मनुष्य का समाजीकरण-कुमारी निधि चौधरी - Teachers of Bihar

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Thursday, 14 May 2020

मनुष्य का समाजीकरण-कुमारी निधि चौधरी

मनुष्य का समाजीकरण
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          आज लाॅकडाउन के समय में हम एक शब्द बहुत अधिक सुन रहें है "सामाजिक दूरी" और इसका निर्वहन करना हममें से कुछ को कठिन भी लग रहा है। 
चलिए सीधे मुद्दे पर आतीं हूँ मनुष्य स्वभाव से ही एक "सामाजिक प्राणी" है। यद्यपि यह कथन अरस्तू का है परन्तु यह यथार्थ है। हम शास्त्रों और विज्ञान की माने तो यह कहना गलत नहीं होगा कि मनुष्य जब माँ के गर्भ में होता है तब माँ के व्यवहार का असर उस पर पड़ता है और जन्म के उपरांत सर्वप्रथम माँ फिर परिवार के सदस्यों के व्यवहार का असर पड़ता है। एक बालक भाषा भी अपने सामाजिक जीवन के परिवेश के अनुसार ही सीखता है। परिवार के बाद पास-पड़ोस की भूमिका होती है। पास-पड़ोस की परिभाषा भी एक जैसी नहीं होती। उदाहरण के लिए कभी-कभी हम ऐसे परिवेश में रहते हैं जहाँ हमारे पड़ोसी के रूप में रिश्तेदार अथवा अपने ही समुदाय के लोग हो सकते हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक स्थान पर विभिन्न समुदाय और धर्म के लोग रहते हैं। इसका भी असर बच्चों पर व्यापक पड़ता है। 
          फिर विद्यालय की भूमिका आती है। विद्यालय में समाजीकरण का क्षेत्र न केवल विस्तृत और व्यापक है बल्कि यहाँ समाजीकरण के विभिन्न प्रकार से भी परिचित होते हैं। खेलकूद, चेतना सत्र, योग वयायाम, कक्षा, प्रभात फेरी, सुरक्षित शनिवार, वृक्षारोपण, विभिन्न जयंतियाँ मनाना, स्वतंत्रता दिवस मनाना इत्यादि के माध्यम से उनमें संवेदनशीलता, मैत्री, राष्ट्र प्रेम, समूह भावना इत्यादि का विकास होता है। मनुष्य के समाजीकरण की यह प्रक्रिया यहीं नहीं थमती यह जीवनपर्यंत चलती रहती है। और एक बात समाजीकरण की इस प्रक्रिया को हम मात्र अनुकरणीय नहीं कह सकते। इसे हम चयनात्मक और मुल्यांकनात्मक प्रक्रिया कहें तो बेहतर होगा क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्रक्रियाओं के मूल्यांकन के पश्चात जो उसके अपनाने योग्य हो उसे ही अपनाता है। यहाँ हमारा यह कहना सर्वथा गलत नहीं होगा कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और केवल समाज ही व्यक्ति को बदल देता है या प्रभावित करता है ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि हम इस बात को भी नहीं नकार सकते कि एक व्यक्ति भी समाज को परिवर्तित या फिर प्रभावित करने की क्षमता रखता है। 
          सामाजिक जीवन से अलग रहकर स्वतंत्र जीवन की परीकल्पना ही नहीं की जा सकती। जिस प्रकार जल के बिना मछली नहीं रह सकती ठीक उसी प्रकार समाज के बिना मनुष्य नहीं रह सकता लेकिन वर्तमान परिस्थितियों ने ऐसी बाध्यता उत्तपन्न कर दी है कि हमें अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के लिए सामाजिक दूरी बनाना परम आवश्यक है। आप भी सामाजिक दूरी बनाए रखें। बहुत जरूरी कार्य होने पर ही घर से बाहर निकलें। घर पर रहें, सुरक्षित रहें।
            


कुमारी निधि चौधरी
किसनगंज, बिहार

9 comments:

  1. बहुत सुंदर

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  2. बहुत सुंदर

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  3. समाज का निर्माण व्यक्ति से होता है जबकि व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा का उद्देश्य भी किसी छात्र के आचरण में अपेक्षित परिवर्तन लाकर उसे समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाना ही होता है। परंतु कभी कभी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जब हमें सामाजिक नियमों के विपरीत जाकर जीवन जीना पड़ता है ताकि हमारा अस्तित्व बचा रह सके। कोरोनावायरस के प्रकोप के कारण अभी दुनिया भर में ऐसी ही स्थिति बन गई है। हम सब मिलकर इस चुनौती का सामना करेंगे और खुद के सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने को सार्थक करेंगे। अच्छे एवं प्रासंगिक आलेख हेतु बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं....

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  4. सही विवेचना

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  5. सचमुच में, सामाजिक जीवन से अलग रहकर स्वतंत्र जीवन की कल्पना करना असंभव है। परन्तु वर्तमान स्थिति ऐसी है कि इस अज्ञात व घातक वायरस के कारण सामाजिक दूरी बनानी पड़ रही है।ऐसा समय का तकाजा वाकई यह अच्छी रचना है।

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  6. अब तो ये सामाजिक दूरी हमारे जीवन का अंग होने वाली है। इसी के साथ जीना है। अतिसुन्दर लेख हेतु बहुत बहुत बधाई।

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