भारतीय संविधान का दर्शन-रवि रौशन कुमार - Teachers of Bihar

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Tuesday, 21 April 2020

भारतीय संविधान का दर्शन-रवि रौशन कुमार

भारतीय संविधान का दर्शन
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          व्यापक अनुसन्धान और विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप हमारा संविधान बन कर तैयार हुआ। उत्तरदायी शासन की ऒर बढ़ते हुए भारतीयों ने अंग्रेजी सत्ता से अनेक सुविधाओं की मांग की; इस क्रम में अंग्रेजी सरकार द्वारा समय-समय पर विभिन्न अधिनियमों व घोषणाओं के माध्यम से अंशतः सत्ता की हिस्सेदारी सुनिश्चित की गयी। भारत शासन अधिनियम 1858 से लेकर भारत सरकार अधिनियम 1935 के विभिन्न प्रावधानों से प्रेरित एवं विश्व के विभिन्न देशों के संविधान का गहनता से अध्ययन करते हुए जनता के मान्य प्रतिनिधियों के निकाय ने एक विशाल संविधान का निर्णय किया।
          प्रत्येक संविधान का अपना एक दर्शन होता है। हमारे संविधान का भी एक दर्शन है; यह दर्शन संविधान के उद्देशिका में परिलक्षित होता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा के पटल पर उद्देश्य-संकल्प को रखा था। यह प्रस्ताव 22 फरवरी 1947 को सभा द्वारा स्वीकृत हुआ और कालांतर में संविधान की प्रस्तावना कही गयी।
          प्रस्तावना के माध्यम से हमें सम्पूर्ण संविधान के दर्शन का आभास होता है। संविधान सभा ने भारत को स्वतंत्र, सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य बनाने की घोषणा की। 26 नवम्बर 1949 को एक विस्तृत संविधान बन कर तैयार हुआ। विशाल जनसंख्या, विशाल क्षेत्रफल व विविधतामूलक समाज में सभी वर्गों के लिये प्रावधान इस संविधान में निहित है; शायद यह भी एक कारण है कि लंबे वाद-विवाद व जिरह के बाद इतनी सावधानी से हमारे संविधान का निर्माण किया गया। इसकी विशालता के पीछे जो तर्क समझ में आता है वह भी कहीं न कहीं अंग्रेजी शासन की सताई जनता को वो तमाम अधिकार दिए जाने के प्रयास का प्रतिफल है। संविधान में हरेक वैधानिक प्रश्नों, राजव्यवस्था के दिशा-निर्देश तथा नीतियों के निर्माण से जुड़ी उलझनों का हल प्राप्त होता है। भारतीय संविधान के इस विशाल स्वरूप के चलते ही कुछ लोग इसे “वकीलों का स्वर्ग” भी कहते हैं।

संविधान की उद्देशिका : संविधान का दर्शन 

          अंग्रेज के पूर्वाग्रह को झुठलाते हुए भारत के राजनेताओं ने यह साबित कर दिया कि अपने देश के राजनैतिक भविष्य का फैसला करने में वे सक्षम है। “हम भारत के लोग…..इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं” ये शब्द भारत के लोगों की सर्वोच्च प्रभुता की घोषणा करते हैं। प्रभुता या सम्प्रभुता का तात्पर्य है कि राज्य को किसी भी मुद्दे पर कानून बनाने की शक्ति है और किसी बाह्य शक्ति द्वारा इसे नियंत्रण नहीं किया जाएगा।
          उद्देशिका में वर्णित गणराज्य शब्द यह दर्शाता है कि सरकार जनता के लिए, जनता के द्वारा संचालित होगी। सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति यथा राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जनता ही करेगी। यह पद वंशानुगत या स्वयंभू नहीं होगा। “सभी मामलों में अब फैसले भारत की सरकार लेगी न कि इंग्लैंड की सरकार” इस प्रावधान के साथ भारतीय संविधान प्रवृत्त हुआ साथ ही संविधान में यह भी प्रावधान किया गया है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करेगा, राष्ट्रों के साथ न्यायसंगत और सम्मानपूर्वक सम्बन्ध स्थापित करेगा।
          देश की जनता के हित में तीन तरह के न्याय की व्यवस्था की गई है: सामाजिक, आर्थिक तथा राजनितिक; अर्थात समाज में जाति, धर्म, वंश, लिंग, वर्ग आदि के आधार पर भेद-भाव पर निषेध, प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका जुटाने की रक्षा; गरीबों के लिये राहत पहुँचाना एवं राजनितिक न्याय के तहत सार्वभौमिक मताधिकार, मत का समान मूल्य, साझेदारी सुनिश्चित कर पाने का अधिकार आदि ऐसे मामले हैं जो संविधान की उद्देशिका में वर्णित उपर्युक्त तीनों प्रकार के न्याय को स्थापित करता है।
          समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता व अखण्डता जैसे शब्द भले ही बाद में जाकर संविधान की प्रस्तावना का अंग बने परन्तु इसका महत्व व्यापक रूप से पूर्व के प्रावधानों में भी झलकता है। मूल अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्व के क्रियान्वयन से उपरोक्त लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। समाजवाद से प्रभावित होकर ही तो भारत सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। सीमित स्तरों पर ही उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाना भी यद्यपि समाजवाद को ठेस पहुंचाता है परंतु भारत में समाजवाद का अपना अलग स्वरूप है। वैसे गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन तथा आर्थिक रूप से स्वाबलम्बी बनाने के लिये सरकार द्वारा कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिसे समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में सकारात्मक कदम माना जा सकता है।
          विभिन्न धार्मिक समूहों वाले देश में धार्मिक सहिष्णुता बरकार रहे इसके लिए संविधान निर्माताओं ने बड़ी सावधानी से देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने पर विचार किया परन्तु प्रस्तावना में इसे समावेशित न कर मूल अधिकार के अनुच्छेद 25 से 28 तक विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से समाज में धार्मिक उन्माद को कम करने का सफल प्रयास किया। कालांतर में 42वें संशोधन के द्वारा धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़ा गया।
          अतः उद्देशिका में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को समानता और बंधुत्व से जोड़ते हुए जो मूल्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है उसे महात्मा गाँधी के “सपनों का भारत” कहकर वर्णित किया जा सकता है।
          गाँधी जी के मुताबिक—“ऐसा भारत जिसमें गरीब से गरीब भी यह समझे कि यह उसका देश है जिसके निर्माण में उसका भी हाथ है। वह भारत जिसमें सभी समुदाय पूर्णतया समरस होकर रहेंगे। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के श्राप के लिये या मादक पेय और द्रव्यों के लिये कोई स्थान नहीं रहेगा। स्त्री और पुरुष समान अधिकारों का उपभोग करेंगे।“
          निष्कर्षतः संविधान की आत्मा कहलाने वाली प्रस्तावना में वास्तव में वो सब तत्व समाहित हैं जिसमें संविधान के दर्शन को समझ जा सकता है। इस उद्देशिका या प्रस्तावना के बारे में अर्नेस्ट बार्कर ने अपने पुस्तक “Social and Political Theory” के प्रारंभिक भाग में उद्धृत करते हुए कहा है कि प्रस्तावना समस्त संविधान की कुञ्जी है।



रवि रौशन कुमार
प्रखंड शिक्षक
राजकीय उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय, माधोपट्टी, 
प्रखंड - केवटी (दरभंगा)
सम्पर्क :- 9708689580
ईमेल  :- info.raviraushan@gmail.com


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5 comments:

  1. काफी उपयोगी आलेख!
    विजय सिंह

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  2. भारतीय संविधान का दर्शन: सचमुच में, बहुत ही उपयोगी व ज्ञानवर्धक आलेख है। वाकई प्रस्तावना तो संविधान की कुंजी है। इससे जरा संविधान को खोलिए, सभी चीजों के दर्शन होंगे।

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  3. तथ्यपरक एवं ज्ञानवर्धक लेख हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं.....

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  4. Very Nice & keep it up 😊😊👏👏👏

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