*परिचय* : -
छठ महापर्व बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मिथिला क्षेत्र का सबसे प्रमुख लोकपर्व माना जाता है।
इस पर्व की विशेषता यह है कि यहाँ के निवासी चाहे देश के जिस भाग में हों या विदेशों में प्रवास करते हों, छठ आने पर अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं।
यह पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि भावनात्मक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय जुड़ाव का प्रतीक बन गया है।
छठ के समय ट्रेनों और बसों में उमड़ती भीड़ इस बात की गवाही देती है कि लोग पूरे परिवार और समाज के साथ मिलकर इस महापर्व को सामूहिक रूप से मनाते हैं।
छठ पूजा सूर्यदेव और षष्ठी माता (छठी मैया) के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता का अनुपम उत्सव है। यह चार दिनों तक अत्यंत अनुशासन, सात्विकता और भक्ति से संपन्न होता है। व्रती न केवल शरीर की शुद्धि बल्कि मन की भी पवित्रता बनाए रखते हैं। यह पर्व आत्मसंयम, समर्पण और पर्यावरण के प्रति सम्मान की भावना को सशक्त करता है।
*चार दिवसीय विधान* :-
छठ व्रत चार दिनों तक चलता है और प्रत्येक दिन का गहरा धार्मिक तथा वैज्ञानिक महत्व होता है।
*पहला दिन – नहाय-खाय* :
व्रती प्रातःकाल स्नान कर शुद्ध होकर सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन में शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है ताकि शरीर और मन दोनों पवित्र रहें।
*दूसरा दिन – खरना* :
इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जल उपवास रखते हैं और सायंकाल गुड़ एवं चावल की खीर, और केला का प्रसाद बनाकर ग्रहण करते हैं। उसके बाद उपवास पूरी तरह शुरू हो जाता है। खरना का प्रसाद पूरे परिवार और पड़ोसियों में बाँटने की परंपरा सामूहिकता का प्रतीक है।
*तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य* :
व्रती सायं समय घाट पर जाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। यह दृश्य आस्था और सौंदर्य से परिपूर्ण होता है। सूर्यास्त के समय अस्ताचलगामी सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती है क्योंकि सूर्य जीवन का आधार हैं, जो ऊर्जा, प्रकाश और आरोग्य का स्रोत हैं।
*चौथा दिन - उषा अर्घ्य* :
अगली सुबह व्रती उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं और परिवार की समृद्धि, संतति और स्वास्थ्य की कामना करते हैं। इसके बाद उपवास समाप्त होता है और प्रसाद वितरित किया जाता है।
आजकल शहरी क्षेत्रों में छठ की पूजा छतों, सोसाइटियों और कृत्रिम जलाशयों में भी हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
*पौराणिक एवं सांस्कृतिक आधार* :-
पौराणिक कथा के अनुसार, षष्ठी माता का उद्भव मूल प्रकृति के छठे भाग से हुआ था, इसलिए उनका नाम षष्ठी पड़ा। वे कार्तिकेय की पालनहार देवी मानी जाती हैं और उन्हें संतति प्रदान करने वाली ‘पुत्रदा’ देवी कहा गया है। षष्ठी माता को सूर्यदेव की बहन भी माना जाता है, इसलिए इस पर्व में सूर्य और षष्ठी माता दोनों की संयुक्त पूजा की जाती है।
छठ पर्व का गीत-संगीत लोकसंस्कृति की आत्मा है। मिथिला और भोजपुरी अंचल में छठ गीतों की ध्वनि घाटों, गलियों और घरों में गूंजती है।
ये गीत मातृत्व, श्रद्धा और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की भावना से ओतप्रोत होते हैं।
*सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्व* :-
छठ का सामाजिक महत्व अत्यंत गहरा है। यह पर्व समाज के हर वर्ग और व्यक्ति को समान रूप से जोड़ता है। जाति, धर्म, वर्ग और लिंग की सीमाएँ इस पर्व में समाप्त हो जाती हैं। छठ घाटों की सफ़ाई, सजावट और तैयारी में सभी वर्गों का योगदान समाज में एकता और सहयोग की मिसाल प्रस्तुत करता है। यह पर्व सामूहिक श्रम, सहयोग और सामाजिक जिम्मेदारी का सशक्त उदाहरण है।वैज्ञानिक दृष्टि से भी छठ अत्यंत महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना से मानव शरीर में विटामिन D — का निर्माण होता है, जिससे अस्थियाँ मजबूत होती हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
प्रातः व सायं सूर्य की किरणों का सीधा संपर्क मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। साथ ही, यह व्रत जल-संरक्षण, पर्यावरणीय संतुलन और स्वच्छता का भी महत्वपूर्ण संदेश देता है।
*निष्कर्ष* :- छठ महापर्व केवल पूजा-व्रत का अवसर नहीं है, बल्कि यह मानवता, अनुशासन और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। यह पर्व सिखाता है कि जब व्यक्ति अपने जीवन में संयम, श्रद्धा और समर्पण लाता है, तब उसका शरीर और मन दोनों संतुलित और शक्तिशाली बनते हैं। छठ महापर्व भारतीय संस्कृति की गहराई, लोकजीवन की सादगी और मनुष्य व प्रकृति के अटूट संबंध का अमर संदेश देता है।

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