स्कूल कथा/आपबीती - Smita Thakur - Teachers of Bihar

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Sunday 26 November 2023

स्कूल कथा/आपबीती - Smita Thakur


22 मई 2013 का वो दिन था,मेरे जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले जब मैंने मध्य विद्यालय सखुआ जॉइन किया था।मैं बिल्कुल भी खुश नहीं थी,क्योंकि मुझे लगा था कि गाँव के स्कूल को जॉइन करने के बाद मेरी सारी महत्वकाँक्षा धरी की धरी रह जाएंगी,आजीवन गांव में रहना पड़ेगा सो अलग,मेरे बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई का क्या होगा??बहुत ज्यादा दुखी और रोते हुए मैंने विद्यालय में योगदान किया।

मेरा पहला दिन था स्कूल का जहाँ मुझे पहली बार सभी क्लास से परिचय करवाने के बाद क्लास 6 में पढ़ाने को मिला...मैं बता नहीं सकती कितनी अनकम्फर्टेबल थी उस क्लास को देखकर...नीचे फर्श और बोरे पर बैठे,शोरगुल करते वो बच्चे,अजीब सी तेल और पसीने की मिश्रित गंध से भभक मारता वो क्लास रूम,लगा जैसे 2 मिनट और इस क्लासरूम में रही तो उल्टी आ जायेगी..पर तभी मेरी मम्मी की कही वो बात दिमाग मे आयी जिसमे उन्होंने लगभग धमकी देते हुए कहा था कि "अगर दूसरों के बच्चे को अपने बच्चे की तरह नही पढ़ाया तो तुम्हारे बच्चे भी नही पढ़ पाएंगे",...उस वक्त डर से ही सही फर्स्ट चैप्टर इग्लिश बुक को लेकर पढ़ाना शुरू किया...पर पढ़ाती क्या...देखा तो आधे बच्चों के पास बुक नहीं है तो आधे बच्चों के पास कॉपी और पेन नहीं है,सभी बेतरतीब बिना स्कूल ड्रेस के आधे साफ सुथरे तो आधे बिना नहाए और ब्रश किये ही क्लास में बैठे है जिन्हें ढंग से ABCD भी नहीं आ रही...

फिर कुछ दिन मौका मिला 7th को पढ़ाने का ,ये क्लास कुछ बेहतर था,फिर क्लास टीचर बनी 8th की..जहाँ अपने हिसाब से बच्चों को एडजस्ट किया,रूल्स बनाये, यूनिफॉर्म कंपलसरी किया...उनकी वीकनेस का पता किया ,उसपर काम शुरू किया,एक्स्ट्रा कुरिकलम में बागवानी करवाई,ढेर सारे TLM बनवाये बच्चों से ही..समझ मे आ गया था कि बच्चे ट्रेडिशनल तरीके से तो नहीं पढ़ने वाले इसलिए नवाचार का सहारा लिया,मॉर्निंग असेम्बली को थोड़ा अट्रेक्टिव किया...कुछ समयके लिए प्रशाशनिक प्रभार भी एन्जॉय किया,जिसके कारण रूल्स फॉलो करवाने में आसानी रही,जिसमे सभी सहयोगियों ने सपोर्ट किया...ढेर सारे चैलेंजेज भी आये,लोगो ने बातें भी बनाई की बस उछल कूद मचा कर रखा है,ऐसे भी कोई पढ़ाता है भला?? पर विद्यालय परिवार के सहयोग से हमारा काम बदस्तूर जारी रहा।

सबसे मजा आता था बच्चों के संग बच्चा बनने में चाहे कुर्सी दौड़ हो या आंख पर पट्टी बांध छुपम छुपाई,या सभी टीचर्स के साथ मिलकर वॉलीबॉल खेलने की ,बहुत मजेदार हुआ करता था...छोटे बच्चे तो मेरे लिए आम के समय मे चुपके से कच्चा आम,अमरूद के समय ढेर सारा कच्चा-पक्का अमरूद,सुंगध वाले फूल तो कोई टॉफ़ी ही लाकर गिफ्ट करता रहा मुझे..ऐसा नही है कि मैं गुस्सा नही करती थी उनपर,बस मेरा पनिशमेंट थोड़ा डिफरेंट हुआ करता था ,जैसे गलती करने पर उन्हें मॉर्निंग असेम्बली में गाना सुनाना पड़ेगा,डांस भी करना पर सकता है,अपने खेल में मुझे ना चाहते हुए भी शामिल करना पड़ेगा और आस-पड़ोस के गॉसिप को मुझसे जबर्दस्ती शेयर करना पड़ेगा....भारी गलती करने वालो को भरी सभा(मॉर्निंग असेम्बली) में मैं श्राप दिया करती थी as a ब्राम्हण teacher की अगर उन्होंने ये वाली गलती करी तो सोते हुए उनके मच्छरदानी में मच्छर घुस जाएंगे और रात भर सोने नहीं देंगे,पॉटी जाने के बाद उनका पानी का स्टॉक खत्म मिलेगा,पीठ के बीच वाले हिस्से पर खुजायेगा जहाँ खुद का हाथ ना पहुँच पाए,बालो में जू हो जाये, और भी बहुत कुछ...और बच्चे गलती करते ही नहीं थे फिर।

अगर कोई सीरियस मैटर होता था तो उन बच्चों को अकेले में बस उस बात के गुड़ और बेड पहलू से अवगत करा दिया करती थी,बच्चे सीख जाया करते थे...मुझे याद है शुरू शुरू में सबसे ज्यादा शिकायत आती थी मेरे पास की :-- "मुझे उसने गाली दी"...

फिर उन्हें सिखाया की कोई तुम्हे कुछ दे और तुम ना लो तो वो किसके पास रह जायेगी,आंसर मिलता की देने वाले के पास ही,फिर यूँही करते करते ये प्रॉब्लम भी shortout हुई...ये वहीं स्कूल था जहाँ जाने में मैंने आँसू बहाए थे पर इसी स्कूल के कम्पाउंड को ही देखकर दूर से ही मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती। 2 दिन भी गायबे रहने पर सारे बच्चे और यहाँ तक कि भोजन माता भी मुझसे प्रश्न करना शुरू कर देती की मैं कहाँ और क्यों गयी थी...इस बीच ये सब हुआ...वो सब हुआ....

मतलब धीरे धीरे ये स्कूल मेरे खुश रहने का कारण बनता चला गया,जहाँ मैं अपने बचपन को बच्चों के साथ खुल कर जीती थी...

और अब वहीं स्कूल है जो मुझे फिर से रुला रहा है ठीक उसी तरह जैसे उसने मुझे अपने शुरुआती दिनों में रुलाया था जब मैं यहाँ नहीं आना चाहती थी..रो आज भी रही हूं बस कारण बदल गया है कि अब मैं यहाँ से जाना नहीं चाहती।।जिस दिन मैं यहाँ से विरमन पत्र लेने आयी तो ऐसा लग रहा था कि यहाँ जो हरी भरी घास है जो काफी मेहनत से इस बार आयी थी वो भी लहलहा के मुझे रोक रहा है,खुद से लगाये गए पौधों पर खिले फूल अपनी सुंदरता और मोहक मुस्कान से मुझे रोक रहे थे...,यहाँ की दीवारें जैसे मुझसे बातें कर रही थी कि मत जाओ...वो तो शुक्र है बच्चों की छुट्टी हो रखी थी वरना मैं बच्चों की तरह बिलख रही होती फिर भी खुद को रोक नही पाई और दोनों हाथों से चेहरे को छुपा आसुओं को रोकने का असंभव प्रयास किया,पर असफल रही...लौटते समय आंखों में भर लेना चाहती थी वो TLM से सजाये दीवार,क़िताबों से सजी रेख को जिसे बच्चों के संग मिलकर सजाया था..

ये आंसू कब रुकेंगे पता नहीं, पर मध्य विद्यालय सखुआ की एक एक चीज यादें बनकर हमेशा मुझे रुलाती रहेगी...शायद यहीं जिंदगी का असली मतलब है...मिलना और मिल के बिछड़ जाना...मिस यु my all स्टूडेंट्स....

खूब अच्छा करो,मन से पढ़ो और जिस सपने को मैंने तुम्हारे अंदर जागृत किया है एक दिन उसे जरूर प्राप्त करो...


Smita Thakur/मध्य विद्यालय सखुआ/@ Teachers of Bihar

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