नेताजी सुभाष चन्द्र बोस - हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

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Saturday, 25 January 2025

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस - हर्ष नारायण दास


सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा प्रान्त के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता जानकी नाथ बोस एक प्रसिद्ध सरकारी वकील थे जिनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के केदालिया गाँव के निवासी थे।सुभाष चन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा कटक में हुई थी। उच्च शिक्षा के लिये उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। उनके पिता चाहते थे कि बोस प्रशासनिक अधिकारी बने,अपने पिता के इस स्वप्न को साकार करने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी०ए० करने के बाद वे इंग्लैंड चले गए और 1920 ईस्वी में भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। उस समय आई. सी. एस. की परीक्षा पास करना आसान नहीं था। इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को प्राप्त करने के बाद भी उन्हें अंग्रेजों के अधीन कार्य करना स्वीकार नहीं था। अतः उन्होंने यह नौकरी करने से इनकार कर दिया। देश के स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गए।अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष की शुरुआत करते हुए सुभाष चन्द्र बोस देशबन्धु चितरंजन के सहयोगी बन गए। प्रिन्स ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार में उन्हें प्रथम बार गिरफ्तार कर छह माह की सजा दी गई।

सन 1924 में जब देशबन्धु कलकत्ता के मेयर बने तब सुभाष चन्द्र को उन्होंने चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाया। उनके स्वतन्त्रता उन्मुखी कार्यक्रमों एवं क्रियाकलापों से भयभीत होकर सरकार ने उन्हें उसी वर्ष फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, पर वह उन्हें अधिक समय तक कैद नहीं रख सकी और 15 मई 1927 को उन्हें रिहा कर दिया गया। इस समय तक वे देश के प्रखर नेता बन चुके थे और उनकी ख्याति देश की सीमा को लाँघ कर जर्मनी, जापान, अमेरिका, सोवियत रूस जैसे देशों तक पहुँच चुकी थी। 26 जनवरी 1930 को कलकत्ता के मेयर पद पर रहते हुए नेताजी ने आज़ादी के दिन की घोषणा के साथ विशाल जुलूस निकाला, जिसके कारण उन्हें फिर से  गिरफ्तार कर असहनीय यातनाएँ दी गई। जेल में उनका स्वास्थ्य जब अधिक बिगड़ गया, तो सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया कि वे रिहा होने के बाद सीधे यूरोप चले जायेंगे, अतः रिहा होने के तुरन्त बाद अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विट्जरलैंड चले गये। यह वास्तव में सरकार की सोची-समझी चाल थी। उन्हें रिहा नहीं किया गया था बल्कि निर्वासन दिया गया था और यह बात तब स्पष्ट सिद्ध हो गई जब अपने पिता की मृत्यु पर स्वेदश लौटते ही गिरफ्तार कर उनके घर में ही नजरबन्द कर दिया गया। लगभग एक मास तक वे इसी तरह नजरबन्द रहे, इस दौरान उन्हें किसी राजनीतिक चर्चा में भाग नहीं लेने दिया गया,अतः वे पुनः यूरोप लौट गए।

विदेश में रहते हुए देश की सेवा करना काफी कठिन था और ब्रिटिश सरकार ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि भारत में वे केवल जेलों में ही रह सकते हैं, फिर भी वे स्वदेश लौटे, इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी से देश भर में क्रान्ति की लहर फैल गई, पर सरकार टस से मस नहीं हुई। इसी बीच उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें पहले की तरह पुनः रिहा कर दिया गया।

सन 1938 ईस्वी में काँग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वे गाँधी जी द्वारा  नामजद उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध अध्यक्ष  पद का चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पट्टाभि सीतारमैया की पराजय को गाँधी जी ने अपनी पराजय बताया। सुभाषचंद्र बोस गाँधी जी का बहुत सम्मान करते थे। अतः दक्षिणपंथी कांग्रेसियों के असहयोग को देखते हुए उन्होंने काँग्रेस से त्याग पत्र दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक नामक नई पार्टी की स्थापना की। जून 1943 में सुभाषचंद्र जापान चले गए। वहाँ से फिर वे सिंगापुर के लिए रवाना हुए, जहाँ उसी वर्ष 4 जुलाई को रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिन्द फौज का सेनापति बना दिया। 21अक्टूबर 1943 को अन्ततः सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में ही आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी। जापान, इटली, चीन आदि देशों की सरकारों ने उनकी सरकार को मान्यता दी। "दिल्ली चलो'' का नारा देकर उन्होंने अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया और कोहिमा और मणिपुर के युद्ध में अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए। परन्तु अन्त में ब्रिटिश सरकार की वायु सेना के सामने आजाद हिन्द फौज कब तक टिकी रहती, सुभाष चन्द्र बोस को रंगून  छोड़ना पड़ा। 23 अगस्त,1945 को एक वायुयान दुर्घटना में उनकी  मृत्यु के समाचार पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। उनके प्रति लोगों के अनन्य दुर्लभ प्रेम की भावना का ही परिणाम था कि बीसवीं सदी के अंत तक भारतवासी यह मानते रहे कि उनके प्रिय नेताजी की मृत्यु नहीं हुई है और आवश्यकता पड़ने पर वे पुनः देश की बागडोर सँभालने को कभी भी आ सकते हैं।

देश के स्वतन्त्रता संग्राम में सुभाषचंद्र बोस की भूमिका को देखते हुए जनवरी 1992 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न'' से सम्मानित किया गया।

नेताजी आज हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं हैं, पर देशभक्ति का उनका अमर संदेश आज भी हमें देश के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा देती है।



हर्ष नारायण दास

प्रधानाध्यापक

मध्य विद्यालय घीवहा (फारबिसगंज)

अररिया

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