रक्षाबंधन: स्नेह-बंधन या अर्थ-बंधन - देव कांत मिश्र 'दिव्य' - Teachers of Bihar

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Monday 19 August 2024

रक्षाबंधन: स्नेह-बंधन या अर्थ-बंधन - देव कांत मिश्र 'दिव्य'


नेह सूत्र पावन शुभद, भ्रात बहन का पर्व।

प्रेमिल बंधन में छुपा, सम्यक संस्कृति गर्व।।

 हमारा देश भारत धर्म व संस्कृति प्रधान देश है। यहाँ के वासी परस्पर प्रेम व सौहार्द से पर्व को मनाते हैं। एक दूसरे की रक्षा में खुलकर सहयोग करना, परोपकार, एकता व स्नेह की डोर में बँध जाना यहाँ के जनों की विशेषता है। गुरुजनों, अबलाओं तथा निर्बलों की रक्षा करना तो हमारी संस्कृति का मुख्य तथ्य रहा है। रक्षा- बंधन का मूल भाव हमारी संस्कृति के इसी तथ्य से जुड़ा हुआ है। यथार्थ के धरातल पर देखा जाए तो पता चलता है कि इतिहास की प्रत्येक कड़ी के साथ इस पर्व का स्वरूप भी बदलता गया है। क्या ऐसा लगता है कि इस पर्व की मात्र औपचारिकताएँ हीं तो नहीं रह गईं हैं?

रक्षाबंधन का अर्थ: रक्षाबंधन शब्द 'रक्षा' और 'बंधन' से मिलकर बना है जिसका सामान्य अर्थ है - सुरक्षा बंधन, स्नेह का पुनीत बंधन। रक्षा सूत्र न केवल धागा या डोर है अपितु यह भाई-बहन के पवित्र नेह का बंधन है। जहाँ एक तरफ यह दायित्व निभाने का बंधन है वहीं दूसरी तरफ बहन भी भाई की लम्बी उम्र हेतु उपवास रखती है। गौरतलब है कि रक्षा-बंधन ‌बँध जाने वाला व्यक्ति अपने प्राणों को संकट में डालकर भी राखी की लाज रखता था। मध्यकालीन इतिहास में ऐसे कई उदाहरण परिलक्षित होते हैं। हुमायूंँ ने रक्षा सूत्र की लाज रखी। चित्तौड़ की महारानी कर्णावती की राखी प्राप्त कर अपने सैनिकों के विरोध के बाबजूद उसने गुजरात के मुसलमान शासक के, जो चित्तौड़ पर आक्रमण करने आया था, दाँत खट्टे कर दिए। इस तरह उसने धर्म- बहन की रक्षा की। ज्यों-ज्यों समय आगे बढ़ा, भाव-विचार बदलते गए। एक बात दीगर है कि पहले रक्षा- सूत्र बँधवाने हेतु क्षत्रिय राजा या जमींदार ब्राह्मणों के पास जाते थे और आशीष पाते थे परन्तु वर्तमान में रक्षा- बंधन बाँधने के लिए ब्राह्मण क्षत्रिय राजाओं या जमींदारों के पास आते हैं। यही तो बंधन का बदलता हुआ स्वरूप है। आज अर्थ-बंधन ही सबसे बड़ा बंधन बन गया है। साथ ही सारे बंधन इसके सामने कमजोर पड़ गए हैं। चाहे पिता-पुत्र का बंधन हो या भ्रात- बहन का या यजमान-पुरोहित का- सभी अर्थ-बंधन में जकड़े हुए हैं। सच कहा जाए, अर्थ के सामने श्रद्धा-भक्ति, कर्त्तव्य- सभी निष्प्राण हो गए हैं। पुरोहित आज यजमान के हाथ में रक्षा-सूत्र बाँधकर उनसे 'कुछ पैसे प्राप्त हो', की उम्मीद करते हैं, रक्षा की नहीं। बहनें तो भाईयों से आज भी रक्षा की आशा रखती हैं परन्तु कुछ भाई ही अपनी बहनों की रक्षा कर पाते हैं।

अर्थात् समय बदला, लोगों की मानसिकताएँ बदलीं। यों तो वर्तमान युग, अर्थ- युग है तथापि हमें आपसी वैर-भाव, राग-द्वेष को त्यागकर परस्पर शांति, सद्भाव व प्रेम की डोर पकड़नी चाहिए और दानवता रूपी दरिंदों को नष्ट कर मानवता की राह अपनानी चाहिए और अपने देश की बहनों व बेटियों की रक्षा करनी चाहिए तभी इस पर्व की सार्थकता सही सिद्ध होगी।

क्षाबंधन पर्व से, मिलता है संदेश।

सत शिव सुंदर भाव से, रखें शुद्ध परिवेश।।



देव कांत मिश्र 'दिव्य' मध्य विद्यालय धवलपुरा 

सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार

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