प्रेमचंद-सिन्धु कुमारी - Teachers of Bihar

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Friday 31 July 2020

प्रेमचंद-सिन्धु कुमारी

प्रेमचंद
             प्रेमचंद आधुनिक युग के एक महान गद्य लेखक थे जिन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक आदि गद्य की अनेक विधाओं में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 ई॰ में वाराणसी के समीप स्थित किसी लमही नामक गांँव में हुआ था। इनके बचपन का नाम 'धनपत राय श्रीवास्तव' तथा पिता का नाम 'मुंशी अजायव राय' था।
          आरंभ में ये उर्दू में 'नबाब राय' के नाम से लिखा करते थे। प्रेमा और वरदान उनकी उर्दू की दो रचनाएँ हैं। इसी दौर में उनका पाँच उर्दू कहानियों का एक संग्रह सोजे वतन नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी सारी कहानियाँ राष्ट्रीयता तथा देशप्रेम से ओत-प्रोत थी किन्तु अंग्रेज अधिकारियों को इसमें विद्रोह की आहट सुनाई दी और इसके सभी 500 प्रतियों को जप्त कर नष्ट करवा दिया। यद्यपि उक्त संकलन की सभी 5 कहानियाँ तत्कालीन उर्दू पत्रिका जमाना में प्रकाशित हो चुकी थी। इस घटना के बाद इन्हें अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा शख्त चेतावनी दी गई कि वे आगे से ऐसी रचनाएँ नहीं करेंगे अन्यथा उन्हें जेल भेज दिया जाएगा। तब जाकर उन्होंने अपने एक अज़ीज़ मित्र और जमाना पत्रिका के संपादक की सलाह पर हिन्दी में प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। तब से लेकर अब तक उन्होंने करीब 300 कहानियों की रचना की जो मानसरोवर के 8 खंडों में संकलित है। सौत उनकी पहली हिन्दी कहानी है तथा कफन अंतिम 8 उपन्यासों की रचना की जिसमें सेवासदन उनका पहला हिन्दी उपन्यास है तथा गोदान अंतिम। इसके अतिरिक्त 3 नाटकों संग्राम, कर्बला और प्रेम की वेदी की रचना की और कई लेख भी उन्होंने हिन्दी में लिखा। चूँकि प्रेमचंद को सर्वाधिक लोकप्रियता कहानी और नाटकों में मिली है इसलिए उनका मूल्यांकन के लिए उनकी कहानी और उपन्यास हीं पर्याप्त होंगे।
          हिन्दी गद्य साहित्य में प्रेमचंद का आगमन उसके लिए साधारण विकास क्रम न होकर एक छलांग है। उनसे पूर्व हिन्दी गद्य अपने शैशव काल में था जिसमें आदर्श, कल्पना और रोमानियत के तत्व हावी थे।नैतिकतावादी और सुधारवादी चेतना उसमें घूली-मिली थी। प्रेमचंद के आगमन ने इसे बहुत हीं कम समय में यथार्थ के ठोस एवं खुरदुरी भूमि प्रदान कर दिया। हिन्दी गद्य साहित्य के विकास में प्रेमचंद के योगदान को दो भागों में बाँटकर देखना युक्तियुक्त होगा। पहला भाग 1910 ई॰ से 1925 ई॰ तक और दूसरा 1925 ई॰ से 1936 ई॰ तक। आरंभ में वे पूर्णतः आदर्शवाद से प्रभावित थे। 1925 ई॰ के बाद की रचनाओं में उनका आदर्शवाद से मोह भंग होता हुआ दिखाई देता है और अपनी अंतिम रचना गोदान तक आते-आते वे पूर्णतः यथार्थवादी हो जाते हैं।
            उनके पहले चरण के गद्य साहित्य उनके आदर्शवाद की मान्यताओं से प्रभावित है। भारतीय संस्कृति की महानता, गांँधीवादी विचारधारा, हृदय परिवर्तन जैसी मूल्यों में आस्था और संयुक्त परिवार जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं आदि के आधार पर उनके पहले चरण के गद्य निर्मित हैं। उदाहरण के लिए-
1. पंच परमेश्वर- पंच परमेश्वर उनका उस दौर की सबसे महत्वपूर्ण कहानी है जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि पंच ईश्वर के प्रतिनिधि होते हैं और यह सिद्ध किया कि भारत की परम्परागत न्यायप्रणाली अंग्रेजों की न्यायप्रणाली से कहीं बेहतर है।
2. बड़े घर की बेटी - यह भी उस दौर की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है जिसके माध्यम से प्रेमचंद ने संयुक्त परिवार में आस्था  व्यक्त की है। इसमें आनंदी नामक नायिका केन्द्रीय चरित्र में है जो संयुक्त परिवार की रक्षा के लिए अपने देवर के द्वारा किए गए अपमान को भूलने की कोशिश करती है।
3. मंत्र - यह एक डाॅक्टर के हृदय परिवर्तन की कहानी है जिसमें एक डाॅक्टर जो टेनिस खेलते समय एक गरीब परिवार के बच्चे का इलाज करने से मना कर देते हैं किन्तु बाद में जब डाॅक्टर के बच्चे को साँप काट लेता है तो वही गरीब व्यक्ति उसे बचाता है।
4. मुक्तिपथ और बूढ़ी काकी ये दोनों कहानियाँ भी उसी दौर के हैं। मुक्तिपथ में एक अपराधी का हृदय परिवर्तन दिखाया गया है जबकि बूढ़ी काकी में एक वृद्धा की दुर्दशा दिखाकर उसकी बहू का हृदय परिवर्तन के साथ कहानी का अवसान होता है।
5. सेवासदन - सेवासदन उनका उस दौर का एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें वे वेश्यावृत्ति की समस्या पर विचार करते हैं। इसके केन्द्रीय चरित्र सुमन के माध्यम से उन्होंने दिखाया है कि किसी स्त्री की वेश्यावृत्ति अपनाने के पीछे दहेज प्रथा तथा पति के द्वारा तिरस्कारपूर्ण तथा क्रूर व्यवहार जैसे कारण जिम्मेदार हैं। स्त्री के सामने दो हीं विकल्प बचते हैं- या तो वो आत्महत्या कर ले या वेश्या बन जाए। प्रेमचंद ने इसमें वेश्याओं को समाज के मुख्य धारा में लौटाने के लिए सेवासदन की स्थापना का विकल्प प्रस्तुत किया है जो उनका शुरूआती आदर्शवाद से प्रभावित है।
6. प्रेमाश्रम - इस उपन्यास में प्रेमचंद ने ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जमींदारों और किसानों के संबंधों का चित्रण किया है। ब्रिटिश शासन ने किस प्रकार जमींदार और साहूकार वर्ग को अपना सहायक बनाया हुआ था! इसी शोषणकारी संबंध का पर्दाफाश इस उपन्यास में किया गया है। इसका नायक प्रेमशंकर नामक युवक है जो उच्च वर्ग से संबंध रखता है। उसपर आधुनिक समतावादी विचारों का इतना गहरा असर होता है कि वह किसानों के हित में अपना अधिकार त्याग देता है और ग्राम सेवा में अपना जीवन व्यतीत करने लगता है। यह समाधान कुछ काल्पनिक प्रतीत होता है। वस्तुतः आरंभिक दौर में प्रेमचंद पर आदर्शवाद का गहरा प्रभाव था जो इसमें परिलक्षित होता है।
7. रंगभूमि - यह 1925 ई॰ में प्रेमचंद द्वारा लिखा गया उपन्यास है जिसमें पूंँजीवाद या महाजनी सभ्यता के साथ भारतीय गांँवों की शुरुआती टकराहट को प्रस्तुत किया गया है। इसमें विदेशी पूँजीवाद के साथ-साथ स्वदेशी पूँजीवाद के आंतरिक शोषणधर्मी चरित्र का खुलासा किया गया है। इसका नायक सूरदास, गाँधीवादी मूल्यों का प्रतिनिधि है जो औद्योगिकीकरण के विरूद्ध सत्याग्रह छेड़ता है। अपने मानवीय अधिकारों और सत्य के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। भगतसिंह, विनय और महेंद्र तीनों सामंती चरित्र हैं और तीनों हीं स्वाधीनता संग्राम से जुड़े हैं। इनके माध्यम से प्रेमचंद ने स्वाधीनता संग्राम के वर्गीय चरित्र का प्रश्न उठाया है। रंगभूमि के कुछ आलोचकों ने इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास का दर्जा भी दिया है।
            प्रेमचंद के गद्य रचना का दूसरा चरण 1925 ई॰ के आसपास शुरू होता है। यहाँ भी वे मुख्यतया आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का ढ़ाँचा हीं स्वीकारते हैं किन्तु यहाँ से आदर्शवाद का तत्त्व कम होने लगता है और यथार्थवाद हावी हो जाता है। इस दौर की कई रचनाओं में साफ नजर आता है कि गाँधीवाद और हृदय परिवर्तन जैसी आस्थाओं से उनका मोहभंग होने लगा था और अब वो यथार्थ को उसके पूरे नंगेपन के साथ देखने को तैयार थे। इस दौर की कुछ प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
1. अलगयोझा - इसमें संयुक्त परिवार के टूटने की त्रासदी तथा जी-तोड़ मेहनत करनेवाले गरीब व्यक्ति की दुर्दशा का चित्रण किया गया है। यहाँ आदर्शवाद पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है कयोंकि अंततः संयुक्त परिवार के मूल्यों को हीं स्थापित किया जाता है।
2. सदगति - इस कहानी में प्रेमचंद ने दलित समस्या के सभी पक्षों जैसे- शोषण, अस्पृश्यता और बेगार का वर्णन किया है। इसमें वह दिखाते हैं कि किस प्रकार पंडित जी के घर बेगार करते हुए दुःखी चमार की मृत्यु हो जाती है।
3. शतरंज के खिलाड़ी - यह नबाब वर्ग की निष्क्रियता पर व्यंग्य करने वाली कहानी है। इसमें दिखाया गया है कि दो नबाब शतरंज के वजीर के लिए प्राण दे देते हैं किन्तु अपने बादशाह की त्रासदी को अपनी आँखों से देखकर भी कुछ नहीं करते।
4. पूस की रात - यह प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों में अत्यंत प्रसिद्ध है। इसमें दिखाया गया है कि गरीब किसान को अपनी फसल की रक्षा के लिए अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जबकि उच्च वर्ग के लोग बिना कठोर मेहनत के भी आरामदायक जीवन जीने में सफल हो जाते हैं।
5. कफ़न - यह कहानी प्रेमचंद के यथार्थवादी कहानियों का चरम स्तर है। इसमें दो पात्रों के माध्यम से वह दिखाते हैं कि गरीब व्यक्ति अपनी भूख के कारण इतना संवेदनहीन हो सकता है कि उसे अपने निकटतम व्यक्तियों की मृत्यु भी उसे विचलित न करे। इसका चरम स्तर वहांँ उभरता है जहाँ कफ़न के लिए इकट्ठे किये गये पैसों पर भी पेट का भूख ज्यादा भारी पड़ता है।
6. निर्मला - 1927 ई॰ में लिखे गए इस उपन्यास में उदयभान लाल नामक एक व्यक्ति अपनी बेटी की शादी अच्छे परिवार में करना चाहता है किन्तु उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो जाती है और निर्मला की शादी तीन बच्चों के बूढ़े बाप तोताराम से कर दी जाती है। यह शादी सफल नहीं हो पाती। तोताराम के बड़े बेटे मंशाराम और निर्मला में प्रेम की भावना पनपती है। बाप और बेटे में ईर्ष्या पैदा होती है बेटे उदण्ड हो जाते हैं और गृहयुद्ध जैसी स्थिति पनपती है। इस उपन्यास में प्रेमचंद यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि अनमेल विवाह परिवार की व्यवस्था को भीतर से तहस-नहस कर देता है।
7. गबन - 1930 ई॰ में प्रेमचंद का लिखा इस उपन्यास का नायक रामनाथ मध्यमवर्गीय युवकों का प्रतिनिधि है जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है किन्तु आकांक्षाएँ ऊंँची और रंगीन है। उसकी पत्नी जलपा यद्यपि बहुत अच्छी नारी है किन्तु आभूषणों के प्रति उसका गहरा लगाव है। रामनाथ एक बार अपनी पत्नी के गहनों की अभिलाषा पूरी करने के लिए सरकारी विभाग में गबन करता है और पकड़ा जाता है। प्रेमचंद इस उपन्यास के माध्यम से यह दिखाना चाहते हैं कि अनियंत्रित आकांक्षाएँ कैसे व्यक्ति के लिए घातक सिद्ध होती है।
8. गोदान - इस उपन्यास का प्रकाशन 1936 ई॰ में हुआ। चूंँकि यह एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है इसीलिए इसमें सम्पूर्ण भारत की तत्कालीन सभी समस्याएँ एक साथ आ गई हैं। जैसे- होरी के माध्यम से ऋण की समस्या, सोना और रूपा के माध्यम से दहेज-प्रथा' की समस्या, थानेदार के माध्यम से रिश्वतखोरी की समस्या, नौहरी के माध्यम से अनमेल विवाह की समस्या, झुनिया के माध्यम से वैधव्य की समस्या प्रस्तुत किया गया है।
            प्रेमचंद की रचनाएँ अपने सामाजिक यथार्थ को इतनी प्रमाणिकता से प्रस्तुत करते हैं कि डाॅ रामविलास शर्मा को कहना पड़ा- यदि 1916 से 1936 ई॰ तक का भारतीय इतिहास नष्ट हो जाए तो उसे प्रेमचंद की रचनाओं के आधार पर अधिक प्रमाणिक तरीके से लिया जा सकता है। प्रेमचंद का साहित्य के क्षेत्र में योगदान यहीं तक सीमित नहीं है। उन्होंने हिन्दी गद्य साहित्य की अल्पविकसित परंपरा को नये स्तरों पर संबोधित व परिमार्जित भी किया। उनके योगदान का आकलन उन परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में हीं किया जा सकता है -
1. उद्देश्य के क्षेत्र में - प्रेमचंद से पहले गद्य साहित्य मुख्यतया मनोरंजन या उपदेश देने के उद्देश्य से लिखे जाते थे। उन्होंने जासूसी और तिलस्मी साहित्य की मनोरंजन प्रधानता पर चोट करते हुए दावा किया कि साहित्य का उद्देश्य केवल समाज का मनोरंजन करना नहीं अपितु उसके आगे मशाल लेकर चलना है। उनका ऐसा मानना था कि जो साहित्य केवल मनोरंजन के उद्देश्य से रचे जाते हैं उनका महत्त्व दो कौड़ी का है। उनके अनुसार उपदेश देना भी साहित्य के उद्देश्य की दृष्टि से पर्याप्त नहीं। साहित्य का सही उद्देश्य यह है कि सामाजिक समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाए और जटिल सामाजिक स्थितियों में उलझे मानवीय चरित्रों का सूक्ष्म उद्घाटन किया जाए।
2. विषय-वस्तु की दृष्टि से - अगर बात कहानियों की की जाए तो प्रेमचंद से पूर्व कहानियाँ कुछ हीं विषयों पर लिखी जा रही थीं। उसमें विषय वैविध्य नहीं था। अधिकांश कहानियांँ नवजागरण के आदर्शों से प्रेरित होने के कारण नारी-सुधार, बाल-सुधार जैसे विषय केन्द्र में रहे और अगर उपन्यासों की बात की जाए तो प्रेमचंद से पूर्व के उपन्यासों की विषय-वस्तु कल्पना और रोमांच से निर्मित होती थीं जिसे प्रेमचंद ने नकार दिया। उनका ऐसा मानना था कि साहित्यकार को विषय-वस्तु सामाजिक यथार्थ से लेनी चाहिए। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाएँ सामाजिक समस्याओं के इर्द-गिर्द हीं अपना कथानक बुनते हैं। उदाहरण के लिए- बूढ़ी काकी में वृद्धों की समस्या है तो ईदगाह में बच्चों की समस्या। पूस की रात और गबन में गरीबी की समस्या है तो सदगति में दलित समस्या। अलगयोझा में परिवार टूटने की समस्या है तो नया विवाह और निर्मला में अनमेल विवाह से उत्पन्न पारिवारिक विघटन की समस्या। गुल्ली-डंडा में मनुष्य की सहजता छिनने की समस्या है तो शतरंज के खिलाड़ी में  चुभता हुआ राजनीति पर व्यंग्य। सेवासदन में वेश्यावृत्ति की समस्या है तो गबन में अनियंत्रित लालसाएँ। कर्मभूमि और प्रेमाश्रम किसानों से संबंधित है तो रंगभूमि में पूँजीवाद के हाथों ग्रामीण अर्थव्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने की समस्या। गोदान चूँकि महाकाव्यात्मक उपन्यास है इसीलिए उसमें ये सभी समस्याएँ एक साथ आ गई हैं।
शिल्पगत परिमार्जन

1. शिल्प की दृष्टि से प्रेमचंद ने सबसे बड़ा परिवर्तन पात्रों या चरित्रों के संयंत्र पर किया है। उनसे पूर्व की रचनाएँ चरित्र की दृष्टि से अत्यंत कमजोर थीं। उदाहरण के लिए तिलस्मी या ऐय्यारी उपन्यासों के चरित्र अति प्राकृतिक थे तो जासूसी उपन्यासों के चरित्र असाधारण थे। उपदेशात्मक उपन्यासों के चरित्र साधारण मनुष्य तो थे किन्तु वह एक आयामी थे यानि सिर्फ अच्छे या बुरे।प्रेमचंद ने कृत्रिम चरित्रों की संरचना को ध्वस्त कर उसे नए तरीके से व्यवस्थित किया जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ थीं- 
क. उन्होंने पात्रों की भीड़ इकट्ठी नहीं की। उतने हीं पात्र रखे जितने जरूरी थे। उन्होंने इन चरित्रों को महत्त्व के आधार पर रचना में हिस्सा दिया।
ख. उनका हर चरित्र वास्तविक मनुष्यों की तरह अच्छाई और बुराई का मिश्रण है, सिर्फ अच्छा या बुरा नहीं।
. चरित्रों की विशेषताएँ वे सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर प्रस्तुत करते हैं लेकिन चरित्रों के निजी व्यक्तित्व को भी खारिज नहीं करते।
घ. चरित्रों की मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता के वर्णन की दृष्टि से तो उनके उपन्यास अद्वितीय हैं।
ङ. इन्होंने पहली बार चरित्रों को लेखकीय नियंत्रण व हस्तक्षेप से मुक्त किया। इस संदर्भ में प्रेमचंद के आलोचकों में एक कथन प्रसिद्ध है- प्रेमचंद अपने आरंभिक रचनाओं में अपने पात्रों से फुसफुसाते नजर आते हैं।
च. कुल मिलाकर प्रेमचंद ने महाकाव्यों के उदात्त नायकों की परम्परा को पूरी तरह से नकार कर होरी जैसे साधारण किसानों को नायकत्व प्रदान किया जो कि समाज के आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है।
          प्रेमचंद अपनी रचनाओं में पात्रों को कितना महत्व देते हैं इसका अनुमान उनके इस कथन से लगाया जा सकता है- मैं चरित्रों को अपने बच्चों के समान समझता हूँ व उनकी शुरुआती परवरीश भी करता हूँ किन्तु किसी पिता के समान यह नहीं कह सकता कि वह आगे चलकर कैसे बनेंगें।
2. प्रेमचंद ने हिन्दी गद्य साहित्य की भाषा को भी संशोधित किया। उनसे पहले की रचनाओं में सहज व साधारण भाषा नहीं दिखती। इसका मुख्य कारण यह है कि-
क. उनसे पहले खड़ी बोली स्वयं संक्रमण के दौर से गुजर रही थी।
ख. आरंभिक लेखक कृत्रिम और लच्छेदार भाषा के माध्यम से प्रभाव जमाने की कोशिश करते थे।
ग. कुछ लेखक (जैसे- राजा लक्ष्मण सिंह) हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ (तत्समीकरण) बनाने में तुले थे तो कुछ (जैसे- राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद) हिन्दी के फारसीकरण पर अमादा थे। 
          प्रेमचंद ने भाषा को आतंक का नहीं सम्प्रेषण का माध्यम बनाया और  गाँधी की भाषा संबंधी मान्यताओं को सिद्ध करते हुए दिखा दिया कि कैसे बिना फारसीकरण या बिना तत्समीकरण किए ठेठ हिन्दी भाषा भी साहित्य की समृद्ध भाषा बन सकती है। 
          कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने हिन्दी गद्य साहित्य की अल्पविकसित परंपरा को बहुत हीं कम समय में परिपक्वता के चरम तक पहुँचा दिया। जो विकास साधारण गति से संभवतः एक शताब्दी में होता उन्होंने दो दशकों में हीं सम्पन्न कर दिखाया। उनके इन्हीं सब योगदानों और  विशेषताओं से प्रभावित होकर आलोचकों ने उन्हें कलम का सिपाही, कलम का जादूगर और उपन्यास सम्राट आदि उपनामों से संबोधित किया है।

सिन्धु कुमारी
देवनन्दन इण्टर विद्यालय जहानाबाद

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया लेख । मुंशी प्रेमचंद के विषय में नई जानकारियाँ मिलीं ।

    आभार

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