प्राचीन औऱ वर्तमान शिक्षा पद्धति औऱ मानव मूल्य---
शिक्षा का क्षेत्र हमेशा से ही बहुत व्यापक रहा है वर्तमान समय की शिक्षा में केवल परीक्षाओं और डिग्रियाँ दिये जाने का चलन है। संभव है आरम्भ में इससे कुछ लाभ हुआ हो पर आजकल तो इसका स्वरूप अत्यन्त विकृत तथा भ्रष्ट हो गया। छल, कपट, बेईमानी, रिश्वत आदि किसी भी साधन से परीक्षोत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेना ही इस समय अधिकाँश विद्यार्थियों का लक्ष्य दिखलाई पड़ता है। इससे शिक्षा का मूल्य घटता जाता है और बी. ए., एम. ए. पास व्यक्ति चपरासी तक की नौकरी करते दिखलाई पड़ते हैं। इस प्रकार की झूठी सनदों के बजाय प्राचीन काल के छात्र शिक्षा समाप्त कर लेने पर कोई महत्व का कार्य करके दिखलाते थे और उसके द्वारा अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।
वास्तव में शिक्षा का संपर्क स्कूली पठन-पाठन से ज्यादा नहीं है। और जिसे सुशिक्षा कहा जाता है वह तो दूसरी ही चीज है। आज कल दुनिया की निगाह में शिक्षा का मुख्य लक्षण कोई अच्छी सी नौकरी कर सकना अथवा किसी अन्य बड़े समझे जाने वाले पेशे के द्वारा जीविकोपार्जन करना समझा जाता है। क्योंकि इन सभी कामों में लिखना-पढ़ना अनिवार्य होता है इसलिए आजकल इन कामों में सफल होने वाले व्यक्ति ही शिक्षित समझे जाते हैं।
यही सब से बड़ा अंतर प्राचीन और अर्वाचीन शिक्षा प्रणाली में है। उस समय कागज, कलम और पुस्तकें लेकर पढ़ने-लिखने का अभ्यास करने के बजाय विद्यार्थी का चरित्र गठन करना और जीवन संग्रह में उसे अपना और दूसरों का हित कर सकने योग्य बनाना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। दूसरा उद्देश्य यह था कि मनुष्य को केवल भौतिकता की तरफ दृष्टि रखने वाला न बनाकर वह उसके जीवन को आध्यात्मिकता की तरफ मोड़ती थी। क्योंकि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों को अपने समान समझकर उनके हित-अनहित का ध्यान न रखेगा वह समाज के लिए कभी श्रेष्ठ नागरिक सिद्ध न होगा। जो स्वार्थी व्यक्ति भौतिक लाभों को ही सब कुछ समझकर अपनी बुद्धि का उपयोग अपने लिए अधिक से अधिक सामग्री प्राप्त करने और दूसरों को उससे वंचित रखने में करता है वह प्राचीन आदर्श की कसौटी पर निस्संदेह एक पढ़ा-लिखा मूर्ख है। उसे सुशिक्षित कहना शिक्षा का अपमान करना है।
कुछ व्यक्ति प्राचीन शिक्षा पद्धति में यह दोष बतलाते हैं कि उसका क्षेत्र बहुत संकुचित था और उस समय के विद्यार्थियों का दृष्टिकोण उतना व्यापक न बन पाता था जितना कि आजकल। हम यह मान सकते हैं कि प्राचीन समय में शिक्षा का स्वरूप मुख्यतया धार्मिक ही होता था और अधिकाँश विद्यार्थी पूजा-पाठ, स्तुति तथा कुछ कर्मकाण्ड सम्बन्धी बातों के अतिरिक्त अन्य विषयों का ज्ञान कदाचित ही प्राप्त करते थे। और यह भी सच है कि उस समय शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों की संख्या समस्त आबादी के अनुपात से बहुत अल्प होती थी। पर उस समय की सामाजिक अवस्था और व्यवस्था ही आजकल से सर्वथा भिन्न थी और उस समय का समाज मुख्य रूप से कृषि प्रधान था। खेती-बाड़ी का काम करने वालों के लिए साहित्य और विज्ञान की शिक्षा तो आजकल भी सुलभ नहीं है और गाँवों की 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निरक्षर ही है। उस समय उद्योग धन्धे भी हाथ की कारीगरी के रूप में किये जाते थे और उनका उद्देश्य विशेषतः किसानों की आवश्यकता की वस्तुएँ बनाना ही था। बड़े-बड़े नगरों की संख्या कम थी और वैदेशिक व्यापार बहुत सीमित रूप में किया जाता था। फिर उस समय शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी शिक्षा ग्रहण करके कोई उपाधि प्राप्त कर लेना नहीं था, वरन् प्रत्येक को उसकी जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी।
इस दृष्टि से सब से पहली बात तो हम यही समझते हैं कि शिक्षा पद्धति में कोरी जानकारी की अपेक्षा गुणों का महत्व अधिक होना चाहिए। प्राचीन काल के विद्यार्थियों के पास चाहे आजकल के स्कूली लड़के-लड़कियों की तरह पुस्तकों और कापियों के ढेर नहीं लगे रहते थे और न उनमें से प्रत्येक को भूगोल और इतिहास से लेकर विज्ञान के आविष्कारों तक की पाठ्य पुस्तकें पढ़नी पड़ती थीं, पर उस समय जो कुछ सिखलाया जाता था वह जीवन भर के लिए उपयोगी होता था और उसे ऐसा पक्का कर दिया जाता था कि मनुष्य उसे कभी भूल नहीं सकता था। हम नहीं समझते कि दुनिया भर की बातों की जबानी जानकारी प्राप्त कर लेने की चेष्टा करना, पर व्यवहारिक कार्य के नाम पर शून्य होना कहाँ की बुद्धिमत्ता है।
सबसे महान त्रुटि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह है कि यह विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करने के बजाय उसका नाश कर देती है और नवयुवकों को जीवन के आरम्भ से ही काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि का दास बना देती है। इसी का परिणाम है कि जब बीस-पच्चीस वर्ष की आयु में आजकल के विद्यार्थी बी. ए., एम. ए. के डिग्रियाँ, लेकर जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वे प्रायः निर्बल, निस्तेज और अनेक प्रकार की आधि-व्याधि के शिकार दिखलाई पड़ते हैं। प्राचीन समय के छात्र चौबीस पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके और हर तरह के कठोर जीवन को सहन करके पूर्ण शक्ति और उत्साह के साथ जीवन-संग्राम में पदार्पण करते थे और आत्म-विश्वास के साथ प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को प्रस्तुत रहते थे। यही दोनों प्रणालियों का सर्वप्रधान अन्तर है और उपरोक्त उद्देश्य को सम्मुख रखकर ही हमको अपनी शिक्षा-पद्धति का पुनः निर्माण करना चाहिए।
आज की भौतिकवादी युग मे शिक्षा की वर्तमान प्रणाली एक भौतिक सुख की जरूरत बन के रह गई है जिसमे कंही ना कंही मानव मूल्य का निरन्तर ह्रास सा हुआ है,इसलिये जरूरी है कि शिक्षा का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण औऱ मानव मूल्य का निर्माण होना चाहिए।
लेखक-नीरज कुमार
उत्क्रमित मध्य विद्यालय
रूपापुर
पालीगंज
पटना
बहुत ही सुंदर!
ReplyDeleteGood knowledge
ReplyDeleteवर्तमान शिक्षा पद्धति के महत्व पर अच्छा प्रकाश डाला है आपने। इसके लिये धन्यवाद।
ReplyDeleteभारत की प्राचीन शिक्षा एवं वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के बीच अंतर तथा मानव मूल्य अन्तर्सम्बंधों के सच्चे तस्वीरो को नीरज सर ने बड़ी बेबाकी से इस आलेख में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
ReplyDeleteइसमें कोई दो राय नहीं कि आधुनिक शिक्षा पद्धति ज्ञानसंग्रह एवं विज्ञान के उन्नयन शक्ति का परिचायक है, बावज़ूद इसके इसमें कई खामियाँ भी मौज़ूद है।
तुलनात्मक दृष्टि से यदि देखा जाए तो प्राचीन शिक्षा पद्धति का आधार जहाँ नैसर्गिक सिद्धान्त के साथ मानव मूल्यों का निर्माण था, वहीँ वर्तमान शिक्षा व्यवस्था महज़ एक आजीविका का साधन मात्र बन के रह गया। भारतीय आधुनिक शिक्षा से नैतिकता,बौद्धिकता,मनुष्यता,चरित्रनिर्माण,सद्व्यवहार जैसे शिक्षा के मौलिक तत्वों की मौजूदगी ही ख़त्म हो गयी तथा शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य अत्याधुनिक भौतिक संपन्नता मात्र रह गयी।
सम्प्रति शिक्षा का दायरा चंद कागजी प्रमाणपत्रो तक ही सिमट कर रह गया है तथा शिक्षित और अशिक्षित होने का पैमाना भी इसे ही मान लिया गया। मैं मानता हूँ कि आज के भीड़ भरी दुनिया में ज्ञान के सत्यापन की कसौटी अपरिहार्य है और इसके लिए प्रमाणपत्र अनिवार्य है, किन्तु आज़ाद भारत के आधुनिक इतिहास में शिक्षा के बाज़ारीकरण के फलस्वरुप आज मानकहीन शिक्षा पद्धति का उदविकास भारतीय शिक्षा में देखने को मिलती है। ऐसी बात भी नहीं है कि भारत में अथवा बिहार जैसे शैक्षिक रूप से पिछड़े राज्यो में बौद्धिक सम्पदा का आभाव है,किंतु शिक्षा के खुले इस बाजार में वास्तविक बौद्धिकता वितीय सशक्तता के आगे दम तोड़ देती है एवं कागज़ी तौर पर क्रय की गयी शिक्षा का शिलान्यास हो जाता है जिसके आधार पर भौतिक सम्पदा अर्जित करने वाली सफलता रूपी भवन का निर्माण होता है जिसमें मानवीय मूल्य की उपस्थिति नगण्य होती है।
अगर देखा जाए तो वास्तव में प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में भले ही भीड़ का आभाव था, किन्तु उस काल में शिक्षा का नैसर्गिक अस्तित्व कायम था। शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य मानवीय मूल्य को संरक्षित करते हुए नव् सामाजिक आदर्श प्रतिमान स्थापित करना था न कि ऐन-केन-प्रकारेण समाज में अपने आपको प्रतिस्थापित करना।
अतः वास्तव में यदि एक सभ्य राष्ट्र का निर्माण चाहिए तो सभ्य शिक्षा की बुनियाद कायम करनी होगी जो मानवीय मूल्यों के आधार पर विकसित होगी एवं आधुनिक शिक्षा पद्धति भी प्राचीन शिक्षा पद्धति के उद्देश्यों एवं आदर्शो पर खड़ी उतर पाएगी।
धन्यवाद!
शशि शेखर प्रसाद
ReplyDeleteमध्य विद्यालय खोड़ि
जिला+प्रखंड-समस्तीपुर
इस गिरावट के लिए शिक्षा प्रणाली जिम्मेदार है ऐसा कहना तो अनुचित है और आलेख की मंशा पर प्रश्न चिन्ह है कल भी जीविका या पेशेगत प्रशिक्षण शिक्षा के क्षेत्र में स्वीकृत था। किसने कहा कि प्राचीन शिक्षा मूलतः धर्म की शिक्षा थी
ReplyDeleteगुड नोलेज
ReplyDeleteAwesome
ReplyDeleteज्ञानवर्धक
ReplyDelete