चंदन कुमार उर्फ मनीष अग्रवाल
(विद्यालय अध्यापक)
उ०उ०मा०विद्यालय नरसिंहवाग,मधेपुरा,बिहार
“होली” नाम सुनते ही मन-मस्तिष्क में सतरंगी ख्याल उभरने लगते हैं। रंग, गुलाल, पिचकारी, मिठाइयाँ, हँसी-ठिठोली और भाईचारे का यह पर्व भारत की सांस्कृतिक पहचान का एक अनमोल हिस्सा है। हर साल फाल्गुन मास की पूर्णिमा को हिंदू पंचांग के अनुसार मनाया जानेवाला यह त्योहार केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक भावना है। यह वह मौका है जब लोग पुरानी नाराजगियाँ भूलकर एक-दूसरे के गले लगते हैं, रंगों में सराबोर होते हैं और खुशियों का आदान-प्रदान करते हैं। होली का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं। होलिका दहन की विजय और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसके मूल में हैं। लेकिन क्या आज की होली वही है, जो कभी हुआ करती थी? क्या यह अब भी वही पवित्र और खिलंदड़ा रूप लिए हुए है? या फिर यह कुछ और बन चुकी है – एक ऐसा मंच, जहाँ अश्लीलता और फुहड़ता खुलेआम परोसी जा रही है? इस लेख का उद्देश्य इन्हीं सवालों पर प्रकाश डालना है। मैं आपको “होली में फैली अश्लीलता और फुहड़ता” के उस गंभीर पहलू से रू-ब-रू कराना चाहता हूँ, जिसे आप शायद रोजमर्रा में देखते, सुनते या महसूस करते हों। यह लेख आपको सोचने पर मजबूर करेगा कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है और क्या यह वही रास्ता है, जो हमें घोर कलियुग की ओर ले जा रहा है?
होली का पारंपरिक स्वरूप: एक झलक
होली का इतिहास सदियों पुराना है। यह केवल रंगों का खेल नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आध्यात्मिक उत्सव है। पौराणिक कथाओं में होली का उल्लेख भक्त प्रह्लाद और होलिका की कहानी से मिलता है। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने प्रह्लाद को अग्नि में जलाने की कोशिश की, पर भक्ति की शक्ति ने उसे बचा लिया और होलिका स्वयं जल गई। यह बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, जिसे होलिका दहन के रूप में मनाया जाता है। दूसरी ओर, वृंदावन की होली राधा-कृष्ण की प्रेम कथा से जुड़ी है। कृष्ण का राधा को रंग लगाना, उनके साथ ठिठोली करना और गाँववालों के बीच मस्ती भरी होली खेलना – यह सब इस त्योहार को एक अनूठा रंग देता है। पहले होली में सादगी थी। गाँवों में लोग ढोल-मंजीरे लेकर फाग गाते थे। “होली खेले रघुबीरा अवध में” या “फागुन के दिन चारो मिल जायी” जैसे गीतों में भक्ति, मस्ती और सामाजिक एकता की मिठास झलकती थी। घरों में गुजिया, पापड़ और ठंडाई बनती थी। बच्चे पिचकारी से रंग छिड़कते थे और बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे। यह वह दौर था जब होली का मतलब सिर्फ खुशी और आपसी प्यार था, न कि कोई दिखावा या फुहड़ता।
आधुनिकता का चोगा: कहाँ से शुरू हुई विकृति?
आधुनिकता का चोगा ओढ़कर हमने क्या खोया और क्या पाया? यह सवाल आज हर त्योहार के साथ उठता है, पर होली के संदर्भ में यह और भी गंभीर है। आज हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं। रंगों के इस पर्व में शराब, भांग, अश्लील गाने, गालियाँ और सड़क पर हंगामा क्यों घुस आया? क्या इनका होली से कोई वास्तविक संबंध है? पहले भांग की ठंडाई एक परंपरा थी। इसे सीमित मात्रा में, घरेलू माहौल में लिया जाता था। यह भोलेनाथ से जोड़ा जाता था और इसका मकसद मस्ती को बढ़ाना था, न कि होश खोना। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। शराब और ड्रग्स ने भांग की जगह ले ली है। गाँवों से लेकर शहरों तक, होली के दिन नशे में धुत लोग सड़कों पर दिखते हैं। पुरुषों तक सीमित यह चलन अब महिलाओं तक भी पहुँच गया है। कई जगह घरेलू आयोजनों में महिलाएँ हल्की भांग लेती हैं, जो मस्ती के नाम पर स्वीकार्य माना जाता है। लेकिन नशे का यह खेल जब हद पार करता है, तो छेड़छाड़, झगड़े और अराजकता शुरू हो जाती है। क्या यह वही होली है, जिसे हम भाईचारे का पर्व कहते हैं?
सोशल मीडिया और व्यावसायीकरण का प्रभाव
आधुनिक युग में सोशल मीडिया और व्यावसायीकरण ने होली को एक नया रंग दे दिया है – जो रंग कम, दाग ज्यादा लगता है। पहले होली में न स्मार्टफोन थे, न सेल्फी का शोर। लोग एक-दूसरे के साथ समय बिताते थे, न कि स्क्रीन पर। आज हालात उलट हैं। होली के नाम पर लोग अश्लील नृत्य, भद्दे गाने और महिलाओं पर जबरदस्ती रंग डालने के वीडियो बनाते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने की होड़ में मर्यादा को ताक पर रख दिया जाता है। कपड़े फाड़ना, अश्लील इशारे करना और नशे में बेहूदगी अब आम बात हो गई है। बड़े शहरों में क्लब, होटल और रिजॉर्ट्स में होली पार्टियाँ आयोजित होती हैं। रेन डांस और अश्लील ड्रेस कोड इनका हिस्सा बन गए हैं। यह पारंपरिक होली से कोसों दूर है। यह एक “पश्चिमी पार्टी” का रूप ले चुकी है, जहाँ रंगों का उत्सव कम और नशे का प्रदर्शन ज्यादा होता है। कंपनियाँ भी पीछे नहीं हैं। वे होली को कामुकता से जोड़कर बेचती हैं। विज्ञापनों में कम कपड़ों वाली मॉडल्स और द्विअर्थी शब्द इसका सबूत हैं। यह सब होली की मूल भावना को धूमिल कर रहा है।
संगीत में अश्लीलता: भोजपुरी गीतों का उदाहरण
होली का संगीत पहले भक्ति और मस्ती का प्रतीक था। भोजपुरी लोक गीतों में राधा-कृष्ण की ठिठोली और सामाजिक एकता की झलक मिलती थी। “होली खेले रघुबीरा” या “फागुन में रंग बरसे” जैसे गीत सुनने में मधुर और अर्थपूर्ण थे। लेकिन आज भोजपुरी संगीत का चेहरा बदल गया है। अब गीतों में “लहंगा में रंग डाल देब”, “भउजी के मुँह में डाल दs” और “होली में छाती पs रंग मलs” जैसे बोल आम हैं। ये दोहरे अर्थ और अश्लीलता से भरे हैं। खेसारी लाल यादव, पवन सिंह और निरहुआ जैसे लोकप्रिय गायकों के गीत इसकी मिसाल हैं। उदाहरण के लिए:
• “रंग डालs तs गाल पs” – इसके बोल और वीडियो में अश्लील इशारे साफ दिखते हैं।
• “होली में भउजी के साथ” – दोहरे अर्थ वाले बोल फुहड़ता की ओर ले जाते हैं।
ये गीत अक्सर वीडियो में जबरदस्ती रंग डालने और नाचने के दृश्यों के साथ परोसे जाते हैं। यह होली को कामुक बनाता है। पुरुषों का व्यवहार आक्रामक हो जाता है। महिलाएँ इन गीतों से असहज होती हैं, खासकर जब ये सार्वजनिक जगहों पर जोर-जोर से बजते हैं। बच्चे इन्हें सुनते और गाते हैं, जिससे उनकी सोच पर गलत असर पड़ता है। यह अश्लीलता आधुनिकीकरण और व्यावसायीकरण का परिणाम है।
युवा पीढ़ी और बदलता नजरिया
आज का युवा देश की रीढ़ है, पर वह आधुनिकता के नशे में डूबा है। उनके लिए शराब और अश्लील गानों के बिना त्योहार अधूरा है। वे तर्क देते हैं कि शराब सोमरस है और भांग भोलेनाथ का प्रसाद। गानों की अश्लीलता पर कहते हैं, “यह तो मस्ती है।” लेकिन क्या यह मस्ती वाकई होली का हिस्सा है? पहले मस्ती थी, पर संयम के साथ। आज युवा “फन” और “बिंदास” होने के चक्कर में परंपरा को ठुकरा रहे हैं। वे भूल गए कि होली राधा-कृष्ण की प्रेम कथा और होलिका दहन की विजय का प्रतीक है, न कि फुहड़ता का बहाना। सोशल मीडिया पर वायरल होने की चाह ने इस बदलाव को और तेज किया है।
सामाजिक प्रभाव और चिंताएँ
होली में फैली अश्लीलता का असर समाज पर गहरा है। महिलाएँ असुरक्षित महसूस करती हैं। नशे में लोग जबरदस्ती रंग डालते हैं, छेड़छाड़ करते हैं। बच्चे अश्लील गीतों को दोहराते हैं, जिससे उनकी मानसिकता प्रभावित होती है। यह सब सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा है। पहले होली सामुदायिक एकता का प्रतीक थी। अब यह व्यक्तिगत प्रदर्शन का मंच बन गई है। क्या हम यही संस्कृति अगली पीढ़ी को देना चाहते हैं?
समाधान: होली की असली पहचान कैसे बचाएँ?
इस अश्लीलता को रोकने के लिए कदम उठाने होंगे। होली मस्ती, भाईचारे और प्रेम का पर्व है। हमें इसके मूल को फिर से जीवंत करना होगा।
1. सांस्कृतिक जागरूकता: होलिका दहन और राधा-कृष्ण की कथा को बढ़ावा दें। स्कूलों और समुदायों में इनकी चर्चा हो।
2. सहमति का सम्मान: रंग खेलने या मस्ती के लिए सहमति जरूरी हो। “नहीं मतलब नहीं” का संदेश फैलाएँ।
3. सामुदायिक आयोजन: गाँवों-मोहल्लों में फाग गायन, होलिका दहन और भोज बढ़ाएँ। इससे लोग संस्कृति से जुड़ेंगे।
4. संगीत में सुधार: पारंपरिक गीतों को प्रोत्साहन दें। लोक कलाकारों के जरिए साफ-सुथरे गीत लाएँ।
5. मीडिया की जिम्मेदारी: विज्ञापनों और फिल्मों में होली को सही रूप में दिखाएँ।
निष्कर्ष :-
होली हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। इसे अश्लीलता का बहाना बनने से रोकना हमारी जिम्मेदारी है। यह रंगों का पर्व है, न कि फुहड़ता का मंच। हमें मिलकर इसकी असली पहचान बचानी होगी, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसे उसी शुद्ध भाव से मना सकें।
शुभ होली
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