Wednesday 12 June 2024
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क्या है शिक्षा? जे. कृष्णमूर्ति के नजर में...
"शिक्षा को हमें समझदार, अयान्त्रिक और बुद्धिमान होने में सहायक होना चाहिये।" -जे.कृष्णमूर्ति
जिद्दू कृष्णमूर्ति की गणना आधुनिक युग के श्रेष्ठ विचारकों में होती है। शिक्षा से संबंधित जो उनके विचार हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। उनके विचार क्रांतिकारी थे। उन्होंने प्रत्येक प्रकार की बाह्य प्रामाणिकता का विरोध किया, फिर चाहे वह व्यक्ति की हो या पुस्तक की हो। वह यथार्थ ज्ञान के पक्ष में थे। यथार्थ ज्ञान से उनका अभिप्राय ' सत्य' के ज्ञान से था और इस सत्य तक पहुंचने का साधन उन्होंने शिक्षा को माना है। उनका मानना था कि इस सत्य अथवा यथार्थ तक व्यक्ति स्वयं ही अपने प्रयास से पहुंच सकता है ना कि व्यक्ति, ग्रंथ या पुस्तक के माध्यम से। यह तो सिर्फ उनका मार्गदर्शन ही कर सकते हैं। प्रयत्न तो व्यक्ति को स्वयं ही करना होगा। कृष्णमूर्ति अपने समय के शिक्षा के प्रचलित ढांचे से सहमत नहीं थे। उसे दोषपूर्ण मानते थे क्योंकि उनके अनुसार इसमें बालकों को केवल ज्ञान अर्जन कराया जाता है। ज्ञान को ढूंसा जाता है, परंतु जीवन में आने वाली चुनौतियों, परिस्थितियों में इस ज्ञान का उपयोग करना नहीं सिखाया जाता। छात्रों की भावनाओं एवं समस्याओं का ध्यान नहीं रखा जाता। प्रचलित शिक्षा बुद्धि का विकास करना नहीं सिखाती। वह ऐसी शिक्षा के पक्ष में थे,जो छात्रों में ना केवल ज्ञान अर्जन कराएं बल्कि संसार की ओर वस्तुगत तरीके से देखना भी सिखाएं। जिससे छात्र भौतिक जीवन की समस्याओं का समाधान कर सके।
आज का युवा शिक्षित होकर अच्छी नौकरी प्राप्त करता है और उसमें आगे तरक्की पाने के लिए प्रयास करता रहता है, ऊपर उठने के लिए भाग दौड़ करता रहता है। नौकरी प्राप्त करके भी इसे खोने का भय बना रहता है। यह संघर्ष और भय जीवन भर चलता रहता है। शिक्षा का कार्य व्यक्ति को इस भय से मुक्ति दिलाना होना चाहिए। कृष्णमूर्ति के अनुसार, शिक्षा का अभिप्राय केवल पढना,लिखना, परिक्षाएं पास करना, तथा नौकरी प्राप्त करने तक सीमित नहीं है बल्कि इससे बहुत अधिक व्यापक है। उनका मानना था कि वर्तमान समय में तकनीकी शिक्षा का महत्व बहुत बढ़ गया है, जो केवल रोजगार दिला सकती है। जीवन को समझने की क्षमता प्रदान नहीं करती। जीवन में भावनात्मक पक्ष को समझना बहुत आवश्यक है। रोजगार के लिए शिक्षा तो शिक्षा का एकांकी पक्ष है जबकि शिक्षा का उद्देश्य बालक का समग्र एवं सर्वांगीण विकास करना है।जीवन में आने वाली इन सभी समस्याओं का अपने विवेक से डटकर सामना करने के लिए समर्थ बनाने के लिए शिक्षित करना ही शिक्षा का कार्य होना चाहिए। यही वास्तविक शिक्षा है। उनके अनुसार आज की शिक्षा सिखाती है, ' क्या सोचना ' चाहिए, बल्कि यह सिखाया जाना चाहिए कि ' कैसे सोचना ' है। जीवन की समस्याओं को कैसे सोचा और समझा जाएं, जिससे जब वह विद्यालय छोड़े तो इस योग्य बन सकें कि जीवन का सामना कर सकें। जीवन को देख सकें, समझ सकें। शिक्षा में सीखना के साथ साथ समझना और जानना भी शामिल हैं।
वास्तव में कृष्णमूर्ति परंपरा और परंपरागत शिक्षा के विरुद्ध नहीं थे बल्कि वे तो केवल यह चाहते थे कि शिक्षा का लक्ष्य बालक को भविष्य के लिए पूर्ण रूप में तैयार करना हो। कृष्णमूर्ति के शब्दों में, " शिक्षा को तुम्हें एक पूर्णतया, मित्र बुद्धिमता पूर्ण तरीके से संसार का सामना करने में सहायता करनी चाहिए।"
उनके अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिसमें बालक को पूर्ण स्वतंत्रता हो। शिक्षा ऐसी हो जो छात्रों को पूर्ण अवसर उपलब्ध कराएं जिससे बालक अपने आप को अभिव्यक्त कर सकें। पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ अवलोकन भी कर सके। एक शिक्षित व्यक्ति को इस संसार में बुद्धिमता और समझदारी का जीवन जीना चाहिए।
जे. कृष्णमूर्ति के शिक्षा के स्वरूप को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है
(1) सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान
कृष्णमूर्तिजीके अनुसार बालक की शिक्षा में सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिकता भी होनी चाहिए। बल्कि व्यवहारिक ज्ञान सैद्धांतिक ज्ञान की तुलना में अधिक होना चाहिए और दोनों पक्षों में सामंजस्य होना चाहिए क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य मानव के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समस्याओं का समाधान करना है, इसलिए शिक्षा व्यवस्था में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों का समावेश होना बहुत आवश्यक है। ऐसी शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए जो क्रियात्मक पक्ष से संबंधित हो। किसी भी विधि, ज्ञान, व्याख्यान एवं पुस्तक का अंधानुकरण नहीं करें, बल्कि प्रयोग की कसौटी पर परखकर उसका उपयोग करना चाहिए।
(2) चिंतन एवं तर्कशक्ति का विकास
उनके अनुसार यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति बाह्य बुद्धि के द्वारा संभव नहीं हो सकती। अंत: पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा छात्रों को ऐसे व्यावहारिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए जिससे उनमें स्वयं चिंतन, तर्क एवं ध्यान के अवसर उपलब्ध हो सके। उनमें चिंतन शक्ति एवं कल्पना शक्ति का विकास हो सके। जिससे भविष्य में वह स्वयं अपनी व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान एवं निराकरण कर सकेगें। वास्तविक ज्ञान वह है जो जीवन को उसकी समग्रता में देखना एंव समझना सिखाएं।
(3) आध्यात्मिक विकास
शिक्षा के उद्देश्य में बालकों का आध्यात्मिक विकास बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनके अनुसार, " अन्त: मन का ज्ञान ही शिक्षा है। अपने आप को समझना ही शिक्षा का आरंभ और अंत भी है।" शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सत्य चेतना की अनुभूति करना है। व्यक्ति को सत्य चेतना की प्राप्ति के लिए शिक्षा को पूर्ण सहयोग देना चाहिए जिससे बालकों में आध्यात्मिक उन्नति एवं विकास हो।
(4) नैतिक एवं मानवीय मूल्यों का विकास
कृष्णमूर्ति के अनुसार बालकों में शिक्षा द्वारा ऐसी गतिविधियों का समावेश होना चाहिए, जिससे उनमें नैतिकता, मानवीय मूल्यों एवं आदर्शों का विकास हो सकें, क्योंकि नैतिक एवं मानवीय मूल्यों से उनमें व्यावहारिक जीवन में समायोजन करने की क्षमता उत्पन्न होगी तथा तभी वह कर्तव्य और अकर्तव्य को पहचान सकता है।
(5) हिंसा का उन्मूलन
कृष्णमूर्ति समाज में व्याप्त हिंसा से बहुत दुखी थे। शिक्षा के माध्यम से वह समाज में व्याप्त हिंसा एवं अराजकता का उन्मूलन करना चाहते थे। आत्म ज्ञान के माध्यम से बालक में अहिंसक गतिविधियों का उदय तथा हिंसक गतिविधियों का उन्मूलन होता है। जब मानव संसार में फैली अव्यवस्था के प्रति जागरुक हो जाता है, तो वह मुक्त हो जाता है और यही वास्तविक शिक्षा है। अतः प्रारंभ से ही बालकों का पालन पोषण, सही शिक्षा, सही प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, जिससे वह हिंसा की बजाय अपने विवेक से कार्य कर सकें।
(6) संपूर्ण एवं सर्वांगीण विकास
उनके अनुसार शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बालक का पूर्ण रूप से सर्वांगीण विकास करना होना चाहिए अर्थात बालक का चहुंमुखी विकास करना।बालक में शिक्षा के माध्यम से व्यापक दृष्टिकोण विकसित किया जाना चाहिए, क्योंकि संकीर्ण भावना एवं विचारों से उसका सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। जीवन के प्रत्येक स्तर पर विकास करने के लिए बालकों में प्रारंभ से ही व्यापक दृष्टिकोण का विकास होना बहुत आवश्यक है, तभी उसका संपूर्ण सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। उनका मानना था कि शिक्षा का मूल उद्देश्य, "एक संतुलित मानव का विकास करना है, जो जीवन का अर्थ ढूंढ सकें, उसे समझ सकें तथा जो वैज्ञानिकता, बुद्धि तथा आध्यात्मिकता में समन्वय स्थापित कर सकें।
(7) शिक्षा मित्र रुप में
जे. कृष्णमूर्ति का मानना था कि शिक्षा का स्वरूप एक ऐसे मित्र के रुप में होना चाहिए जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत मानव के कल्याण एवं विकास के अवसर प्रदान करती रहे। इसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा छात्रों पर बोझ के रूप में या थोपी हुई नहीं होनी चाहिए बल्कि शिक्षा का स्वरूप सरल , सहज ,सामान्य तथा बालक की रूचि के अनुरूप होनी चाहिए। भय, दंड आधारित शिक्षा सिखने में बाधा उत्पन्न करती है, इससे बालक की जिज्ञासा, चिंतन, विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब तक किसी व्यवस्था के प्रति हमारी रुचि एवं आकांक्षा नहीं होगी उसको प्राप्त करने के लिए किए गए सभी प्रयास क्षणिक और अस्थाई होंगे। इसका कोई उचित अर्थ नहीं होगा। शिक्षा ऐसी हो जो बालक को भय और दबाव से निकलने में सहायता कर सकें। इसलिए बालक बहुत ही सहजता से तथा रूचि के अनुसार शिक्षा ग्रहण करें, तभी शिक्षा बालक के लिए एक मित्र के रुप में कार्य कर सकती है।
(8) सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण
कृष्णमूर्ति जी के अनुसार शिक्षा का स्वरूप हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप होना चाहिए तभी हमारे सांस्कृतिक मूल्य सुरक्षित रह सकते हैं। अन्यथा हमारी प्राचीन, समृद्ध शिक्षा प्रणाली धीरे धीरे समाप्त होती जाएगी। विश्व पटल से लुप्त हो जाएगी।
अतः कृष्णमूर्ति जी शिक्षा को बालक के सर्वांगीण विकास हेतु बहुत उपयोगी मानते थे। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जो कि नैतिकता, मानवीय मूल्य, व्यवहारिकता एवं आध्यात्मिक विकास के गुणों से युक्त हो तथा जीवन के यथार्थ को स्वयं अपनी आंखों से देखते हुए अपने बुद्धि एवं विवेक के अनुसार समझ कर स्वयं कार्य कर सके।
"निश्चित रूप से सारी शिक्षा व्यर्थ साबित होगी यदि वह इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन को, इसके समस्त रहस्यों को, इसकी अद्भुत रमणियताओ को, इसके दुखों और हर्षो को समझने में आपकी सहायता ना करें।"……जे.कृष्णमूर्ती
साभार -dr.rekha sukhwal(विदुषी शिक्षाविद्)
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