गुरु नानक देव सिख धर्म के संस्थापक और प्रथम गुरु थे। उनका अवतरण 15 अप्रैल 1469 ई० में तलवंडी ( वर्तमान पाकिस्तान) में श्री नानकाना साहिब में एक गरीब खत्री परिवार में माता तृप्ता देवी जी और पिता कालू खत्री जी के घर हुआ था।उनकी महानता के दर्शन बचपन से हीं दिखने लगे थे। उन्होंने बचपन से हीं रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत कर दी थी, जब उन्हें ग्यारह वर्ष की उम्र में जनेऊ धारण करवाने की रीत का पालन किया जा रहा था। जब पंडित जी बालक नानक के गले में जनेऊ धारण करवाने लगे तब उन्होंने उनका हाथ रोका और कहने लगे - पंडित जी! जनेऊ पहनने से हम लोगों का दूसरा जन्म होता है जिसको आप आध्यात्मिक जन्म कहते हैं तो जनेऊ भी किसी और किस्म का होना चाहिए जो आत्मा को बांध सके। आप जो जनेऊ मुझे दे रहे हैं वो तो कपास के धागे का है जो कि मैला हो जाएगा और टूट जाएगा।मरते समय शरीर के साथ चिता पर चला जाएगा। फिर यह जनेऊ आत्मिक जन्म के लिए कैसे हुआ? और उन्होंने जनेऊ धारण नहीं किया।
गुरु नानक देव जी की पत्नी का नाम माता सुलखनी देवी था। उनके दो पुत्र बाबा श्री चंद एवं बाबा लखमी दास थे।
गुरु नानक देव जी ने जातिवाद और भेदभाव का विरोध किया साथ हीं स्त्री समानता का समर्थन किया। उन्होंने ईमानदारी से मेहनत करके कमाना और उसमें से जरूरतमंदों को बांटने की शिक्षा दी। उन्होंने काम ,क्रोध,लोभ,मोह ,मद, अहंकार से मुक्त जीवन जीने के लिए बतलाया। उन्होंने जोरदार शब्दों में ईश्वर के एक होने की बात कही और "एक ओंकार सतनाम" का संदेश दिया।जिसका मूल सिद्धांत ' नाम जपो,कीरत करो,वंड छको अर्थात ईश्वर का स्मरण करो, ईमानदारी से मेहनत करो और कमाई को बांटो )है।
गुरु नानक देव ने ईश्वर प्राप्ति के लिए अंतर का मार्ग बताया उन्होंने उस राह को छुरे की धार से तीक्ष्ण और बाल के नोक से अति महीन बताया। खनिहुं तीखी,बालिहुं नीकी एतु मारग जाना' कहा।
ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप के बारे में उन्होंने कहा कि वह अलख है अर्थात इस आंख से देखने योग्य नहीं है।वह अपार है, अजन्मा है, अगोचर है, रूप,वर्ण,जाति -पांति,जोनि,काल कर्म आदि से परे है।
उनके भजनावली में निर्गुण ब्रह्म के बारे में ये पंक्तियां उद्धृत हैं-
अलख अपार अगम अगोचरी ना तिसु काल ना करमा।
जाति अजाति अजोनि संभवु ना तिसु भाव ना भरमा।
सांचे संचियार बिटहु कुरबानु,ना तिसु रूप वरण नहीं रेखिया सांचे सबदु निसाणु।
गुरु नानक देव जी ने लोगों से कहा कि परमात्मा को खोजने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है वह अपने अंदर हीं है हमेशा तुम्हारे साथ रहता है फिर बाहर क्यों भटकते हो? उनके शब्दों में -
काहे रे! बन खोजन जाई।
सर्व निवासी सदा अलेपा,
तोही संग समाई।
पुष्प मध्य जो बास बसत हैं ,
मुकुर महिंजस छाई।
तैसे हीं हरि बसै निरंतर,
घट हीं खोजो भाई।
बाहर भीतर ऐकै जानो,
यह गुरु ज्ञान बताई।
जन नानक बिन आपा चीन्हे,
मिटै न भ्रम की काई।
गुरु नानक
उन्होंने कई भक्ति भजनों की रचना की जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं।
गुरु नानक देव पहुंचे हुए गुरु और दार्शनिक थे। उन्होंने समाज में समानता लाने के लिए लंगर प्रथा की शुरुआत की जिससे सभी जाति- वर्ग के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ बैठकर खाना खा सकें। उन्होंने सदाचार की राह पर चलने को प्रेरित किया। गुरु नानक देव ने करतारपुर नामक एक गांव बसाया जहां उन्होंने खेती की और अनुयायियों के साथ रहकर अपने सिद्धांतों के साथ जीवन व्यतीत की।
1539 ई० में उन्होंने अपने उत्तराधिकारी भाई लहना जी ( गुरु अंगद देव) को नियुक्त किया और ' ज्योति जोत' में विलीन हो गए। कार्तिक पूर्णिमा को हम सभी गुरु नानक जयंती को प्रकाश पर्व के रूप में मनाते हैं। हमें गुरु नानक जी के उपदेशों को आत्मसात करना प्रेरणा लेनी चाहिए और अपने जीवन में उतार कर उभयलोक कल्याणकारी बनाना चाहिए।
स्वरचित -
मनु कुमारी
विशिष्ट शिक्षिका
प्राथमिक विद्यालय दीपनगर बिचारी
राघोपुर ,सुपौल

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