मैं एक शिक्षक बन गया-पंकज कुमार - Teachers of Bihar

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Saturday 25 July 2020

मैं एक शिक्षक बन गया-पंकज कुमार

मैं एक शिक्षक बन गया

          मंगलवार का वो दिन था और तारीख थी 21 मई 2013। मै अपने पिताजी के साथ उनके दुकान में बैठकर किसानों को बीज से खेती के बारे में समझा रहा था। तभी अचानक एक आवाज आती है - अरे भाई मिठाई खिलाओ, मिठाई खिलाओ। ये आवाज़ धीरे धीरे हमारी तरफ बढ़ रहा था। नजर उठाई तो देखा एक बूढ़ा डाकिया हाथो में डाक लिए हमारी ही दुकान के तरफ आ रहा था। हमारी दुकान पर आते ही उसने फिर से कहा-अरे भाई, जल्दी से मिठाई ले आओ।
पापा जी ने पूछा- अरे ऐसा क्या हुआ है जो आप बार- बार  मिठाई की बात कर रहे हो।
बूढ़े डाकिया ने कहा- आपके बेटे की नौकरी लगी है। उसी का मिठाई माँग रहा हूँ। मुझसे रहा नहीं गया मैंने झट से उनके हाथ से वह पत्र लिया और उसे फाड़कर देखा तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गई। वह पल मेरे लिए एक सपना के समान ही था जिसकी मैंने उम्मीद ही नहीं की थी । 
          अचानक मुझे वो कुछ वर्ष पहले की बातें याद आने लगी जब मेरी बड़ी बहन छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करती थी और जब मैं उन बच्चों के सामने जाता तो बच्चे मेरे डर से ट्यूशन छोड़ कर भाग जाते थे। मैं बार-बार यही सोचता था क्या सच में मैं बच्चों को पढ़ा पाऊँगा? अगले ही दिन मॉर्निंग विद्यालय होने के कारण मैं सुबह-सुबह नहा धोकर बिना नाश्ता किए, पॉकेट में पहली बार दो कलम लगाकर विद्यालय की ओर चल पड़ा।  चुँकि रास्ता मैंने देख लिया था इसलिए मुझे विद्यालय जाने में तकरीबन 15 से 20 मिनट लगे। जब मैं विद्यालय पहुँचा तो देखा विद्यालय में तकरीबन 40-50 बच्चे आए हुए हैं। परंतु मुझे बच्चों को पढ़ाने का कोई भी अनुभव नहीं था मैंने सोचा था मैं विद्यालय जाकर अपने साथी शिक्षकों से बच्चों को पढ़ाया कैसे जाता यह सीख लूँगा परंतु यहाँ परिस्थिति बिल्कुल विपरीत थी।  बच्चे अपनी कक्षा में इधर-उधर खेल रहे थे। मैडम बैठकर किसी से बात कर रही थी और  प्रधानाध्यापक मेरे योगदान को अपने रजिस्टर में प्रविष्टि करने में व्यस्त थे। 
          मेरे विद्यालय में पूर्व से एक शिक्षक और एक शिक्षिका थी। विद्यालय के कागजातों के निपटारा के कारण प्रधानाध्यापक हमेशा व्यस्त रहते थे और मैडम उर्दू तालीम के कारण बच्चों को सिर्फ उर्दू की ही पढ़ाई करवा पाती थी परंतु बच्चे मदरसा में उर्दू पढ़ लेने के कारण विद्यालय नहीं आना चाहते थे। मैं पूरा दिन बस यही सोचते रह गया कि आखिर मैं शुरू कैसे करू? गुरुवार का दिन वहाँ हाफ डे होता था जिस कारण छुट्टी बड़ी जल्दी हो गई। मैं भी अपने घर को वापस हो गया। मैं पूरा दिन बस यही सोचता रहा कि आखिर शुरुआत कैसे करूं । 
          अगले दिन शुक्रवार को विद्यालय बंद होने के कारण  विद्यालय में छुट्टी थी। शनिवार को जब मैं विद्यालय पहुँचा तो देखा विद्यालय में कुल तीन रूम थे परंतु दो रूम काफी दिनों से बंद पड़ा था। मैंने पूछा तो मैडम ने बताया आप नए आए है इस वजह से बच्चे आपको देखने के लिए आए है। दो-तीन दिन में सभी बच्चे गायब हो जाएँगे । शनिवार का दिन मेरे लिए काफी कष्टदायक था क्योंकि मैं यह निर्णय नहीं ले पा रहा था कि आखिर मैं बच्चों को शुरू कहाँ से करूं। मैं बैठा रहा और यह सोचता रहा कि मैं क्या करूं, तभी  मैडम मेरे पास आईं और उन्होंने मुझसे कहा- आप काफी देर से लग रहा है किसी चिंता में डूबे हुए हैं, आप कोई चिंता मत कीजिए। लगता है आप नए-नए शिक्षक बने है। धीरे- धीरे आप सब समझ जाएँगे। तभी एक बच्ची मेरे पास आई जिसका नाम था नाहिदा। वह वर्ग पंचम में पढ़ती थी ।  उसने मुझसे पूछा- सर यह क्या लिखा है? मैंने उसे झट से उस शब्द का उच्चारण कर बता दिया और मै मन ही मन यह सोचने लगा अगर वर्ग पंचम के बच्चे इतने साधारण से शब्द का उच्चारण नहीं कर पा रहे हैं तो वर्ग दो और तीन की स्थिति क्या होगी! मेरा पूरा दिन बस इसी ख्याल में बीत गया। विद्यालय में न प्रार्थना होती ना छुट्टी की घंटी। छुट्टी हुई और में घर आ गया पर आज मैंने यह ठान लिया था की अब मै विद्यालय में बैठ कर समय नहीं बिताऊँगा।
          अगली सुबह मैं विद्यालय पहुँचते ही अपने कार्य में लग गया। मैंने आते ही सभी बच्चों से कहा कि आप सभी सबसे पहले एक कतार बनाकर खड़े हो जाओ, आज से हम सभी  पढ़ाई से पूर्व प्रार्थना करेंगे। मैंने इंटरनेट की मदद से एक प्रार्थना खोजा और उसे ही पढ़ना शुरू किया जिसे सुनकर बच्चे भी पढ़ने लगे।समय बीतता गया मैंने अपने साथियों और इंटरनेट का सहारा लेकर रोज कुछ नया, बच्चों के बीच लाने लगा लेकिन विद्यालय में बच्चों की उपस्थिति कम होती जा रही थी। अब विद्यालय में बच्चों की उपस्थिति बीस से पचीस हीं रह गई थी । मैंने ऐसा महसूस किया मै शिक्षक नहीं बन सकता। मेरे अंदर ग्लानि की भावना उत्पन्न होने लगी थी। मैं जब भी बच्चो को कोई भी गृह कार्य घर से बनाकर  लेने को देता तो देखता अगले दिन वे बच्चे ही नहीं आए है अगर आए भी है तो उन्होंने घर पर कोई पढ़ाई नहीं कि है। मै एकांत में बैठकर अपने बचपन को याद किया करता था कि आखिर मै भी पढ़ने से दूर भागता था तो मैंने कैसे पढ़ाई की? मुझे याद आया कि जब भी मैं विद्यालय नहीं जाता या विद्यालय में दिया हुआ गृह कार्य नहीं करके लाता को मेरी खूब पिटाई होती। मैंने उसी प्रकार अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उन्हें विद्यालय में खूब पढ़ाता और उसमे से बच्चों को गृह कार्य भी देने लगा लेकिन बच्चों की रुचि बिल्कुल भिन्न थी। मैं उन्हें विद्यालय नहीं आने, गृहकार्य नहीं करने के कारण उनकी खूब पिटाई करता था । इससे बच्चों के अभिभावक काफी खुश होते थे और वे अपने बच्चों को विद्यालय आने को कहते थे। उन्हें लगता जो शिक्षक पिटाई कर सकते है वे हीं अच्छे शिक्षक हो सकते है।
          कुछ महीने तक तो ठीक रहा। बच्चे डर से विद्यालय तो आने लगे थे लेकिन उनमें पढ़ाई संबंधी कोई सुधार नहीं दिख रहा था। जब भी मौका मिलता बच्चे विद्यालय नहीं आने का बहाना ढूंढ लेते थे। धीरे-धीरे विद्यालय पुनः पहले के जैसा होने लगा था। बच्चों की उपस्थित मानों रोज घट रही हो। मुझे ऐसा लग रहा था कि एक अच्छा शिक्षक बनना मेरे वस में था ही नहीं। मैंने तो नौकरी छोड़ने तक की भी बात कर ली थी परंतु मेरे पापा ने मुझे यह कहकर नौकरी छोड़ने नहीं दी कि सरकारी नौकरी किस्मत वालों को मिलती है। अगर तुम कुछ सही नहीं कर पा रहे हो तो अपने से अनुभवी शिक्षकों की सहायता लो परंतु यह नौकरी तुम्हे नहीं छोड़नी चाहिए। मैंने पिताजी की बात मानी और फिर से अपने कार्य के बारे में सोचने लगा ।
          अचानक एक दिन मेरे प्रधानाध्यापक महोदय ने मुझसे कहा- आज आपको संकुल में एक दिवसीय उन्मुखीकरण कार्यशाला में जाना है। आप मैडम के साथ वहाँ चले जाइए। वहाँ मेरे जैसे कई अन्य विद्यालय से भी शिक्षक आए थे। हमारे संकुल समन्यक महोदय ने उन्मुखीकरण कार्यशाला में विद्यालय के संचालन हेतु काफी महत्वपूर्ण बिंदुओं को बताया  साथ ही  मेरे समस्या को जानकर उन्होंने मुझे प्रतिदिन अपने विद्यालय के पोषक क्षेत्रों का भ्रमण कर बच्चों के विद्यालय न आने की वजह जानने की सलाह दी। 
           अगले दिन मेरे कदम काफी उत्साह के साथ विद्यालय में पड़े।  मैंने बच्चों को प्रार्थना करने हेतु निर्देशित कर गाँव की ओर चल पड़ा। मुझे देख ग्रामीणों में मेरी खूब तारीफ की। मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था। मुझे लगा मै सच में शिक्षक बन जाऊँगा। लोग मेरी तारीफ कर रहे है। लेकिन ये तारीफ ज्यादा देर तक मुझे खुश नहीं रख सका। जब मैंने ग्रामीणों से उनके बच्चों को विद्यालय भेजने के बारे में कहा तो उनका जवाब बिल्कुल मेरी समझ से परे था। वे सभी विद्यालय में अपने बच्चो को इसलिए नहीं भेजना चाहते थे कि उन्हें लगता था उनके बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिलती। किन्हीं ने भी ये शिकायत नहीं की उनका बच्चा विद्यालय में कुछ सीखता नहीं है। किन्हीं को उनके बच्चों के भविष्य की चिंता ही नहीं थी। तभी बच्चों में 75% उपस्थिति वाले बच्चों के लिए छात्रवृत्ति का पैसा आया। मामला बिल्कुल ठीक नहीं था। विद्यालय में सिर्फ दो हीं बच्चे ऐसे थे जिन्होंने 75% कि उपस्थिति हासिल की थी। ऐसे हमारे प्रधानाध्यापक को बेहद चिंता हो रही थी क्या किया जाए? उन्होंने मुझे पास बुलाकर स्थिति से अवगत कराया। मैंने भी उन्हें बिना संकोच किए सिर्फ उन्हीं बच्चों के नाम ऊपर भेजने को कहा जो बच्चें 75% उपस्थिति हासिल कर पाए थे। ऊपर से छात्रवृति का पैसा आया और उन्ही 2 बच्चों के नाम से। इसपर सारे ग्रामीण काफी क्रोधित हुए। उन्होंने अपने बच्चों को विद्यालय आने से मना कर दिया। मैं रोज सुबह गाँव जाता और खाली हाथ लौट आता। तकरीबन एक महीने तक विद्यालय की यही स्थिति रही लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैं रोज़ जाता और उन्हें यह समझाते रहता कि आज से आप अपने बच्चों को भेजो इसबार जो 75% पूरा करेंगे उन्हें छात्रवृत्ति जरूरी मिलेगी। धीरे-धीरे मेरी बातों का असर होने लगा। लगभग एक महिने के बाद पुनः विद्यालय में बच्चें आने लगे। अबकी बार उनकी संख्या सौ से ऊपर होने लगी। मैंने अपना सारा ध्यान बच्चों को विद्यालय में खुश रखते हुए सीखने-सिखाने में लगाने लगा।  मैंने विद्यालय में तरह तरह के खेल कराने शुरू किए। बच्चों को अधिकतम समय "खेल-खेल में सीखने" हेतु नई-नई तकनीक की खोज में रहता था। बच्चों की उपस्थिति लगातार बढ़ने लगी थी। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर बच्चों में प्रतियोगिताएँ करवाए जाने लगे। मैं अपने घर से खेलने के कुछ सामान विद्यालय ले जाया करता था जिससे बच्चे बहुत खुश होते थे। मैंने वर्ग पाँच से पास हो चुके बच्चों हेतु प्रथम बार विद्यालय स्थानांतरण प्रमाण पत्र लाने को अपने प्रधानाध्यापक से अनुरोध की। उन्होंने भी मेरा भरपूर साथ दिया। अब बच्चे यहाँ से पास होकर अन्य विद्यालय भी जाने लगे थे। विद्यालय बिल्कुल अच्छा लगने लगा था। मैं बहुत  खुश रहने लगा। शायद सच में मैं शिक्षक बन गया था।  
     

पंकज कुमार
प्रा. वि. सूर्यापुर
अररिया

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