एक समालोचात्मक समीक्षा।
पूजा का साधारण अर्थ है,अपने "ईष्ट के प्रति भाव का समर्पण"।जैसी मेरी सोच है कि हमलोग किसी भी प्रकार का उत्सव,पूजा या त्योहार मनाते हैं वह सामाजिक मनोरंजन,सांस्कृतिक रीति-रिवाज, आत्मसंतुष्टि,जीवन के तनाव से मुक्ति हेतु।लेकिन आज के परिवेश में अन्य पूजा के साथ- साथ"सरस्वती पूजा"जो कि विशेष रूप से विद्यार्थी अपने जीवन में अधिक-से-अधिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये माता से आराधना करते हैं।
शिक्षा जो कि जीवन का एक "अनमोल रत्न"है के बिना संसार में किसी भी रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकती है,जिसके लिये शिक्षार्थी "मन-ही-मन"माता की आराधना करते हैं,जिसके वर्त्तमान परिवेश को देखकर मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ कि आज इस पूजा की व्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आता हुआ नजर आ रहा है। समय अपनी अनवरत गति से बदलता जा रहा है और बदलना भी चाहिये,क्योंकि"परिवर्तन ही संसार का नियम है "लेकिन" सुन्दर, खुबसूरत,जीवन को सुख,समृद्धि, अमन-चैन,समस्याओं से मुक्ति दिलाने वाली माता स्वरूपा किसी अमूर्त चीज को"शीलभंग"होने से तो बख्श दीजिये।
मेरा यह आलेख"सरस्वती पूजा, आज के बदलते परिवेश में "समाज की बदलती हुई परिस्थितियों पर आधारित है,जहाँ अन्य त्योहारों की तरह"सरस्वती पूजा"भी आज किसी देवी की मूर्ति का शीलभंग करने वालों के निशाने पर चढ़ चुका है। जहाँ तक मेरे सोच की बात है कि हमारे जैसे समाज के प्रबुद्ध जन नौनिहाल बच्चों की आड़ में उन बच्चों के जीवन को तबाह करने के चक्कर में पड़े हुये हैं।ऐसा देखा जाता है कि बहुत सारे शैक्षणिक संस्थानों में तो शैक्षणिक तथा सामाजिक परिवेश सामाजिकता के दायरे में रहकर माता की पूजा अर्चना की गई तथा ससमय मूर्ति का विसर्जन भी किया,लेकिन अधिकतर मूर्ति विसर्जन की प्रक्रिया को आज के बदलते हुये परिवेश में "डी•जे•"के धुन पर मस्ती लेते हुये अल्लहड़ पन का नजारा दिखाते हुये समाज के नौनिहाल बच्चों ता राहगिरों को भी बेदर्दी के साथ परेशान करते हुये भी देखा जाता है।बहुत जगहों में अप्रिय घटनाओं को भी अंजाम देने की कोशिश की जिसका जीता जागता प्रमाण बहुत सारे जगहों में देखने को मिला।
अंत में,मुझे लगता है कि आप जीवन में मस्ती लीजिये,क्योंकि यदि जीवन में आपने ऐश-मौज मस्ती नहीं किया तो फिर जीवन जीने का मजा ही नहीं आयेगा।इन सभी चीजों के साथ -साथ कम-से-कम समाज की भावी पीढ़ी तथा नौनिहाल बच्चों को बख्श दीजिये,क्योकि ये बच्चे ही कल के भविष्य हैं।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद" शिक्षाविद,भलसुंधिया,गोड्डा
(झारखंड)
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