प्रकृति और मानव--विजय सिंह - Teachers of Bihar

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Wednesday 22 April 2020

प्रकृति और मानव--विजय सिंह



प्रकृति और मानव
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          जब पृथ्वी सूर्य से टूटकर अलग हुई तो उसे ठंडा होने में लगभग 91 अरब वर्ष लगे और उसके बाद यह लगभग साढे चार अरब वर्ष से भी अधिक समय से अपने अस्तित्व में है। लगभग 3.8 से 3.5 अरब वर्ष पहले इस पृथ्वी पर किसी भी जीव की पहली उत्पत्ति हुई। मानव सभ्यता का विकास पाँच से दस हजार वर्ष पहले हुई लेकिन मात्र इतने वर्षों में ही मानव के द्वारा इस स्वर्ग तुल्य धरा का इतना दोहन हुआ कि परिणाम सबके सामने है। 
          प्राचीन काल में लोग अपनी शक्ति दिखाने के लिए एक-दूसरे पर आक्रमण तो करते थे लेकिन प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा भगवान तुल्य करते थे। वैसे आज भी कुछ पेड़-पौधों इत्यादि की पूजा की जाती है लेकिन दिन-भर राम-राम रात में चोरी के कहावतों पर चलते रहते हैं। अर्थात जिस पेड़-पौधों की पूजा करते हैं उसकी कटाई करने से भी नहीं रुकते। प्रकृति ने हर वह चीज हमें दी जिसे उपयोग कर हम स्वस्थ जीवन बिता सकें लेकिन मानव का लोभ बढ़ता गया, बढ़ता गया.... और आज की भयावह स्थिति को लाने का कारण बना। जिस पृथ्वी पर आने के लिए देवताओं को भी तपस्या करनी पड़ती थी उस पृथ्वी की क्या दुर्दशा है उससे सभी भिज्ञ हैं। 
          विभिन्न स्रोतों से ज्ञात है कि विश्व का सबसे पहला उद्योग जहाजरानी उद्योग है जो लोकत्रांतिक वेनिस के द्वारा 1104 ईस्वी में स्थापित किया गया था लेकिन आज लाखों कल-कारखाने देखने को मिल जाएँगे जिससे निकलने वाले कूड़े-कचरे से पृथ्वी हीं नहीं आसमान भी कराह रहे हैं। यह सब क्यों हुआ? केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हेतु। पैसों की भूख मिटाने की चाहत ऐसा रोग है जिसका अंत नहीं दिखता। हर तरफ से प्राकृतिक वस्तुओं का विनाश शुरू हुआ। पैसों की भूख तो कभी मिटने वाली नहीं है लेकिन इस भूख ने प्रकृति को इतना कूपित कर दिया जिसका परिणाम सबके सामने है। जिस मानव संसाधन की वृद्धि के लिए विज्ञान ने रास्ता दिखाया उस रास्ते का दुरुपयोग कर जनसंख्या विस्फोट की समस्या उत्पन्न कर दी गई जिससे मजदूरों, कामगारों, बेरोजगारों की संख्या ऐसी बढ़ी कि पेट चलाने के लिए लोग घृणित से घृणित कार्य तक करने लगे जिन्होंने प्रकृति को अपना गुस्सा प्रकट करने के लिए बाध्य कर दिया। भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, अग्निकांड, सुनामी, चक्रवात, आँधी-तूफान, बाढ़, सुखार इत्यादि अनेकों आपदाएं उत्पन्न करने के लिए प्रकृति मजबूर हो गई। जब इससे बचने के अनेकों संसाधन बनाए गए तो असाध्य बीमारियाँ देने लगी। किसी एक बीमारी की दवाई बनाई जाती है तो दूसरी अनेकों बीमारियाँ उत्पन्न कर दी जाती है जो और असाध्य होती है। यह क्रिया सतत चलते आ रही है जिसका परिणाम सबके सामने है। वर्तमान समय में तो हद हो गई कि जो मानव 24 घंटे कार्यशील रहते थे आज उसे घर पर छुपकर रहने पर, अपनी जान बचाने के लिए सभी कार्य छोड़कर रूखी-सूखी खाकर जीवन बिताने को बाध्य होना पड़ रहा है। 
          कहाँ गया दिमाग? क्या कोई उपाय ढूँढ पाए? एक अदृश्य "वायरस" ने सारी हेकरी निकाल कर रख दी है। जो विभिन्न स्टाईल में फोटो पोस्ट कर दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने को आतुर रहते थे आज मुँह छुपाने को मजबूर हैं। प्रकृति से तालमेल बैठाकर रखने से ही हमारा कल्याण होगा तभी हमारी भलाई होगी। "सर्वं सुखाय सर्वं हिताय" के पथ पर चलना होगा। "वसुधैव कुटुम्बकम" की भावना रखनी होगी। "यह मेरा तो वह तेरा" की भावना का त्याग करना होगा। प्राकृतिक वस्तुओं का दोहन रोकना होगा तभी हमारी धरा अपने पुत्र-पुत्रियों के साथ खुश रहेगी। जब धरा प्राकृतिक वस्तुओं से भरी पड़ी रहेगी, प्रदूषण मुक्त रहेगी तभी मानव का रहना सरल होगा। जीवन बिताना सरल होगा। दुःख कम होंगे और सुख की प्राप्ति अधिक होगी। कुछ पंक्तियां हैं--- 
गगन धड़ा करे पुकार 
छोड़ो करना अत्याचार 
समय रहते नहीं चेतोगे 
मिट जाएगा सारा संसार 
फिर न कभी जीवन पाओगे 
बाद में केवल पछताओगे।
आज पृथ्वी दिवस के अवसर पर संकल्प लेते हैं कि "हम भी ख्याल रखेंगे अपनी धरती का"।


विजय सिंह
सदस्य टीओबी टीम  

2 comments:

  1. आपने इस आलेख में प्रकृति और मानव का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है।सच में, जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हमें प्रकृति प्रदत्त चीजों का दोहन तो रोकना ही होगा। इस सुन्दर आलेख हेतु धन्यवाद!

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  2. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!
    विजय सिंह

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