बच्चे की क्रियाशीलता और भाव-भंगिमा खुली किताब है-मो. जाहिद हुसैन - Teachers of Bihar

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Thursday 23 July 2020

बच्चे की क्रियाशीलता और भाव-भंगिमा खुली किताब है-मो. जाहिद हुसैन

बच्चे की क्रियाशीलता और भाव-भंगिमा खुली किताब है
                                 
          शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षकों को सामाजिक, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार बताया जाता है। इसका तात्पर्य शिक्षक को समाज, शिक्षा का दर्शन तथा बच्चों के मनोभावों से अवगत कराना है। बच्चों के आँखों में चमक, पक्के इरादे, कुछ कर गुजरने की तमन्ना, माथे पर तेज, भाव-भंगिमा, क्रियाशीलता, खोजी प्रवृत्ति, शरीर के कंपन, लरजते होंठ, लड़खड़ाते पैर, मौन तथा उदासी आदि एक अनुभवी शिक्षक के सामने खुली किताब है जो इन बातों को समझते  हैं। वह क्रियात्मक शोध कर रहा होता है और सीखने-सिखाने की समस्या का समाधान निकाल रहा होता है।
           बच्चे माँ की गोद में, परिवार में तथा समाज में प्रत्येक गतिविधियों का एवं चीजों का अवलोकन करता रहता है तथा उससे अनुभव प्राप्त करता रहता है। बच्चे आँगनवाड़ी में आने से पहले बहुत कुछ जान जाते हैं जिसका भान शिक्षकों को रखना चाहिए। सीखने-सिखाने हेतु वातावरण का निर्माण करना होता है। कहीं-कहीं अधिगम को प्रभावी बनाने के लिए बच्चों की सोच में सहज मोड़ देने की आवश्यकता भी पड़ती है अल्पावधि यानी 5-6 वर्षों तक बच्चे का मस्तिष्क लचीले (Elastic )पात्र की तरह होता है जिसमें कितने भी ज्ञान को भरा जाए वह भरकर गिरता नहीं (overcontain) है। उस पात्र में जितना भी ज्ञान भरा जाए वह टिकाऊ एवं जीवन भर याद रहने वाली चीज हो जाती है। छोटे बच्चों में सूचनाएँ ठूंसना नहीं पड़ता है क्योंकि उसका मस्तिक बहुत ग्राह्य होता है जो ज्ञान घड़े को बड़ा कर देता है जबकि बड़े बच्चों में ज्ञान को ठूंसने से वह घड़ा बड़ा नहीं हो पाता और ज्ञान बाहर निकल जाता है।
          इसमें कोई संदेह नहीं कि अच्छे संस्कार अच्छी शिक्षा से आती है। बच्चों को जीवन-मूल्य की शिक्षा देते रहना चाहिए ताकि वे समाज के प्रति जागरूक एवं जिम्मेवार बन सके।
          बच्चे को सीख तो माँ की गोद से ही मिलने लगती है, उसके बाद उसका परिवार ही पहला पाठशाला होता है जहाँ व्यवहारिक रूप से तोतली जुबान में ही सही, अपने विचारों को आदान-प्रदान करता है । घर की भाषा  मातृभाषा होती है जो अक्सर आंचलिक भाषा होती है जो उसके माता -पिता बोलते हैं। 
          माँ से बढ़कर दुनियाँ में कोई भी मनोवैज्ञानिक नहीं हो सकता क्योंकि माँ अपने बच्चे के चेहरे  को बखूबी पढ़ लेती है। उसकी प्रत्येक गतिविधि से जान लेती है कि बच्चे को क्या चाहिए और क्या नहीं। छोटे बच्चे  जब दूसरे व्यक्ति की गोद में जाता है तो  रोने लगता है। प्रत्येक बच्चे को कुछ न कुछ बोध होता है चाहे वह बिल्कुल छोटा  ही क्यों न हो। इसलिए कोई भी बच्चा कोरे कागज की तरह नहीं है। वह अपनी माँ की महक तथा स्पर्श को अच्छी तरह से समझता है तभी तो बच्चे माँ की गोद में आते ही चुप हो जाता है। यहाँ तक कि माँ की गोद की तरफ अगर दूसरा व्यक्ति बच्चे को बढ़ाता है तो भी बच्चे चुप हो जाते हैं ।
          कहावत यह है कि बच्चा अगर न रोए तो क्या उसे दूध नहीं देना चाहिए। बिल्कुल देना चाहिए। लेकिन बच्चे अगर न रोए और दूध उसे पिलाना जरूरी है तो उसे एक माँ ही समझ सकती है। इस तरह माँ उसकी क्रियाशीलता तथा भाव-भंगिमा को देखकर समझ सकती है कि बच्चे को क्या चाहिए और क्या नहीं ? बच्चे का चेहरा एक खुली किताब है लेकिन उसे पढ़ने वाला पारखी होनी  चाहिए और यह गुण सभी शिक्षक के अंदर होना चाहिए ताकि वह एक माँ की तरह  (motherly behave) कर सके। हालांकि दुनियाँ  का कोई व्यक्ति माँ नहीं हो सकता । लेकिन  कुछ हद तक माँ की तरह( motherly behave) तो कर ही सकते हैं। बच्चे जब अपने घर की भाषा को लेकर विद्यालय जाते हैं तो वे संकोची स्वभाव के होते हैं तो उसके मनोविज्ञान को पढ़कर तथा मित्रवत व्यवहार कर शिक्षक  घर की भाषा से विद्यालय की भाषा को जोड़ें ताकि उसके अंदर आत्मविश्वास पैदा हो सके। इस बात को हमेशा याद रखें कि बच्चा अपनी मातृ भाषा में  किसी भी अवधारणा को अच्छी तरह समझता है।

मो. जाहिद हुसैन 
प्रधानाध्यापक 
उत्क्रमित मध्य विद्यालय मलह  बिगहा 
चंडी, नालंदा

2 comments:

  1. बहुत-बहुत सुन्दर!

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  2. सुन्दर आलेख ।यथार्थ पर आधारित ।you deserved it, Sir.

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