परीक्षा और परीक्षाफल-स्नेहला द्विवेदी आर्या - Teachers of Bihar

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Thursday, 30 July 2020

परीक्षा और परीक्षाफल-स्नेहला द्विवेदी आर्या

परीक्षा और परीक्षाफल 


          जीवन के संघर्ष में प्रतिपल परीक्षा और अनन्त उठापटक के बाद जीवन की विजय ही श्रेष्ठ परीक्षाफल को दर्शाती है। मानव के संघर्षों  का इतिहास सम्भवतः उतना ही पुराना है जितना मानव के विकास का इतिहास। खानाबदोश जीवन शैली से कबिलाई पद्धति, समाज और तंत्र-राजतंत्र  का क्रमिक विकास स्वतः नहीं हुआ है, विकास हेतु कई प्रकार के संघर्षों से होकर मानव सभ्यता विकसित हुई है। संघर्षों के फलस्वरूप विजयी होकर मानव आगे  बढ़ा है और कई स्तरों पर परिस्थितियों और प्रकृति  के अनेकानेक परीक्षाओं का सामना कर  सफलता के उपरान्त सभ्यता आगे बढ़ी है। इन  संघर्षों के दौरान अनुकूलन और उन्नयन की प्रक्रिया निरंतर होती रही है। इसे सामान्य रूप से इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि कोई छात्र किसी प्रश्न के उत्तर को बेहतर करने का बारम्बार प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में वह अध्ययन के विभिन्न संसाधनों को ढूंढता है, विकास करता है। मानव सभ्यता के विकास की यह प्रक्रिया समष्टि और व्यष्टि दोनों के समानांतर और परस्पर सम्यक विकास के फलस्वरूप ही आगे बढ़ती है। अर्थात परीक्षा और परीक्षाफल दोनों को विकास के दृष्टिकोण से समष्टि और व्यष्टि के लिए परस्पर मुक्त समझना भूल होगी।  
          व्यक्तिगत जीवन में बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक प्रकृति, समाज, संस्कार और परिवार सभी स्तरों पर अनेकानेक परीक्षाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है। इन परीक्षाओं से गुजरते हुए सफलता को प्राप्त करने की कला को समाहित कर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। वस्तुतः कठिन परिस्थितियों में व्यक्तिव में अद्भुत निखार आता है। यह क्रमागत उत्तरोत्तर प्रक्रिया है। इसके दौरान व्यक्ति कई प्रकार की जानकारी, मूल्यों और संस्कारों को आत्मसात करता है। इस प्रकार वह जीवन के रण के लिए स्वयं को तैयार कराया है। व्यक्ति के विभिन्न मूल्यों,  अवधारणाओं, मान्यताओं, संकल्पनाओं को आत्मसात करने तथा संसाधन, अवस्था और बौद्धिक विकास के विभिन्न स्तरों के कारण समान परिस्थिति में भी किसी विशेष व्यक्ति की प्रतिक्रिया  अलग-अलग समय में अलग-अलग होती है। अतः परीक्षा की स्थिति और जीवन के प्रश्नों में समानता होते हुए भी  व्यक्तिगत प्रत्युत्तर हमेशा एक समान हो, यह आवश्यक नहीं है।
          परीक्षा और परीक्षाफल कारण और प्रतिफल के परस्पर संबंध से जुड़ते हैं। सम्भवतः सभी प्रकार की परीक्षाओं का किसी न किसी रूप में परीक्षाफल आता है। आधुनिक जीवन में बचपन में प्ले स्कूल से विश्वविद्यालयों तक में होने वाली लिखित, मौखिक, प्रायोगिक परीक्षाओं की परंपरा से हम सभी कहीं न कहीं गुजरते हैं। बोझिल किताबों से आनंदित कहानियों, कथाओं, कविताओं तक उस दौरान प्रेम के मोहपाश की अनुभूतियों, संवेदनाओं के संघर्षों, ऊहापोह, उठापटक की अनेकानेक परिस्थितियों से किंचित परिचय हम सबका है। इन परस्थितियों में हम सबकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से समान नहीं रही होगी।
          पढाई के बाद  वास्तविक जीवन में किताबों से परे नमक-तेल, परिवार, समाज इत्यादि के स्तर पर कई परीक्षाओं से सामना होता है। इन परीक्षाओं में पास हुए बिना जीवन की पगडंडी दिग्भ्रमित हो जाती है। आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत स्तर पर बौद्धिक, भावनात्मक, संस्कारगत और संसाधनों  के कई आधिक्य,  सामान्य या कठिन और दुरूह स्थितियों का सामना करते हुए परीक्षाफल का सामना करना पड़ता है। कहीं अपेक्षा से अधिक तो कहीं अपेक्षा से कम या बहुत कम अंक या अंकों से परे मूल्यांकन में खरे उतरने से मानसिक दबाब या संतोष की स्थिति से गुजरना एक सामान्य अनुभव है।
          वस्तुतः परीक्षा का सामना करना ही प्रकृति का शाश्वत नियम है। परिस्थितियों का सामना, अनुकूलन और परिस्थितियों पर विजय ही मानव की प्रकृति है। जहाँ मानव इस परीक्षा में फेल होता है, प्रकृति उसे माफ नहीं करती। सत्य तो यह है कि यह पृथ्वी विजेताओं की है। यह भाव सर्वत्र और सर्वव्यापी होने के कारण जितनी आसानी से अनुकूलन की क्रिया व्यक्ति में आ जाती है उतनी आसानी से वह परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर पाता है अन्यथा धीरे धीरे अनेकानेक व्यवधानों का सामना कर उस मानव का जीवन और अस्तित्व संकट से घिर जाता है। संघर्ष की यह परिणति अति कठिन होती है। असफलता के कारण मानसिक और भावनात्मक स्तर पर नकारात्मक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस स्थिति में अध्यात्म कुछ सम्बल प्रदान करता है। 
          हारने अर्थात नकारात्मक परीक्षाफल के कारण व्यक्ति की मानसिक और भावनात्मक स्थिति में होने वाले विद्रूपण का मुख्य कारण व्यक्ति का कर्ता भाव है। इस स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय परीक्षा का सहजयोग अर्थात कर्ता के भाव का यथासम्भव विनाश।  सभी कोशिशों, अनुकूलनों के बावजूद मनोनुकूल फल  नहीं  प्राप्त होने से उत्पन्न अवसाद से मुक्त होने के लिए स्वयं के प्रयासों के बाद फल को सहज भाव से स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। गीता में भगवान कृष्ण ने परीक्षाफल अर्थात कर्मफल की चिंता नहीं करने को कहा है। यह तो सामान्य मानव के लिए संभव नहीं जान पड़ता लेकिन कर्म के सिद्धांत में विश्वास करना सहज है और सहजयोग को धारण करते हुए हम अनेकानेक परीक्षाओं का सफलतापूर्वक सामना कर सकते हैं और विश्वास कर सकते हैं कि निश्चित रुप से हम सफलीभूत होंगे परीक्षाफल हमारे पक्ष में ही होगा ।


स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या'
मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार

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