भारतीय संवत्सर के आषाढ़ शुक्लपक्ष पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। आज ही के दिन महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। इसलिए आज के दिवस को व्यास पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है । हमारे देश में परमेश्वर को परमगुरु कहा गया है। गुरु को भगवान से भी ऊपर माना गया है। शास्त्रों में गुरु की वन्दना इस प्रकार की गयी है- गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवोमहेश्वर:। गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
कबीरदास जी ने लिखा है- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय।
बाबाजी लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने लिखा है, "प्रथम देव गुरुदेव जगत् में, और न दूजो देवा। गुरु पूजे सब देवन पूजे गुरु सेवा सब सेवा ।।
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा का अद्वितीय स्थान है। भारतीय संस्कृति में 'गुरु' शब्द की व्याख्या करते हुए बताया गया है- 'गु' का अर्थ अंधकार और 'रु' का अर्थ प्रकाश। जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए, वही 'गुरु' है ।
भारतीय संस्कृति में आदिगुरु भगवान शिव ने दक्षिणामूर्ति के रूप में ऋषि-मुनियों को शिव-ज्ञान प्रदान किया था, उन्हें ही स्मरण रखते हुए आज के दिन गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। आदि शंकराचार्य जी ने दक्षिणामूर्ति(भगवान शिव) स्तोत्र की रचना भी की है, जिसमें उन्होंने एक पंक्ति के रूप में लिखा है, चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धा: शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशया:।। अर्थात् "आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाषा में है, किन्तु उसी से शिष्यों के संशय नष्ट हो गये हैं ।" गुरु का यह भी एक कर्त्तव्य है कि वह अपने शिष्यों के समस्त संशयों को नष्ट करने का प्रयत्न करे और जिज्ञासाओं को शान्त करे। आज का यह दिन सभी आध्यात्मिक गुरूजनों और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित है ।
भारतवर्ष में शिक्षा विशेषतया वैदिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक शिक्षा की प्राप्ति पर विशेष जोर दिया जाता था।गीर्वाण भारती का भण्डार शत शत ग्रंथों, काव्य-रत्नों से परिपूर्ण है- वेद, वेदांग, वेदान्त, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत, आदि प्रमुख हैं । हमारे ग्रंथों में गुरु-शिष्य परम्परा का उल्लेख स्पष्ट रूप से मिलता है । उपनिषदों की कथाएँ विशेष रूप से भारत के गुरु-शिष्य परम्परा का सर्वश्रेष्ठ दृष्टांत हैं। हमारे यहाँ उपनिषदों की संख्या 108 है, जिसमें मुख्य 11 उपनिषद हैं। उपनिषद का शाब्दिक अर्थ 'गुरु के समीप बैठना' होता है। 11 उपनिषदों पर आदि शंकराचार्य ने भी भाष्य लिखा है।स्वामी विवेकानंद ने भी उपनिषदों की अपने ढंग से व्याख्या की है। उपनिषद की कथाओं में गुरु अपने शिष्यों को आत्मतत्व का बोध कराते थे। वे अपने शिष्यों को ये बताते थे कि तुममें ही ब्रह्म अर्थात् ईश्वर का अंश व्याप्त है - तत्त्वमसि(तत् त्वम् असि अर्थात् तुम ही वह यानि ब्रह्म हो।) आज भी गुरु का रूप शिक्षकों ने ले लिया है । शिक्षक आज भी अपने छात्र-छात्राओं को उनमें छिपे गुणों, प्रतिभाओं और उनके vision को उन्हें बताते हैं। यह शिक्षक का दायित्व भी है। यह दिखाता है कि शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने छात्रों को विषय-ज्ञान के साथ उसके गुणों को उसे दिखा दे, वह स्वयं बेहतर होकर और बेहतर करते चले जाएगा। उपनिषद के कुछ वाक्य अत्यंत प्रेरक हैं। कठोपनिषद का यह वाक्य उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।(उठो, जागो और श्रेष्ठता को प्राप्त करो)। यह कार्य अत्यंत कठिन है, किन्तु सफलता दुर्गम पथों पर चलकर ही मिलती है, ऐसा विद्वज्जन बोलते हैं। इसी वाक्य को स्वामी विवेकानन्द ने आंग्लभाषा में अनुदित कर लिखा है, Arise, awake and stop not till the goal is reached.(उठो, जागो और लक्ष्य-प्राप्ति तक रुको मत।) कठोपनिषद में यमराज नचिकेता को कहते हैं, 'यह शरीर रथ है, आत्मा स्वामी है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है और इन्द्रियाँ घोड़े हैं।' यानि सारथी(बुद्धि) ठीक है तो सबकुछ ठीक है। व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि बुद्धि-शक्ति के द्वारा अपने मन को शुभ संकल्पों, शुभ विचारों, शुभ कर्मों व उच्च लक्ष्यों की ओर प्रवृत्त करे । निरंतर अभ्यास और सही दिशा में सतत प्रयास की ओर लगाए। मुंडकोपनिषद का यह वाक्य सत्यमेव जयते नानृतम् ।(सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं।) प्रसिद्ध है। आज भी विद्यार्थियों को सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं या यों कहें हम श्रेष्ठ विषय-वस्तु और तथ्यों पर तभी चिंतन और कार्य पूर्ण क्षमता के साथ कर सकते हैं, जब हम सभी प्रकार की संकीर्णताओं यथा, काम, क्रोध, मद, लोभ, जातिवाद-सम्प्रदायवाद, अस्पृश्यता, भ्रष्टाचार, दुराचार, बुरे विचार, बुरे कार्यों आदि इन सभी से बहुत ऊपर उठ जाएँ। तभी हम श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर विषयों पर चिंतन एवं कार्य करके मानव समाज के हित में कुछ प्रदान कर सकते हैं तथा अपने विद्यार्थियों को कुछ प्रदान करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद का यह वाक्य असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माSमृतं गमय ।।(असत् से सत् की ओर, तम यानि अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।) उपनिषदों तथा अन्य भारतीय ग्रंथों में गुरु की सेवा और आज्ञा-पालन पर विशेष जोर दिया गया। आज भी शिक्षकों का आदर करना अनुशासन का अंग है । सफलता के सभी कारणों में शिष्य का शिष्ट ब्रह्मचारी यानि सच्चरित्र रहना और गुरु की आज्ञा के सर्वतोभावेन पालन को महत्त्वपूर्ण माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है- मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥ (माता, पिता, गुरुजनों की आज्ञा को बिना विचार मान लेना चाहिए, इसी में पुत्र या शिष्य का कल्याण है। वास्तव में, माता, पिता एवं गुरूजन अपने पुत्र या शिष्य अकल्याण की बात स्वप्न में भी नहीं कह सकते।) सत्यकाम का चरित्र यह बताता है कि सच्ची शिक्षा प्रकृति के निकट ही प्राप्त होती है ।
श्रीमद्भगवद्गीता भगवानश्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकला है। इसे सभी उपनिषदों का सार कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह महाभारत के भीष्मपर्व से लिया गया है।श्रीमद्भगवद्गीता जैसा उपदेश देने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण को जगद्गुरु की संज्ञा दी गयी है- कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्। इसे भी ब्रह्मविद्या कहा गया है। अच्छी शिक्षा और ज्ञान जहाँ से भी प्राप्त हो, अवश्य ग्रहण कर लेनी चाहिए- सेवा करके, चरणों में बैठकर भी ले लेना चाहिए। इस वाक्य पर सभी ग्रंथ एकमत हैं। गुरु-शिष्य परम्परा का एक से एक दृष्टांत हमारे ग्रंथों में भरा पड़ा है। समय पर शिक्षा-प्राप्ति एक परम आवश्यक कर्त्तव्य है। श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी गुरुकुल जाकर शिक्षा ग्रहण किया था।
पुरातन समय में आध्यात्मिक शिक्षा और ब्रह्म विद्या पर विशेष जोर दिया जाता था और उसे ही व्यवहार में उतारा जाता था। जिसमें यह दिखाया जाता था कि आपके भीतर ब्रह्म व्याप्त है, अद्भुत क्षमता और प्रतिभा है और किसी प्रकार के दोष और दुर्बलता की बात नहीं की जाती है। गुरु के वचनों पर शिष्य की श्रद्धा उसे बहुत ऊपर तक ले जाती थी, कदाचित् ईश्वर से भी साक्षात्कार करा देती थी। पहले हम अध्यात्म से विज्ञान की ओर बढ़ते थे और आज, हम यह कह सकते हैं अध्यात्म विज्ञान से बहुत आगे हैं, किन्तु अध्यात्म की सत्यता तक पहुँचना विज्ञान का ही कार्य है और विज्ञान इस कार्य में लगा है। मेरे विचार से अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक-दूसरे से जुड़ा है। दोनों का कार्य एक-दूसरे की सहायता से होता है । आज हमें दोनों ही चाहिए- आध्यात्मिक ऊर्जा और वैज्ञानिक प्रतिभा। दोनों को ही जन-कल्याण की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इन दोनों के मेल से भारत को उच्च से उच्चतर शिखर तक पहुँचा सकते हैं। आध्यात्मिक ऊर्जा व आध्यात्मिक शक्ति के लिए हमें उच्च से उच्चतर नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्श को आत्मसात् करने की आवश्यकता है।
प्राचीन समय के गुरु-शिष्य परम्परा में गुरु का चरित्र, व्यक्तित्व व कृतित्व इतना उदात्त और श्रेष्ठ होता था कि शिष्य उनके सान्निध्य से ही ज्ञान प्राप्त करने लगते थे ।
गुरु के ज्ञान, व्यक्तित्व व कृतित्व का प्रभाव शिष्य पर पड़ता है ।
आज के समय में शिक्षा का स्वरूप बदल गया है। आज का समय अर्थ यानि धन का समय हो चुका है। यूँ कहें कि शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों में एक अर्थोपार्जन हो गया है। तदनुरूप आध्यात्मिक गुरूजनों की जगह अकादमिक शिक्षकों ने ले लिया है, जिनका यह कर्त्तव्य है कि विषय-ज्ञान के साथ-साथ अपने छात्रों में आर्थिक रूप से स्वावलंबी के skill develop कराएँ। शिक्षा का प्रथम उद्देश्य स्वावलंबी बनना, फिर उनके भीतर श्रेष्ठ नैतिक मूल्यों का विकास करना, विषय-ज्ञान, कैरियर के क्षेत्र में ऊँचा से ऊँचा स्थान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना, फिर अपने कार्यों द्वारा राष्ट्र-हित एवं मानव समाज के हित में कुछ प्रदान करना इत्यादि ।
अकादमिक शिक्षकों के बहुत सारे गुण हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं- विषय-ज्ञान की गम्भीरता(content knowledge), सम्प्रेषण कौशल(communication skill) और शिक्षण शास्त्र(Pedagogy). शिक्षक वह है, जो मस्तिष्क के बन्द दरवाजे को खोल दे। शिक्षक छात्रों को विषय-ज्ञान देने के साथ-साथ उनका vision उन्हें बताते हैं। उनके दोष की जगह उनके गुण उन्हें दिखाते हैं, जिससे बेहतर होकर और बेहतर करते चला जाता है। शिक्षक कभी छात्रो की श्रद्धा को नष्ट करने का प्रयत्न नहीं करते। वे अपने छात्र-छात्राओं को आधुनिक से आधुनिक चीजों के प्रति भी अद्यतन कराने का प्रयत्न करते हैं। शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वे सभी छात्रों को समान दृष्टि से देखे, किन्तु back benchers पर विशेष ध्यान दे। शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वे छात्रों को उनके स्तरों से ऊपर तो ले जाएँ, किन्तु नीचे कदापि नहीं। शिक्षक व्यक्तित्व, कृतित्व, विषय-ज्ञान, आदर्श व यथार्थ द्वारा छात्र-छात्राओं के हृदय में अमिट स्थान बना लेते हैं। छात्र-छात्राओं के द्वारा प्राप्त स्नेहिल सम्मान उनकी बहुत सारी उपलब्धियों में एक उपलब्धि है। शिक्षक यह सदैव स्मरण रखे कि विद्यार्थियों के प्रदर्शन पर ही उनकी और संस्थानों की छवि निर्भर करती है।
आदर्श छात्र कैसे होते हैं? गुरु शिष्य परम्परा का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा। महर्षि वशिष्ठ ने शिक्षारंभ के समय एक बात श्रीराम से कही थी- "राम ! मुझमें जो भी सद्गुण हो, उसे ग्रहण कर लेना। जो दुर्गुण हो, उसे वहीं छोड़ देना अर्थात् न तो उसे ग्रहण करना, न उसकी चर्चा करना।" आदर्श छात्र अपने शिक्षकों के सद्गुणों और विषय-ज्ञान को ग्रहण अवश्य करते हैं, किन्तु उनके दोषों की ओर देखते भी। आदर्श छात्र वह है, जो हर परिस्थिति में जहाँ से भी सीखना चाहता है, सीखता है। शिक्षक का भी यह कर्त्तव्य है कि वे अपने शिष्यों को सदैव कुछ नया सीखने के लिए प्रेरित और आगे बढ़ने के लिए सदा प्रोत्साहित करे।
आदर्श छात्र के गुणों में अनुशासन, निरंतर अभ्यास, सही दिशा में सतत प्रयास, पुनराभ्यास(revision), जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना, स्वाध्याय(self-study), आगे बढ़ने की ललक, पढ़ाई के प्रति लगन आदि आता है। आदर्श 'कल कर लेंगे' और 'बाद में कर लेंगे' इन शब्दों का प्रयोग करने के बजाय आज का काम आज ही समाप्त करते हैं। वे शिक्षकों के द्वारा पढ़ाए गए तथ्यों को उसी दिन घर पर देखते हैं और उस पर विचार करते हैं।
भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा के सर्वथा-सर्वदा प्रासंगिक रत्नों को आज भी आत्मसात् करने की नितांत आवश्यकता है। भारतीय मनीषियों के द्वारा दी गयी उन शिक्षाओं और शिक्षा-पद्धतियों को जो आज भी विद्यार्थियों के लिए और मानव समाज के लिए हितकारी व कल्याणकारी हो, को अपनाने की आवश्यकता है।
गिरीन्द्र मोहन झा,
+2 शिक्षक, भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर - पड़री, सहरसा
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