Saturday, 1 August 2020
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रटना नहीं है समझना-अमरेन्द्र कुमार
रटना नहीं है समझना
शिक्षा के परिपेक्ष के मुद्दों पर आम सहमति का ना होना सामान्य सी बात है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि किन मुद्दों पर समझौता हो सकता है और किस पर नहीं। आमतौर पर देखा गया है कि शिक्षा में काम करने वाले लोगों के बीच कुछ विषयों को लेकर एक स्तर की सहमति है और कुछ विषयों पर लगातार विचार मंथन चलता रहता है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करते हुए शिक्षा दर्शन की जटिल बातों को साधारण शब्दों में समझने का प्रयास जारी रहना आवश्यक है। यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत समाज किस प्रकार से वस्तु परख समझ में बदले तभी इसे सार्थक प्रयास माना जा सकता है। वैसे व्यक्तिगत आपत्तियाँ और चर्चा के लिए शिक्षा दर्शन में हमेशा से ही जगह रही है और रहनी भी चाहिए। यह संदर्भ देना उचित इतना भर है कि जो लोग शिक्षा के क्षेत्र में कुछ कार्य कर रहे हैं, इसे और आगे नए मुकाम पर देखने का सपना देखते हैं उन्हें भी अपनी व्यक्तिगत समझ से आगे बढ़ने के लिए तैयार रहना होगा।
पिछले कुछ वर्षों में शैक्षिक मुद्दों पर विचार विमर्श एवं बहसों में एक मुद्दा जो ज्वलंत रहा है, वह है तंत्र प्रणाली एवं समझकर सीखना। बहुत से लोग रटने को सीखना मान लेते हैं। कुछ लोग रटने को सही मानते हुए पहाड़े का उदाहरण देते हैं। इस पर विस्तार से बात करने की जरूरत है लेकिन अभी इसे बहुत अलग रखना ठीक होगा या बात भी अक्सर की जाती है कि हम भी इसी तरह सीखे। अगर हम इस प्रकार की शिक्षा से निकली तमाम त्रुटियों पर बात करें तो उससे बात और स्पष्ट हो जाती है। मुद्दा यह है कि शिक्षा में काम करते हुए हम यह समझें कि हमें उन चीजों को बेहतर करना है जिन पर तमाम बहसों और लोगों और वैज्ञानिक अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि इससे बेहतर विकल्प है या फिर हम अपनी संस्कृति और परंपरा का बोझ ढोते रहें जिससे गुजरकर हम आज यहाँ तक पहुँचे हैं । विज्ञान एवं तकनीक का विकास भी इस बात को पुष्ट करता है कि अगर शिक्षा को बेहतरी की ओर ले जाना है तो बेहतर विकल्प चुनने होंगे।
रटंत प्रणाली ऐसी सांस्कृतिक धरोहर है जिससे पार पाने में हम हिचकिचाते हैं। इसके पक्ष में तर्क देते हैं और इसपर समालोचनात्मक बात को सुनने के लिए भी तैयार नहीं होते हैं। सीधे शब्दों में, रटना उस पद्धति को कहते हैं जिसमें हम किसी और धारणा को बिना समझे बस याद कर लेते हैं और उसके इस्तेमाल परीक्षा में पूछे गए सीधे सवालों में कर लेते हैं। ऐसी जानकारी से किसी नई अवधारणा का निर्माण नहीं होता और न ही उसे किसी व्यवहारिक काम में इस्तेमाल करने का रहता है । उसकी कोशिश तो दूर की बात है। उदाहरण के लिए रसायन विज्ञान का कोई सूत्र हमने रटकर याद कर लिया या गणित का कोई सूत्र जिसका इस्तेमाल पुस्तक में दिए गए सवालों के हल के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं उसे भी रट लिया। शिक्षाविदों का मानना है कि रटने की प्रक्रिया से कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होता है या बहुत कम होता है और जब एक अंतराल के पश्चात जाने-अनजाने कुछ समझ विकसित हो भी जाती है तो यह पता नहीं चलता कि वह कैसे हुई। हम ज्ञान के निर्माण में सवाल जवाब तर्क-वितर्क द्वारा एक समय तक पहुँचने के सफर के बारे में सोच भी नहीं पाते। हम उस बात को शब्दों में व्यक्त भर कर सकते हैं या लिखकर एक पन्ने पर उतार लेते हैं । इसके कारण ही आप अधिकतर पाएँगे कि अगर सवाल को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है तो छात्र जवाब देने में हिचक जाते हैं। अध्यापक या पढ़ाने वाले के लिए यह समझना भी मुश्किल होता है कि जो उन्होंने पढ़ाया छात्र समझ पाए हैं कि नहीं क्योंकि इस पर चर्चा परिचर्चा करने की भी हमारी संस्कृति नहीं है।
आरंभ में स्कूल में बच्चों के अंदर एक उत्सुकता होती है। वह सवाल पूछता है और अपने इर्द-गिर्द से सीखने का प्रयास करता है। शायद ऐसा ही कुछ हमारे घर और समाज में भी होता है। जब बच्चों को तवज्जो दी जाती है और बच्चों को सहजता को माहौल मिलता है जिसमें वह कुछ खोजने की कोशिश करता है। स्वयं को समझने का प्रयास करता है। लेकिन जब बच्चे किशोरावस्था में पहुँचते हैं तो वातावरण बदला सा नजर आता है । हम उनसे बहुत उम्मीदें तो करने लगते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि हम उनके बचपन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। इसका परिणाम यह होता है कि बहुत बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं और समाज में सार्थक तौर पर रहने की दक्षताएँ विकसित नहीं कर पाते।
सोचने का विषय यह है कि जो बचपन इतने अच्छे माहौल में आरंभ हुआ ऐसा क्या हुआ कि ऐसे परिणाम देखने को मिलते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्कूल में होने वाले प्रक्रियाओं में ही कोई कमी है। शिक्षाविदों की तरफ से एक प्रयास लगातार चलता रहा है कि स्कूल के अनुभवों को किस प्रकार से बेहतर बनाया जाए। एक तबके से यह भी मांग आती है कि जैसा पहले होता था वैसा ही शिक्षा की प्रक्रिया होनी चाहिए। इसमें फेल करने से लेकर बच्चों को डर के साथ सिखाने जैसे आग्रह भी शामिल होते हैं। यहाँ यह सवाल उठता है कि वे कौन सी प्रक्रियाएँ हैं जिनसे शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर रखने की संस्कृति को कम से कम किया जा सके। एक उदाहरण से समझते हैं- कुछ वर्ष पहले मैं एक ऐसे विश्वविद्यालय में गया जहाँ इस प्रकार के रटंत र्प्रोसेस को तवज्जो नहीं दी जाती थी। शुरुआती दिनों में हमें पढ़ने के लिए कुछ रीडिंग दी जाती थी और फिर कुछ बुनियादी सवालों पर चर्चा परिचर्चा होती थी। इस प्रकार की प्रक्रिया हमें बिल्कुल नागवार गुजरती थी और हमें यह समझने में कुछ समय लग गया कि यहाँ सिर्फ याद करके काम नहीं चलेगा बल्कि समझना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा और उसे व्यवहारिक तरीके से जीवन के संदर्भ में जोड़कर विचार विमर्श करना होगा। जैसे जैसे इस बात पर समझ बढ़ती गई यह महसूस हुआ कि कितना अच्छा हो अगर शिक्षा के सफर में शुरू से ही ऐसा अधिक से अधिक मौके मिले। लेकिन यह भी सत्य है कि हमारे कक्षा कक्षों में जो संस्कृति है वह स्वच्छंद सीखने को प्रसारित नहीं कर पाते। शिक्षक और छात्र का संबंध छात्र पर नियंत्रण का है। नियंत्रण और सुशासन छात्रों में एक प्रकार की शंका को जन्म देता है जिसमें छात्र इसके मनोवैज्ञानिक निदान के लिए शिक्षक का ध्यान पाना चाहते हैं और ज्ञान के निर्माण की बजाय चुपचाप आने वाली प्रतियोगिता उत्पन्न होती है जिससे हम जीवन भर जूझते रहते हैं । जब तक कोई कुछ करने के लिए कहे नहीं हम इंतजार करते रहते हैं । शिक्षा के मुख्य मानक सीखने की क्षमता और ज्ञान सीखने के प्रति अनुराग का विकास, सीखने सिखाने की प्रक्रिया से होना संभव नहीं दिखता है। यदि हमें शिक्षा के मूल उद्देश्य को प्राप्त करना है तो रटंत प्रणाली के बदले सोच-समझकर सीखने की प्रक्रिया को अपनाना पड़ेगा।
अमरेंद्र कुमार
प्राथमिक विद्यालय भईया टोला
दरिहट रोहतास
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बहुत-बहुत सुन्दर!
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