपनी कार्यशैली को भूल जाते हैं? उन्हें तो शुद्ध करना चाहिए और यदि अशुद्धियां ज्यादा है तो सही मार्गदर्शन देके रचनाकार को समझाना चाहिए ,ताकि भविष्य में वो बेहतरीन कर सके। लेकिन वो पत्रिका में छापने हेतु राशि पहले ही प्राप्त कर चुके होते हैं, जिसके पीछे सारी अशुद्धियां छिप जाती हैं।
मुझे एक बात समझ नहीं आई अभी तक। जब बचपन से ही एक कक्षा के बाद दूसरी फिर तीसरी फिर.... बढ़ाई जाती है। खेल में पहले जूनियर फिर सीनियर फिर कैप्टन बनाया जाता है। राजनीति में भी पहले मुखिया,फिर विधायक फिर मंत्री बनाया जाता है। सेना में भी क्रमबद्ध तरीका अपनाया जाता है। डॉक्टरों में भी धीरे धीरे ही आगे बढ़ा जाता है। इतना ही नहीं बाबाओं में भी पहले सन्यासी फिर साधना फिर मंत्र सीखना फिर आगे आगे किया जाता है। तो केवल साहित्य ही एक ऐसा क्षेत्र क्यूं है जहां सीधे ही मंचों पर पहुंचा जा सकता है? आप चाहे आज से लिखना शुरू करो ,कुछ आता हो या न हो पैरवी है,पैसे हैं, संयोजन है तो आप किसी भी वरिष्ठ के साथ मंच साझा कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि नवोदितों में प्रतिभाओं की कमी है। लेकिन उसे सही तरीके से निखार कर यदि मंच प्रदान किया जाए तो साहित्य की प्रगति हो सकती है। ये कार्य केवल साहित्य में ही नहीं हो रहा,कई ऐसे शिक्षण संस्थान भी है,कई सामाजिक संस्थान भी हैं,कई ऐसे मठ हैं जो रजिस्ट्रेशन के नाम पर रकम लेकर उनके नाम को शामिल करते हैं। आने जाने रहने का खर्च भी स्वयं आप का। यदि आप किसी को साथ में ला रहे तो उसका भी भोजन और चार्ज आपको ही देने होंगे। इतना खर्च करने के बाद आपको आपके मन अनुरूप समय भी नहीं दिया जाएगा। 5 मिनट बोलने को बोला तो ठीक नहीं तो बीच मंच से आपका माइक बंद करके आपको उतारा भी जा सकता है । ऐसी स्थिति आप पुनः किस तरह से स्वयं से आंखे मिला सकेंगी? मैंने इस तरह की घटनाओं से आहत होकर लोगों के परिवार को बिखरते भी देखा है। मैं स्वयं भी कई बार इस तरह के कृत्यों को देखकर दुखित हुई हूं। शायद मेरे साथ ऐसा हो जाए कि मंच पर से माइक बंद कर दिया जाए तो मैं या तो मंच पर ही तांडव कर दूं या फिर अत्मग्लानी में लेखन ही छोड़ दूं या कुछ भी.....क्योंकि एक सच्चा साहित्यकार केवल और केवल भाव का भूखा होता है। उसकी रचनाओं पर झूठी हजार तालियों से एक सच्ची चुटकी ही काफ़ी होती है।
मेरा आग्रह है आप सभी रचनाकार से कि आप अपनी महत्ता को जानें और उसे गिरने से बचाएं। साहित्य की सेवा सच्चे मन से करें,धन से नहीं। धन्यवाद!
स्वराक्षी स्वरा
खगड़िया,बिहार

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