शिक्षक "बच्चों के भाग्य विधाता"-देव कांत मिश्र - Teachers of Bihar

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Friday, 23 October 2020

शिक्षक "बच्चों के भाग्य विधाता"-देव कांत मिश्र

शिक्षक "बच्चों के भाग्य विधाता"

                 हे ज्ञानप्रदाता ! भाग्यविधाता !
                तुझ पर है, सारे बच्चों का भार।
              निज कंधों पर जहमत उठाकर
              करते रहते सदा तू  उपकार।।
             ज्ञान रश्मि की नित अविरल 'लौ ' से
             भर देते बच्चों में सुसंस्कार।।    
       
          सच में देखा जाए तो शिक्षक, छात्र तथा विद्यालय में अन्योन्याश्रय तथा गहरा सम्बन्ध है। एक केे बिना दूसरा उसी तरह खोखला व अधूरा है जिस तरह पुस्तक के बिना पुस्तकालय, मनुष्य के बिना घर, वृक्ष के बिना जंगल, पंख के बिना पक्षी। शिक्षक यदि ज्ञान का प्रकाशदाता एवं पथप्रदर्शक हैं तो छात्र उस विद्यालय रुपी आंँगन के ज्ञान पिपासु रुपी प्रतिबिंब हैं जो मेहनत करके पुष्पित व पल्लवित होकर समाज, प्रांत एवं राष्ट्र को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। ऐसा एक शिक्षक ही तो करते हैं। शिक्षक मार्गदर्शक का काम करते हैं तथा छात्र अपनी लगन व मेहनत से आगे बढ़ते हैं। सिर्फ भाग्य के भरोसे बैठे रह जाना कतई उचित नहीं है। यूंँ कहा जाए एक कुशल, योग्य व ईमानदार शिक्षक छात्रों में विभिन्न तरह के गुणों को विकसित करते रहते हैं, ज्ञान रुपी खजाने भरते रहते हैं और छात्र उसे ग्रहण कर आगे बढ़ते रहते हैं। सच में, शिक्षा का उद्देश्य ही तो छात्रों का सर्वांगीण विकास है। महात्मा गांँधी जी के अनुसार-- "BY education I mean all round drawing out of the best of child and man- body, mind and spirit".
          यानी शिक्षा से तात्पर्य बच्चों के शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक गुणों को पूरी तरह उभारना है।मेरी राय में शिक्षक को बच्चों में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए--
1.बच्चों को अच्छी तरह समझने व परखने  
2.बच्चों के माता-पिता की आर्थिक स्थिति पर ठीक से आकलन करने तथा उन्हें उचित सुझाव देने
3.बच्चों के घरेलू वातावरण को समझने
4.अपने सहपाठियों व शिक्षकों के प्रति व्यवहार परखने
5.उसके स्वास्थ्य पर निरंतर ध्यान रखने तथा
          कहने का मतलब यह है कि एक शिक्षक को बच्चों के विकास हेतु उनके शारीरिक, संज्ञानात्मक, संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक विकास के पक्षों पर भी ध्यान देना चाहिए। ऐसा देखा गया है कि अगर बच्चे हमेशा अस्वस्थ रहते हैं तो उनके सीखने की प्रक्रिया एक स्वस्थ बच्चे की तुलना में कमजोर एवं धीमी हो जाती है जबकि स्वस्थ बच्चे अधिक क्रियाशील व सजग रहते हैं। वे किसी चीज को शीघ्र सीख लेते हैं अर्थात उनमें सीखने-समझने की ग्रहण शक्ति अधिक होती है। इसलिए तो अरस्तू ने ठीक ही कहा है--"स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण ही शिक्षा है।" अतः हमें उनके स्वास्थ्य के प्रति सचेत व जागरूक रहना चाहिए। इसके साथ-साथ परिवेश का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ता है। इसके कारण ही तो कभी-कभी ज्ञानी, बुद्धिमान तथा एक संत पुरुष का पुत्र भी अपराधी हो जाता है। जरा गौर कीजिए! थोड़ा चिंतन कीजिए! विचारों को जामा पहनाकर मन मिजाज मजबूत कीजिए! मन को कहिए! क्या यह सही है? हांँ परिवेश और बेहतर स्वास्थ्य  छात्र जीवन में जरूरी है। ऐसा प्रायः सभी मानते हैं। मेरा कहना है- जैसा परिवेश, वैसा ही गुण का समावेश।
          वाटसन का एक सुन्दर विचार इस आलोक में सही जान पड़ता है--"यदि मुझे एक स्वस्थ शिशु दे दिया जाय तो मैं अपनी इच्छा से उसे एक डॉक्टर, वकील या डाकू बना सकता हूंँ चाहे उसकी वंश परम्परा जैसी भी हो। शिक्षक ही बच्चों के भाग्य विधाता होते हैं बशर्ते उनके द्वारा दिखाई गई राह पर बच्चे सही ढंग से चले तथा अपने कर्तव्य एवं जिम्मेदारी को जीवंत दिशा प्रदान करे। संस्कृत में एक श्लोक है---
‌उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:।

‌देव कांत मिश्र
म. वि.धवलपुरा
सुल्तानगंज, भागलपुर

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