छठ पूजा- सूर्योपासना, लोक आस्था व प्रकृति का पर्व - देव कांत मिश्र 'दिव्य' - Teachers of Bihar

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Tuesday 21 November 2023

छठ पूजा- सूर्योपासना, लोक आस्था व प्रकृति का पर्व - देव कांत मिश्र 'दिव्य'


जग की आत्मा सूर्य है, करिए नित प्रणिपात।

जीवन प्राणाधार हैं, अंशुमान अवदात।।

पावन कार्तिक मास में, करें छठी का ध्यान।

गुणवंती करुणामयी, महिमा बड़ी महान।।


भारतीय संस्कृति में उपासना का अत्यधिक महत्व है। यों तो हमारे देश के लोग देवी- देवता की उपासना भिन्न- भिन्न विधि से करते हैं। परन्तु सूर्योपासना का पर्व प्रकृति की आराधना का पर्व है। ऐसी जनश्रुति है कि सारी दुनिया में इसकी परंपरा वैदिक काल से ही है, जिसके साथ लौकिक परंपरा ने इसे नया जामा पहना दिया है। एक बात दीगर है कि सूर्य असीम ऊर्जा का स्रोत है। इनकी शक्ति के बिना जीवन का विकास नहीं हो सकता। पेड़- पौधे नहीं उग सकते। जल की उपलब्धि नहीं हो सकती। यहाँ तक कि इनकी शक्ति के बगैर पृथ्वी का जन्म भी नहीं होता। सच में, धरती यदि माता है तो सूर्य पिता है। इसी पावन वसुंधरा पर युगों- युगों से जीवन को दैदीप्यमान करते सूर्य को देवता मानने और पूजने वाले करोड़ों लोगों का छठ पर्व दुनिया के सबसे अनूठे वह अनुपम लोक पर्वों में अति विशिष्ट स्थान रखता है। यजुर्वेद में कहा गया है - 'आदित्यो वे प्राण:।' यानि इस पृथ्वी पर सूर्य सभी प्राणों का मूलाधार है। योगशास्त्र में भी पतंजलि ने लिखा है: "भुवन ज्ञानं सूर्य संयमात्।" अर्थात् सूर्य के ध्यान और उपासना से सारी दुनिया का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

पौराणिक व धार्मिक इतिहास: कहा जाता है कि लंका विजयोपरांत राम राज के लिए कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम व सीता ने उपवास किए और भगवान भास्कर की आराधना की। तभी से लोग छठ पर्व मनाने लगे। यह भी कहा जाता है कि सूर्य की शक्ति का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। पहले सायंकालीन अर्घ्य में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा और पुनः उदीयमान सूर्य की पहली किरण उषा को नमन किया जाता है। अथर्ववेद के अनुसार षष्ठी देवी भगवान सूर्य की मानस बहन हैं। यही कारण है कि सूर्यदेव के साथ उनकी बहन षष्ठी देवी की पूजा होती है। स्कंद पुराण में वर्णित है- राजा प्रियवंद को कोई संतान नहीं थी। इस हेतु महर्षि कश्यप से पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाए। पर उन्हें मृत पुत्र हुआ। तत्पश्चात् राजा वियोग में पुत्र को लेकर श्मशान घाट चले गए और अपने प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और बोली, सृष्टि की मूल प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूंँ। राजन, तुम मेरा पूजन करो और लोगों को भी प्रेरित करो। पुनः राजा ने खुद व्रत किया और लोगों को भी इस दिशा में चलने कहा। कुछ समय पश्चात् राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तभी से लोग इसके लिए छठ पर्व मनाने लगे।

                          वस्तुत: छठ पर्व पावनता का महान पर्व है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें उदयाचल सूर्य के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि जीवन में हमें केवल उन्हें ही आदर नहीं देना चाहिए जो आगे बढ़ते हैं बल्कि समय आने पर उनका साथ भी देना चाहिए जो हमसे पीछे छूट गए हैं या जिनका महत्त्व कम गया है या जो अपनी पूरी यात्रा करके प्रभावहीन हो गया है। यह पर्व हमें नदियों के निकट लाकर प्रकृति से निरंतर जुड़े रहने का व्यापक संदेश देता है। अतः हम शिक्षकों को भी छात्रों को प्रकृति से जुड़े रहने की बात सिखानी चाहिए तथा जो अपनी पढ़ाई में कमजोर पड़ गये हैं उन्हें तेज छात्रों से यथासंभव मदद करने की बात बताई जानी चाहिए।



देव कांत मिश्र 'दिव्य' मध्य विद्यालय धवलपुरा, सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार

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