शिक्षा के निहितार्थ- रमेश कुमार मिश्रा (शिक्षक) - Teachers of Bihar

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Sunday 27 January 2019

शिक्षा के निहितार्थ- रमेश कुमार मिश्रा (शिक्षक)




शिक्षा के निहितार्थ

हम अब विश्वशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं ।हर क्षेत्रों में हमने प्रगति भी की है लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि अगर शैक्षणिक प्रगति सुदृढ़ होती तो परिणाम कुछ ज्यादा ही उत्साहजनक होता ।मन को एक बात बहुत कचोटती है कि हम आखिर कर क्या रहे हैं? कहाँ जा रहे हैं हम ।हमने शिक्षा को सिर्फ उत्तरों से जोड़ लिया,व्यवहार से नहीं और सामाजिक व्यवहार का अनुकरण न करने वाली शिक्षा उद्देश्यहीन व निरर्थक है ।शायद यही वजह है कि हमारे समाज में सामाजिक एवं आर्थिक अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं ।ऐसा न हो जाये कि आर्थिकता को संपुष्ट करने के प्रयास में कहीं सामाजिकता न छीन जाए ।शायद छीन भी रही है और हम उसका संज्ञान भो नहीं ले पा रहे ।भोजन तो शारीरिक संतुष्टि देता है लेकिन शिक्षा तो शारीरिक,मानसिक एवं पारलौकिक संतुष्टि देने में समर्थ है ।तब क्या वजह है कि बच्चे इससे दूर हैं ।मुझे लगता है कि हम बच्चों के सामने शिक्षा की व्यापकता और विविधता को परिभाषित करने में असमर्थ रहे।और भला कौन होगा जो अप्रतिम माधुर्य का रसास्वादन न करे ।मधुर्यता के साथ आकर्षण भाव तो मानव प्रवृति है ।फिर ऐसा कैसे हो रहा है कि बच्चे इससे दूर होते जा रहे हैं ।शिक्षा को व्यवहार और आनंद की चाशनी में डुबोकर प्रस्तुत करने की कला में शिक्षक को प्रवीण होना पड़ेगा ।शिक्षा में आनंद का भाव हो न कि बंधन का ।तब बात यह भी आ सकती है कि आनंद का पैमाना तो व्यक्तिगत होता है,संस्थागत नहीं होता तो प्रत्येक बच्चों को एक साथ बैठाकर संतुष्टि एवं आनंद का भाव भाव भरना कितना दुरूह है।आखिर यह संभव कैसे हो सकता है।बात भी बिल्कुल सही है ।इसलिए बच्चों में उत्साह का भाव भरना ज्यादा श्रेयस्कर है ।उत्साहित बच्चे स्वतः आनंद ढूंढ लेंगे ।झाँकने और कुछ नया ढूंढने की प्रवृति तो मानव में आदिकाल से रही है ।तभी तो हम कितनी बाधाएं झेलकर सुविधा के इस दौर में खड़े हैं ।बच्चों में झाँकने की प्रवृति बढ़ाइए ।उनको उत्साहित कीजिये वे खुद ही वहाँ तक पहुंच जाएंगे जहां तक की कल्पना आपने स्वयं न की होगी।स्वानुभव आधारित ज्ञान ज्यादा संपुष्ट और कारगर होता है ।बच्चों को थोड़ी आज़ादी दीजिये और उनके स्वोपार्जित ज्ञान का सम्मान कीजिये।तथाकथित अधकचरे ज्ञान में ही कहीं ज्ञान भंडार छिपा हो।कोई भी वस्तु एक ही बार में परिपक्वता और संपूर्णता को प्राप्त कर ले यह इतना सहज नहीं है।स्वोपार्जित और स्व भंडारित ज्ञान को बच्चों को खुद आकार देने दीजिये।तब परिणाम कुछ ज्यादा बेहतर हो सकता है।शिक्षकों द्वारा बच्चों के प्रति अनमना व्यवहार और अपने ज्ञान को सर्वोत्तम बताने की कोशिश बच्चों को मानसिक तौर पर तोड़तीं है ।खुद सोंचिये! कोई अपने हिसाब से खूब स्वादिष्ठ व्यंजन खूब सुन्दर ढंग से लाया है और थाली छीनकर फेंक दी जाए तो उसपर क्या गुजरेगी? ठीक यही स्थिति बच्चों की भी है।बेचारे ने कितने आत्मीय भाव से अपने ज्ञान रूपी व्यंजन को हमारे सामने पडोसा और हमने उसका तिरस्कार किया ।क्या गुजरेगी उसपर ।ज्ञान के प्रति अश्रद्धा का भाव जाग्रत हो जायेगा और फिर वह उस विषय से से स्वतः दूर चला जायेगा और फिर वापस कभी न लौटेगा ।शिक्षक में सहनशीलता के भाव विराजें।समदर्शी,प्रणेता भाव का संचरण उसके जीवन में हो तभी वह अपने विद्यार्थियों के ज्ञान को सुदृढ़ करने में समर्थ होगाअन्यथा बच्चों के जीवन से आनंद विलोपन को कोई रोक नहीं सकता और आनंद विलोपन बच्चों के छीजन का कारण बनेगा.
रमेश कुमार मिश्र
शिक्षक
भारती मध्य विद्यालय, लोहियानगर,कंकड़बाग, पटना

1 comment:

  1. सार्वभौमिक शिक्षा पर अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं और लाखों शिक्षक शिक्षण कार्य 🏢 में लगे हुए हैं।परन्तु वांछित लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पाने का मुख्य कारण यह है कि सरकारी विद्यालय में पढने वाले बच्चे ऐसे परिवेश से आते हैं जहाँ अधिकांश लोग अनपढ है जिस कारण बच्चों को परिवेश में शैक्षिक क्रियाकलाप नहीं मिल पाता है।इस कारण बच्चे विद्यालय में भी शैक्षिक कार्यों में पूर्णतः रूचि नहीं ले पाते हैं और १००% शिक्षित समाज का सपना धरातल पर नहीं आ पाता है।अत:इसके लिए उचित कदम उठाए जाने चाहिए।

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