प्रेमचंद की रचनाओं में प्रासंगिक तत्व-चन्द्रशेखर प्रसाद साहु - Teachers of Bihar

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Friday, 31 July 2020

प्रेमचंद की रचनाओं में प्रासंगिक तत्व-चन्द्रशेखर प्रसाद साहु



प्रेमचंद की रचनाओं में प्रासंगिक-तत्व

          प्रेमचंद जन सरोकार के एक सशक्त रचनाकार थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नई परंपरा की शुरुआत की। उन्होंने हिंदी साहित्य को शास्त्रीय जटिलताओं से बाहर निकालकर जन साधारण की आवाज़ को बुलंद करने वाले मार्ग पर आगे बढ़ाया। उस काल में भी रचनाओ में शास्त्रीय गुणों से युक्त विलक्षण और शक्तिशाली को ही नायक बनाने की परंपरा का निर्वहण किया जा रहा था। तब प्रेमचंद ऐसे रचनाकारों की पंक्ति में पहले थे जिन्होंने अपनी रचनाओ में समाज के हासिए पर संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले साधारण व्यक्ति को अपना नायक बनाया और अपनी रचनाओ में उन्हें अहम स्थान दिया। ऐतिहासिक एवं पौराणिक पात्रों की उपेक्षा करना प्रेमचंद का यह एक साहसिक कदम था। हालांकि इसे लेकर उन्हें तीखे व्यंग का सामना करना पड़ा परंतु इस असाधारण इच्छा शक्ति वाले रचनाकार ने आम जनता के शोषित एवं कारुणिक जीवन को ही अपनी रचना का आधार बनाया।
          उन्होंने जीवन में गरीबी की त्रासदी को खुद भोगा था। गरीबी का जीवन कितना दुःखद होता है, एक -एक दिन तंगहाली में जीना कितना दूभर होता है। इस कारुणिक व्यथा का उन्होंने अपनी रचनाओ में गंभीरता  से वर्णन किया है। गरीबी की त्रासदी उनके रचनाओ में प्रमुखता से मिलता है। सेवासदन में सुमन या उसकी माता गंगाजली की गरीबी हो या कफन में घीसू और माधव की गरीबी ने उन्हें संवेदनहीन बना दिया था।
          प्रेमचंद की रचनाओ में जितने मुद्दे उठाए गए हैं ऐसा नही है कि वे मुद्दे आज समाज मे व्याप्त नहीं है। वे सारे मुद्दे आज भी समाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से  मौजूद है। जिस गरीबी का वर्णन उन्होंने यथार्थ रूप से किया था वह गरीबी आज भी व्यप्त है। शहर हो या देहात, नगर हो या क़स्बा हर जगह गरीबी में जीवन जीने को अभिशप्त परिवार आसानी से मिल जाते हैं। लकड़ी काटने व बेचने वाला परिवार, कूड़ा-कचरा चुनने वाला परिवार, शिलपट खोदने वाला व बेचने वाला परिवार, गंदगी साफ करने वाला परिवार, सूअर व बकरी चराने वाला परिवार। ऐसे कई परिवार हैं जो दो जून के भरपेट भोजन नहीं जुगाड़ कर पाते। इस डिजिटल इंडिया व स्मार्ट सिटी के युग में प्रवेश करने वाले समाज के माथे पर ये सब कलंक है।
          प्रेमचंद की कहानियों एवं उपन्यासों का पात्र जीवन मे जूझता, संघर्षशील व शोषित होता है परंतु वह अदम्य साहस से भरा होता है । उसमें जिजीविषा होती है। वह थक हार कर बैठ जाने वाला नहीं होता है। रंगभूमि का सूरदास हो अथवा गोदान का होरी व धनिया । सब के सब आशावादी है। कष्ट भोगते हुए भी उनमें जीवन जीने की ललक है। शोषित, उपेक्षित व प्रताड़ित होने के बाद भी उनमें सुख का सवेरा हासिल करने की उम्मीद  है। प्रेमचंद के पात्रों का यह सबसे सबल पक्ष है। वे निराश तो होते हैं पर उनकी यह हताशा क्षणभंगुर होती है। वह नई उम्मीद के साथ अपने कर्म क्षेत्र में कर्मवीर की भाँति डटे रहते है। आज का जीवन जटिल, कुंठित व निराशाजनक सा हो गया है। मनुष्य यंत्रवत अपना काम कर रहा है। काम का बोझ उसे जीने की डोर को अपने हिसाब से खींच रहा है। वह उसके पाश में बंधकर खिंचा चला जा रहा है। वह जी नही रहा है बल्कि अटपटे ढंग से जीने को विवश है। आंतरिक आनंद का स्रोत सूख गया है । आनंद व सुख की कृत्रिमता ने उसके चेहरे को बहुरूपिया बना दिया है। वह संवेदनहीन बन गया है। इसमें मानवीय मूल्य कब के तिरोहित हो चुके है। स्वार्थ परता व निजता का वह पाषाण मूर्ति सा बन गया है। प्रेम, सदाचार, सहयोग, नैतिकता, ईमानदारी जैसे गुणों का स्रोत मानो उसमें सूख गया है। धनार्जन कर व्यक्तिगत सुख हेतु संसाधन जमा करने की उसमे बस होड़ सी है। ऐसी कार्य संस्कृति में प्रेमचंद की रचनाओं की प्रासंगिकता बढ़ जाती है । कमीशनखोरी और मुफ्तखोरी की इस जड़ जमा चुकी अपसंस्कृति में प्रेमचंद की रचनाओं की उपयोगिता बढ़ जाती है। नमक का दारोगा प्रेमचंद की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। इसका मुख्य पात्र वंशीधर है जो अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान एवं ईमानदार है। यह कहानी सरकारी बाबुओं के लिए बहुत सी उपयोगी है। ऐसी ही एक अन्य कहानी है पंच परमेश्वर। आज जबकि पंचायती राज की संस्थाएं सफलतापूर्वक कार्य कर रही है इसके जन- प्रतिनिधयों को अलगू चौधरी एवं जुम्मन शेख के किरदारों को ईमानदारी से समझना होगा।
          प्रेमचंद की रचनाओं की मूल प्रवृतियों में शोषण भी मुख्य रहा है। शोषण के जितने भी आयाम हो सकते हैं वे सब उनकी रचनाओं में प्रमुखता से वर्णित है। ठाकुर का कुआँ  हो या सद्गति हो अथवा गोदान में पं. दातादीन एवं झिंगुरी सिंह हो, सब के सब जन-साधारण का भरपूर शोषण करते है। कोई धर्म का भय दिखाकर शोषण करता है तो कोई धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों के चक्कर मे फँसा कर शोषण करता है । कोई बेगारी करा कर शोषण करता है तो कोई एक ही लगान को कई  बार  वसूल कर तो कोई बेदखल करने की धमकी देकर। सभी शोषकों के शोषण करने के अलग-अलग हथकंडे है परंतु प्रेमचंद की रचनाओ के पात्र इतने सशक्त नहीं है कि वे इन शोषणों का प्रतिकार करे या संगठित हो कर इसका विरोध करे। उनपर समाज एवं धर्म  की परम्पराओं का इतना गहरा प्रभाव है कि वे चुपचाप खुशी-खुशी इस शोषण को सहते हैं। शोषण का खुला विरोध आखिर क्यों नही होता है? इन कारणों की गहरी पड़ताल प्रेममचंद की रचनाओ में की गई है। शोषण, दमन व अन्याय को चुपचाप सहने के कारण धार्मिक रीति रिवाज़ों, मान्यताओ व सामाजिक परम्पराओं का मकड़ जाल है जिससे बाहर निकलना सहज नही है।समाज मे जब तक गरीबी, शोषण, अन्याय व उत्पीडन रहेंगे तब तक प्रेमचंद की रचनाएँ प्रासंगिक रहेंगे। प्रेमचंद की रचनाओ में एक सामाजिक दृष्टि है। वह एक ऐसे समाज का निर्माण चाहते थे जिसमें समानता हो, सामाजिक न्याय हो, अमन-चैन हो, जातीय विद्वेष नहीं हो, ऊँच-नीच का भेदभाव, शोषण व उत्पीडन नहीं हो।स्त्रियाँ आत्म-निर्भर व सर्वदा सुरक्षित हो। उनकी रचनाएँ समाज को दिशा बोध कराने में सफल है। इस लिहाज से उनकी रचनाओं को नई पीढ़ी को पढ़ना एवं समझना आवश्यक है। 


चंद्रशेखर प्रसाद साहु
प्रधानाध्यापक
कन्या मध्य विद्यालय कुटुंबा
प्रखंड-कुटुंबा (औरँगाबाद)

4 comments:

  1. बहुत ही सुंदर तात्विक विवेचना👌👌🌹🌹

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  2. आपने बहुत ही सुंदर ढंग से प्रेमचंद जी की जीवनी को प्रस्तुत किया है।💐💐👌👌

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  3. आपने बहुत ही सुंदर ढंग से प्रेमचंद जी की जीवनी को प्रस्तुत किया है।💐💐👌👌

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  4. आपने बहुत ही सुंदर ढंग से प्रेमचंद जी की जीवनी को प्रस्तुत किया है।💐💐👌👌

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