छठ पूजा: सूक्ष्म अवलोकन - भोला प्रसाद शर्मा - Teachers of Bihar

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Saturday, 9 November 2024

छठ पूजा: सूक्ष्म अवलोकन - भोला प्रसाद शर्मा


भारत त्योहारों का देश है, और यहाँ मनाए जाने वाले सभी पर्व-त्योहार अपने में विशेष महत्व रखते हैं। इनमें से कुछ त्यौहार केवल धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़े नहीं होते, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और प्राकृतिक तत्वों से भी गहरे रूप में जुड़े होते हैं। ऐसे ही पर्वों में से एक है "छठ पूजा"। यह पर्व मुख्य रूप से पूर्वांचल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में धूमधाम से मनाया जाता है। छठ पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाई जाती है, जिसे सूर्य षष्ठी भी कहा जाता है। इस पर्व में सूर्य देवता और उनकी पत्नी उषा को अर्घ्य देकर पूजा की जाती है। यह पर्व चार दिनों तक चलता है, और इसमें नहाय-खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य के रूप में विभिन्न अनुष्ठान किए जाते हैं।


छठ पूजा का प्रमुख उद्देश्य सूर्य देवता की उपासना करना है। यह पर्व सूर्य की पूजा के माध्यम से जीवन और स्वास्थ्य के प्रति आभार व्यक्त करता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में सूर्य को जीवनदाता और ऊर्जा का स्रोत माना गया है। यह एकमात्र ऐसा देवता है जिसे हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, और इसीलिए इसे प्रत्यक्ष देवता भी कहा गया है। सूर्य की किरणें हमारे शरीर को स्वस्थ रखती हैं, और इसीलिए छठ पर्व के दौरान सूर्य को जल अर्पण कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। छठ पूजा में सूर्य की दो पत्नी, उषा और प्रत्युषा, की भी पूजा होती है। उषा सुबह की प्रथम किरणों की प्रतीक हैं और प्रत्युषा शाम की अंतिम किरणों का प्रतीक हैं। इन दोनों का महत्व इसलिए है कि ये सूर्य की अनवरत ऊर्जा और प्रकृति की गति को दर्शाती हैं।


         छठ पूजा का उल्लेख वेदों और पौराणिक कथाओं में मिलता है। ऋग्वेद में सूर्य देवता की आराधना और उनके महत्व का उल्लेख है। ऐसा माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने अपने परिवार की सुख-समृद्धि के लिए छठ व्रत किया था। इसके अलावा रामायण में भी इसका जिक्र है, जहाँ भगवान श्रीराम और माता सीता ने अयोध्या लौटने के बाद कार्तिक मास में छठ व्रत किया था।


        छठ पूजा का एक और ऐतिहासिक संदर्भ राजा प्रियंवद से जुड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि उनकी पत्नी को कोई संतान नहीं हो रही थी, तब उन्होंने एक महान ऋषि की सलाह से छठ माता की पूजा की और उन्हें संतान की प्राप्ति हुई। इसलिए, छठ पर्व को संतान प्राप्ति और सुख-समृद्धि के लिए भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना गया है।


छठ पूजा को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। इसका वैज्ञानिक आधार भी है। इस पर्व के दौरान सूर्य की पूजा के समय जल में खड़े होकर अर्घ्य दिया जाता है। विज्ञान के अनुसार, सूर्य की किरणें जब जल के माध्यम से शरीर पर पड़ती हैं, तो शरीर को विटामिन डी मिलता है, जो हड्डियों को मजबूत करने और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होता है। इसके अलावा, चार दिनों तक व्रत करने से शरीर का शुद्धिकरण भी होता है और मन तथा आत्मा को शांति मिलती है। छठ पूजा में सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अर्घ्य देने का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इस समय पर सूर्य की पराबैंगनी किरणें कमजोर होती हैं और यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होती हैं।


छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला पर्व है। प्रत्येक दिन का अपना विशेष महत्व और अनुष्ठान होता है। इस पर्व के प्रत्येक दिन किए जाने वाले अनुष्ठान इस प्रकार हैं:


नहाय-खाय (पहला दिन)-


छठ पूजा के पहले दिन को नहाय-खाय कहा जाता है। इस दिन व्रती पवित्र नदी या तालाब में स्नान कर शुद्धता का पालन करते हैं। घर को स्वच्छ और पवित्र बनाया जाता है और केवल सात्विक भोजन का सेवन किया जाता है। इस दिन चने की दाल, लौकी की सब्जी और चावल का सेवन किया जाता है। इस अनुष्ठान के पीछे का उद्देश्य शरीर को शुद्ध करना और संयमित जीवन शैली का पालन करना है।


 खरना (दूसरा दिन)-


दूसरे दिन को खरना कहा जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन का उपवास रखते हैं और शाम को खीर, रोटी और गुड़ का प्रसाद बनाते हैं। यह प्रसाद अर्पित करने के बाद व्रती इसे ग्रहण करते हैं और उसके बाद अगले 36 घंटे तक बिना जल ग्रहण किए निर्जला व्रत का संकल्प लेते हैं। खरना का प्रसाद ग्रहण करने से व्रती को ऊर्जा मिलती है और व्रत को पूर्ण करने का सामर्थ्य मिलता है।


संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन)-


छठ पूजा के तीसरे दिन संध्या अर्घ्य दिया जाता है। इस दिन व्रती अपने परिजनों के साथ नदी, तालाब या किसी पवित्र जलाशय के किनारे एकत्र होते हैं और सूर्यास्त के समय सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस अनुष्ठान में सूर्य देवता को दूध और जल से अर्घ्य देने के साथ-साथ फल, फूल और विशेष पकवानों का अर्पण किया जाता है। संध्या अर्घ्य का महत्व इसलिए है क्योंकि यह सूर्य के प्रति समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक है।


       उषा अर्घ्य (चौथा दिन)-

चौथे दिन प्रातःकाल उषा अर्घ्य दिया जाता है। यह अर्घ्य सूर्योदय के समय दिया जाता है। व्रती अपने परिवार के साथ पुनः जलाशय के किनारे जाते हैं और उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस दिन व्रत का पारण किया जाता है और व्रती जल और प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस दिन का महत्व इसलिए है क्योंकि उगते सूर्य को नई ऊर्जा और जीवन का प्रतीक माना जाता है।


           छठ पूजा का आयोजन एक सामूहिक आयोजन होता है। इस पर्व के दौरान सभी लोग एकत्रित होकर एक साथ पूजा करते हैं, जिससे सामाजिक एकता और भाईचारे की भावना का विकास होता है। इस पर्व में अमीर-गरीब, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं होता है, और सभी मिलकर एक साथ सूर्य देवता की आराधना करते हैं। विशेष रूप से इस पर्व में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। व्रत करने वाली स्त्रियाँ छठ मैया से अपने परिवार की खुशहाली और संतान सुख की कामना करती हैं।


          समय के साथ छठ पूजा का स्वरूप भी बदल रहा है। अब इस पर्व को न केवल बिहार और पूर्वांचल में, बल्कि देश-विदेश में बसे भारतीय भी बड़े श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाने लगे हैं। आधुनिकता के बावजूद भी इस पर्व की परंपराएँ और धार्मिकता में कोई कमी नहीं आई है। यही कारण है कि यह पर्व देश के अन्य हिस्सों में भी लोकप्रिय हो रहा है।


        आज के आधुनिक समय में छठ पूजा के अनुष्ठान में स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। विभिन्न जगहों पर बनाए गए कृत्रिम तालाबों में लोग अर्घ्य अर्पित करते हैं ताकि प्राकृतिक जलाशयों में प्रदूषण न हो। इसके अलावा, प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग करके लोग पर्यावरण संरक्षण का संदेश दे रहे हैं।


          छठ पूजा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मानवता के प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि किस प्रकार सादगी, संयम और समर्पण से जीवन में सुख और समृद्धि लाई जा सकती है। छठ पर्व के माध्यम से हम सूर्य देवता, जल और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, जो हमारे जीवन का आधार हैं। यह पर्व हमें हमारी संस्कृति और परंपराओं से जोड़े रखता है और जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है।


       इस प्रकार, छठ पूजा भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की महानता को दर्शाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि किस प्रकार परिवार, समाज और प्रकृति के प्रति आदर भाव रखना चाहिए। यह पर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि जीवन को सच्चे अर्थों में समझने और जीने का संदेश भी देता है।



भोला प्रसाद शर्मा,

डगरूआ, पूर्णिया (बिहार )

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