भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा और आज की अकादमिक शिक्षा-व्यवस्था में साम्य - Teachers of Bihar

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Saturday 20 July 2024

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा और आज की अकादमिक शिक्षा-व्यवस्था में साम्य


भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा और आज की अकादमिक शिक्षा-व्यवस्था में साम्यता 


भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा का विशेष स्थान रहा है। परमेश्वर को परमगुरु कहा गया है। गुरु को भगवान से भी ऊपर माना गया है। पुरातन काल में गुरु का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना उदात्त होता था, उनके सान्निध्य से भी लाभ होता था। जैसा कि दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में आदि शंकराचार्य ने लिखा है- चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धा: शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशया:।। (आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु(भगवान शिव) युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाषा में है, किन्तु उसी से शिष्यों के संशय नष्ट हो गये हैं।) आज शिक्षा का स्वरूप बदलने पर आध्यात्मिक गुरुजनों की जगह अकादमिक शिक्षकों ने ले लिया है। इनका भी यह कर्त्तव्य है कि वे अपने छात्रों के संशयों का नाश करे और उनके जिज्ञासाओं को शान्त करे । 

भारतीय संस्कृति के सभी ग्रंथों विशेषतया उपनिषद में गुरु-शिष्य परम्परा का विशेष उल्लेख है । उपनिषद का अर्थ ही होता है- गुरु के समीप बैठना। उपनिषद में गुरु अपने शिष्यों को ब्रह्मबोध कराते हैं- तत्त्वमसि(तत् त्वम् असि ) तुम ही वह अर्थात् ब्रह्म हो, अर्थात् तुममें ही पूर्ण क्षमता, अद्भुत प्रतिभा है । दोष-दुर्बलता की लेश-मात्र भी बात नहीं। आज के अकादमिक शिक्षकों का भी यह कर्त्तव्य है, छात्रों के गुणों को, प्रतिभाओं को, vision को उसे दिखा दे, वह स्वयं बेहतर होते और बेहतर करते चला जाएगा, दोष-कमी-दुर्बलताओं को न दिखाएँ।

कठोपनिषद में यमराज नचिकेता को कहते हैं, "शरीर रथ है, आत्मा स्वामी, बुद्धि सारथी, मन लगाम और इन्द्रियाँ घोड़े हैं ।" यदि सारथी-बुद्धि ठीक है, तो सबकुछ ठीक है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपनी बुद्धि के द्वारा अपने मन को शुभ संकल्पों, शुभ विचारों, शुभ कर्मों, उच्च आदर्शों, उच्च लक्ष्यों की ओर प्रवृत्त करे ।

इस वाक्य पर सभी ग्रंथ एकमत हैं कि अच्छी शिक्षा अथवा ज्ञान जहाँ से भी प्राप्त हो- सेवा करके, चरणों में बैठकर भी अवश्य ले लेनी चाहिए ।

श्रीमद्भगवद्गीता को सभी उपनिषदों का सार कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। ऐसा उपदेश देने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण को जगद्गुरु कहा गया है- कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।

शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने छात्रों की श्रद्धा नष्ट न करे, वे अपने छात्रों को उनके स्तरों से ऊपर ले जाएँ, नीचे कदापि न ले जाएँ। सदैव विषय-ज्ञान के साथ आधुनिक और व्यवहारिक चीजों से अद्यतन(updated) कराएँ । वे सदैव अपने छात्रों को कुछ नया सीखने, नया करने, प्रतियोगी परीक्षाओं, कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करे। प्राचीन ऋषियों का कहना था, 'हम नाश करने नहीं आये हैं। जो पहले से है, उसे पूर्ण बनाने आये हैं।' शिक्षक अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से अब भी छात्र-छात्राओं के हृदय में अमिट व सुन्दर छाप छोड़ते हैं। आज का युग अर्थयुग है। शिक्षकों का यह भी कर्त्तव्य है कि वे आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने के लिए भी skill develop कराएँ । 

अब मैं शिष्य या छात्र की बात करना चाहूँगा। गुरु-शिष्य परम्परा का एक दृष्टांत है- शिक्षारंभ के समय महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम से कहा था, 'राम ! मुझमें जो सद्गुण हो, उसे ग्रहण कर लेना, जो दुर्गुण हो, उसे वहीं छोड़ देना, अर्थात् न उसे ग्रहण करना और न उसकी चर्चा करना।' आदर्श छात्र अपने शिक्षकों से सद्गुण और ज्ञान तो ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु निंदा नहीं करते। शिक्षा-अन्त के समय महर्षि वशिष्ठ ने कहा, 'गुरु दक्षिणा के पश्चात् अब मुझसे मुक्त हो, अब तुम अपने कर्त्तव्य-पथ पर अपने विवेक से निर्णय ले सकते हो।' किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने अपने राम आदि का आवश्यकता पड़ने पर पग-पग पर मार्गदर्शन किया । शिष्य(छात्रों) का पूर्ण रूप से विकास गुरु(शिक्षक) से अलग होकर अपने कर्म-क्षेत्र में होता है, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर अब भी गुरु अथवा शिक्षकों का मार्गदर्शन प्राप्त होते रहता है। आदर्श छात्र वह होता है जो हर परिस्थिति में जहाँ से भी हो, सीखना चाहता है। कठोपनिषद में एक शब्द 'श्रद्धा' आती है। पहले के समय में शिष्य का गुरु पर और गुरु-वचनों पर श्रद्धा बहुत ऊपर तक ले जाती थी, इतना तक कि ईश्वर से भी साक्षात्कार करा देती थी, उन्हें अपने ही भीतर ब्रह्मबोध या आत्मतत्व का ज्ञान करा देती थी। वे अपने भीतर की आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास कर बहुत आगे बढ़ते थे। छात्रों के सफलता के पीछे बहुत सारे कारकों के साथ शिष्य का शिष्ट-ब्रह्मचारी अर्थात् सच्चरित्र रहना एवं गुरु की आज्ञा का सर्वतोभावेन पालन को महत्त्वपूर्ण माना जाता था। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ।।(माता, पिता, गुरुजनों की आज्ञा-पालन बिना विचार करने पर भी पुत्र या शिष्य का कल्याण ही होता है, क्योंकि माता, पिता, गुरु पुत्र या शिष्य के अकल्याण की बात स्वप्न में भी नहीं कह सकते ।)

अपने छात्र या शिष्य को स्वयं से भी ऊपर जाते देखकर तब और अब भी शिक्षकों को हार्दिक प्रसन्नता और गर्व की अनुभूति होती है ।

पहले अध्यात्म से विज्ञान की ओर बढ़ते थे। आज के समय में अध्यात्म विज्ञान से बहुत आगे है, किन्तु अध्यात्म की सत्यता तक पहुँचना विज्ञान का ही कार्य है और विज्ञान इस कोशिश में लगा है ।

आज भी हमारा यह कर्त्तव्य है कि भारतीय संस्कृति के गुरु-शिष्य परम्परा के सर्वदा-सर्वथा प्रासंगिक मूल्यवान रत्नों को आत्मसात् कर अकादमिक शिक्षा में उसका प्रयोग करे।आध्यात्मिक ऊर्जा और वैज्ञानिक प्रतिभा दोनों को साथ लेकर ही हम भारत को चरम शिखर तक पहुँचा सकते हैं और मानव समाज के हित में बहुत कुछ प्रदान कर सकते है|


गिरीन्द्र मोहन झा, +2 शिक्षक, +2 भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा ।

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