Friday, 15 May 2020
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कसक--अरविंद कुमार
कसक
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सूर्य देव आम की झुरमुठों के पीछे छिप रहा था।पक्षियों की झूंड अपने घोंसलों की तरफ बढ़ रही थी।
माल-मवेशियों को कुट्टी, पानी तथा भूसा नांद में डाल दी गई थी। मवेशी पानी में मुँह घुसेड़कर चभर-चभर की आवाज के साथ घास खा रहे थे ।
लखन दास मच्छरों के डंक से मवेशीयों की सुरक्षा के लिए अपने कंधे से गमछा उतार कर अंगीठी सुलगा रहा था।
बगल के दरवाजे पर अंदु बाबाजी आँख बंद कर खंजीरा पीटते हुए गा रहे थे ........................... "जो...आया..सो..जाएगा..राजा..रंक...फकीर.."
बाबाजी का गीत सुनते हुए , बर्तन में पानी भरती रेखिया की माँ, खीजते हुए हिंगवावाली से बोली- "सुनती हो दीदी इस कुलक्षण.. बुढवा.. बाबाजी.. का... गीत.... इसके.....मुंह..से..हर..वक्त..डराने..वाले..गीत..ही ..निकलते..रहते..हैं।
ठीक..कहती...हो..बहन। अभी..कौन बीमारी..निकला ..है...किरोना...ये...सब..इसी..तरह..के..बुढवा..के.. द्वारा मांगी...गई ...बीमारी है मुआ...इ....कुरोना..।
..हुहह....!सो..नही..की..शाम..की.....बेला. में..अच्छा...गीत ..गाएँ ..एक ..तो ..कोरोना..ऊपर..से..इस...बाबाजी..का..डराने....वाला..गाना..!
अनजान डर में जबरन फीकी मुस्कान मिश्रित कर , हिंगवावाली ने हाथ चमकाते हुए रेखिया की माँ की बातों में अपनी सहमति जताई ।
जब कोई विपदा की घड़ी हो तो अपनों की याद आना स्वाभाविक होता है। रेखिया माय अर्थात जलेश्वरी देवी का तन तो भरगामा में था मगर मन हमेशा केरल में मजदूरी करने गए पति हरिया पर ही टिका रहता था। रात में नींद न आती तो उठकर बैठ जाती और मन ही मन बुदबुदाती।" हे......सलहेश..बाबा..हे..शितेयल..माय..हे..काली..बन्नी..रेखिया बाप..को सही..सलामत..रखना, सही..सलामत! ..जब..वह...घर..लौट..आएँगें..तो...मैं..आपके मंदिर पर ...आठ..पहर..भजन-कीर्तन ..करवाएँगें "।
दूरभाष, टेलीविजन व अन्य स्रोतों से देश के बंद होने व महामारी से लोगों के मरने की खबर जलेश्वरी की आत्मा को अन्दर तक डरा देती है। बुरे सपनों से पीछा छुड़ाने के लिए वह कभी-कभी फोन से केरल बात कर लेती है, थोड़ी तसल्ली तो मिलती है मगर फोन कटते ही हालात फिर जस की तस हो जाती है। हालांकि फोन पर हरिया खुद को महफूज बताते हुए जलेश्वरी को तसल्ली देता है।
जब से पूरे भारत में लाॅकडाउन हुई है। सड़कें राहगीरों की बाट जोह रहा है, सुनसान रास्ते मायूसी की चादर ओढ़े सिसक रही है। पुलिस की गश्ती, सायरन की आवाज व लाॅउडस्पीकर से एहतियात बरतने की सूचना किसी अनहोनी घटना की याद ताजा करवा देती है।
उधर दूसरी तरफ हरिया की हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही है। मजदूरी मिलना बंद हो गया है। बेलदारी के काम से लेकर रिक्शा चलाने के काम तक बंद हो चुके हैं। केरल के साथ-साथ देश के अन्य शहरों से भी मजदूरों का पलायन जारी है। बहुत सारे मजदूर हिम्मत कर पैदल ही घर की तरफ चल पड़े हैं।
कई मजदूर भूख से बेहाल है तो कुछ मजदूर जो काफी दूरी के कारण अपने घर पहुँँचने में असमर्थ हैं ,वह अब अपने अगल- बगल वालों से भीख भी मांगना शुरू कर दिया है। हरिया भी आज अपने आस-पास के लोगों के यहाँ से कुछ रोटियाँ मांग कर लाया है और सजल आँखों से उसे तोड़ कर खा रहा है ।
हालांकि सरकार की तरफ से प्रभावित लोगों के लिए कई तरह के पैकैजों की घोषणा हुई है मगर वो सही तरीके से लोगों तक फिलहाल नही पहुँच पा रही है। इसी बीच जमाखोर भी अपनी पूंजी को मोटा करने के लिए आम लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार करना शुरू कर दिया है।
हरिया रोटी खाकर अपने क्वार्टर के चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे जलेश्वरी, रेखिया के साथ-साथ पूरे गाँव की याद आ रही थी।
बाबा सलहेश..का गहवर पिछले साल ही टूट फूट गया था। शायद अभी तक ऐसे ही पड़ा हो। घर जाऊँगा तो सबसे पहले पड़ोसियों से बांस मांग कर बाबा के स्थान को..ठीक..करवाऊँगा।
पूजा-अर्चना, ढोल, मृदंग, झाल पर थिरकता गाँव, माल-मवेशीयों के गले में बंधी घंटियों की आवाज, खेत-खलिहान से लेकर गाँव की बैठक तक का एक अलग ही नजारा होता है। आपसी प्यार-मुहब्बत की जड़ें आज भी वहाँ मजबूत है ।
और यहाँ कहने को अमीर मगर सभी दिल के गरीब होते हैं। कोई.... किसी.. को... देखने.. वाला..नही।
इस.. बार ..घर जाऊँगा तो राजन बाबू का खेत बटिया करूँगा, एक जोड़ी माल-मवेशी लूँगा, फिर हम.. और जलेश्वरी उसी की सेवा कर गाँव में ही समय काटेंगे , निगोड़ी... शहर.. के.. तरफ.. फिर.. पलट कर.. नही.. देखूँगा।
एक महीने बाद महामारी के काले बादल छट चुके थे। कुछ दिनों के बाद हरिया वापस घर के लिए रवाना हो गया था। शारीरिक रूप से काफी कमजोर होने के बाबजूद भी हरिया जैसे ही गाँव की पगडंडी पर कदम रखा उसका अंग-अंग रोमांचित हो रहा था। शरीर में एक अलग ही तरह के ऊर्जा का संचार हो गया था। गाँव की आवो हवा बाहें फैलाए हरिया का दीदार कर रही थी।
अरविंद कुमार
ब्लॉक मेंटर
TOB, भरगामा
अररिया
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गांव में रोजगार के अवसरों में कमी ने बड़ी संख्या में मजदूरों को पलायन के लिए मजबूर कर दिया। दो पैसे कमाने के चक्कर में ऐसे मजदूर अन्य राज्यों में जाकर बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने के लिए विवश होते हैं। परंतु उनके श्रमशक्ति का उपयोग करने वाले शहर विपरीत परिस्थितियों में उनका साथ नहीं देते। और तो और मौका पाकर उनके कमाई पूंजी भी हड़पने की फिराक में रहते हैं। ग्रामीण परिवेश के ताने-बाने के साथ आपकी यह रचना भावनाओं को स्पर्श करने के साथ ही प्रासंगिक भी है। अच्छी रचना हेतु बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं......
ReplyDeleteआज के परिपेक्ष्य में बहुत अच्छी लेखनी। वाकई गांव की याद आ गयी। बहुत सुंदर रचना। बहुत-बहुत बधाई हो।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है। इस कसक शीर्षक से मन में एक कशिश पैदा हुआ। गाँव की याद आना स्वाभाविक है।आप ऐसी ही रचना लिखा कीजिए सर।
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteTob परिवार के सभी भाइयों का शुक्रिया
ReplyDeleteगरीबी ने गरीबों को जिंदगी जीने की राह में कालांतर से रोड़े बनते आ रहा है ।पता नही कभी ये जायेगी या फिर........हमें तो लगता है नहीं,,,,,,,धरती अभी थमी है,,,,,,,,,सुंदर और कालानुरूप,,,,,भाई,,,,
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteमार्मिक एवं फलदायी, धन्यवाद
ReplyDeleteपढ़कर मेरा दिल करुणा से भर गया। अरविंद जी यह एक कहानी नहीं बल्कि सच्ची घटना है जो हमारे समाज के बीच घटित हो रहा है। आज सरकार के द्वारा जो लोकलुभावन घोषणाएं की जा रही है वह महज एक छलावा नजर आ रहा है। उदाहरण के तौर पर किसानों के लिए जो घोषणाएं की गई है अगर आपका फसल बर्बाद होता है तो बीमा कंपनी आपको मुआवजा देगी उसके लिए पैसा सरकार प्रीमियम के रूप में भरेगी। अर्थात अगर कोई गरीब किसान कागजी तौर पर अपने आप को फसल क्षति होने को प्रमाणित नहीं कर सका तो वह सारा पैसा बीमा कंपनी के पास रह जाएगा। इस माध्यम से मैं सरकार से अनुरोध करना चाहता हूं कि अगर सच्ची मायने में गरीब किसानों का मदद करना चाहते हैं जो भी सब्सिडी है या जो भी सहयोग है वह सीधे गरीब किसानों को पहुंचाएं पाकी गरीब किसान या गरीब मजदूर उस पैसे से अच्छे ढंग से खेती कर पाएगा और छोटा-मोटा रोजगार करके अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण कर पाएगा।
ReplyDeleteGood Sir ��
ReplyDeleteअपनी जीवंत लेखनी के माध्यम से बिल्कुल सही चित्रण किया है।
ReplyDeleteप्रेमचंद की कहानियों की याद ताजा हो गई।
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