क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षा स्थल है। इंसान की ज़िंदगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। इबादत का अर्थ ईश्वर केंद्रित जीवन व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है। वास्तव में इंसान की पूरी ज़िंदगी इबादत है, बशर्ते कि वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को किसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया है।
क़ुरआन दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ, इसलिए रमज़ान का महीना कुरान का महीना कहलाया। इसीलिए रमज़ान मुसलमानों का बहुत ही पवित्र त्यौहार है। रोज़ा एक इबादत है। रोज़ा को अरबी भाषा में ‘सौम’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘रुकना और चुप’ रहना है। क़ुरआन में इसे ‘सब्र’ भी कहा गया है जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता (Stability) है। इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है: केवल ईश्वर के लिए भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों से स्वयं को रोके रखना। फ़र्ज़ रोज़े (अनिवार्य रोज़े), जो केवल रमज़ान के महीने में ही रखे जाते हैं और यह हर वयस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य है।
रोज़ा एक महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में हर पैग़ंबर ने रोज़ा रखने की बात कही। उपवास हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। हिंदू धर्म में भी नवरात्र तथा छठ पूजा में लोग सहते हैं। उपवास जैन धर्म में केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं बल्कि आत्मशुद्धि, संयम और मोक्ष की दिशा में एक महत्वपूर्ण साधन है। यह आत्मसंयम, शांति और आध्यात्मिक जागरूकता को बढ़ाने में मदद करता है। उपवास बौद्ध अनुयायियों को शरीर और मन पर नियंत्रण रखने में सहायता करता है और यह करुणा, सरलता और आत्म-अनुशासन को बढ़ावा देता है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है ‘जिंदगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को नियमबद्ध बनता है। आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें। कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें। ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें। हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें। पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएँ। दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें। इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिस काम को ईश्वर ने पसंद किया, उन्हें किया जाए। केवल ईश्वर के बताए गए तरीके के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचता है।
रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर, दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स (Annual Training Course) है जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है जिसके बाद वह साल भर स्वयं केंद्रित जीवन के बजाय ईश्वर केंद्रित जीवन व्यतीत कर सके। रोज़ा इंसान में अनुशासन पैदा करता है ताकि इंसान अपनी सोच को सही दिशा दे सके। रोज़ा इंसान का स्वयं पर कंट्रोल ठीक करता है। इंसान के अंदर ग़ुस्सा, ख्वाहिश लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएँ हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कंट्रोल करें या ये इंसान को कंट्रोल करें। पहले सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सीखना है अर्थात इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
रोज़ा जब हम रखते हैं तो भूख, प्यास, तपिश और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। रोज़ा विकट परिस्थितियों और जीवन में दुश्वारियाँ से निपटने की क्षमता प्रदान करता है। रोज़े की हालत में मजदूर, मिस्त्री और रिक्शा पुलर आदि को भी काम करते देखा जा सकता है। रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है। इस्लाम के इतिहास में बहुत सारी जंगें रमज़ान के महीने में रोज़े की हालत में लड़ी गईं और जीती भी गईं। इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीजों को दिनभर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त कर सकता है। रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर को बढ़ाता है।
रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता और सुस्ती को दूर करता है। रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पीना इत्यादि) के महत्त्व का एहसास दिलाता है। रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बंदा बनता है। रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सकें। रोज़ा इंसान में त्याग पैदा करती है। शरीर का उपवास दरअसल आत्मा का भोजन है। Fasting of the body is the feasting of the soul. विज्ञान से यह भी प्रमाणित है कि उपवास स्वास्थ्य लाभ के लिए अच्छा होता है।
इस्लाम के अंतिम पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के शब्दों में- हर चीज़ को पवित्र करने के लिए ज़कात (मुसलमान अपनी आय में से ढाई प्रतिशत गरीबों में बाँटते हैं) दिया जाता है और मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पवित्र होने के लिए रोज़ा रखा जाता है।
मो. ज़ाहिद हुसैन
'प्रधानाध्यापक'
उत्क्रमित मध्य विद्यालय
मलहविगहा, चंडी, नालंदा
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