गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, 'सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, शीत-उष्ण में जो समान रहते हैं, उनकी बुद्धि स्थिर रहती है।'
सुख और दुख दोनों शिक्षक की भांति हैं। दुख, सुख की अपेक्षा बड़ा शिक्षक है। कहा जाता है कि सुख-दुख अपने ही पूर्व कर्मों का फल होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है, "काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।" अर्थात् कोई किसी को सुख-दुख नहीं देता, सभी अपने अपने कर्मों का फल भोगते हैं ।
दुख या विषम परिस्थितियों का सामना करने पर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आता है ।
मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में लिखा है-
"मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं,
किंतु हलाहल भवसागर का शिवशंकर ही पीते हैं,
जीवन में सुख-दुख निरंतर आते-जाते रहते हैं,
सुख तो सभी भोग लेते हैं, दुख धीर ही सहते हैं।"
सुख का आधार शांति है। जहाँ शांति है, वहीं सुख है। गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं- "धर्मशील (ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ) पुरुषों के सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं।"
सुख और दुख कई प्रकार के होते हैं।प्रशंसा और निंदा से यदि हमें सुख-दुख प्राप्त होता है, तो हम शब्दों के गुलाम हैं, जो कि नहीं होना चाहिए। सच्चाई और ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत करने में या दूसरों की भलाई करने में होने वाला दुख या कष्ट बाहरी होता है, किंतु हमारा अन्त:करण प्रफुल्ल रहता है। अवैध तरीके से धन अर्जन करने वाले ऊपर से सुख में होते हैं, किंतु भीतर में सदा भय और चिंता बनी रहती है। पूर्वकृत कर्म के कारण प्राप्त होने वाले सुख-दुख के उत्तरदायी हम स्वयं हैं। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है, 'वर्तमान का दुख हमारे पूर्व के कर्मों का परिणाम है, तो उसे मिटाने की शक्ति हम में ही है।'
पुनः स्वामी विवेकानंद के अनुसार ही अपनी प्रत्येक स्थितियों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। यदि हमारे वर्तमान की स्थिति हमारे पूर्वकृत कर्मों और विचारों का परिणाम है, तो हमारा भविष्य हमारे अभी के विचारों और कर्मों का परिणाम होगा ।
महर्षि वेदव्यास ने कहा है, "दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना।"
गिरीन्द्र मोहन झा,
+2 शिक्षक, +2 भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा
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