शिक्षक सिनेमा और अभिभावक-हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

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Monday 26 October 2020

शिक्षक सिनेमा और अभिभावक-हर्ष नारायण दास

शिक्षक सिनेमा और अभिभावक

          एक बार शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग ले रहा था, जिसमें फ़िल्म "तारे जमीं पर'' दिखाया गया। मुझे ये सब देखकर पुराने बड़े लोगों की बड़ी बातें याद आने लगी, जब वे कहते थे कि सिनेमा देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं या सिनेमा बच्चों की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न करता है। आज सिनेमा कक्षा में उपस्थित था। बच्चों की क्या बात आज तो सिर्फ शिक्षक ही कक्षा में मौजूद थे और मस्ती की पाठशाला चल रही थी। शिक्षकों ने फ़िल्म का खूब मजा लिया और स्वतः ही कहने लगे कि कितनी अच्छी बात बताई गई है कि हर बच्चे में कुछ हुनर होता है, कला होती है, खूबियाँ होती है जिनके बारे में माता- पिता और शिक्षकों को जानना चाहिए। हमारी कक्षाओं में भी ऐसे बच्चे होते हैं जिन्हें किसी न किसी तरह की कोई परेशानी होती है। हम शिक्षकों को वैसे बच्चों का दर्द समझना चाहिए। सिनेमा विशुद्ध मनोरंजन की भी चीज नहीं है, वह विचार करने या समुदाय को जागरूक बनाने का भी माध्यम है।
          फ़िल्म "तारे जमीं पर'' का ईशान अवस्थी एक डिस्लेक्सिक़ बच्चा जिसे केवल पढ़ने-लिखने में समस्या आती है अन्यथा वह बहुत सृजनात्मक और संवेदनशील बच्चा है। उसका मस्तिष्क सदैव नए-नए कामों को कुछ अलग तरीके से करने में लगा रहता है। वह ठीक से पढ़ नहीं सकता, गणित के सवाल हल करने में भी उसे अच्छी-खासी दिक्कत आती है लेकिन चित्रकारी में उनका मन खूब रमता है। कागज पर नीला, पीला रंग डालकर और अँगुलियों के पोरों को जब वह घुमावदार तरीके से चलाता है तो कागज पर जो दृश्य उभरता है, वह मन को बरबस ही मोह लेता है लेकिन उसके माता-पिता और शिक्षक उसकी "विशिष्ट'' परेशानी से परिचित नहीं हैं। उसकी अनभिज्ञता का खामियाजा भुगतना पड़ता है ईशान को। उसे माता-पिता एक बोर्डिंग में भेज देते हैं। जिस उम्र के बच्चे को माता-पिता का स्नेह, देखभाल चाहिये थी उसी उम्र में वह इन सबसे दूर हो जाता है। माँ का दिल रोता है लेकिन वह पिता के आगे मजबूर है। उधर ईशान भी बाथरूम में खूब रोता है लेकिन उसके रुदन को सुनने वाला, उसके आँसू पोछनेवाला वहाँ कोई नहीं है। धीरे-धीरे वह "खामोश'' हो जाता है। यहाँ माता-पिता की गलती सामने आती है। वे अपने बच्चे के मन को ही नहीं समझ पाते हैं। दूसरे बच्चे पर गलत भरोसा कर उल्टा वे अपने बच्चे को ही, जो सही है  डाँटते हैं। कोई भी सम्बन्ध विश्वास के नीव पर टिका होता है। जब बच्चे को यह महसूस होता है कि उसके माता-पिता उस पर विश्वास नहीं करते तो बच्चे में असुरक्षा की भावना घर कर जाती है। यह असुरक्षा उसके संवेगों और उसके पूरे व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप में प्रभावित करती है। माता-पिता और बच्चे के बीच के आत्मीय संबंधों का अभाव भी उतना ही नकारात्मक होता है। ईशान को भी यह डर है कि गणित में फेल होने पर उसके माता-पिता उसके प्रगति पत्र पर  हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो वह अपने भाई का सहारा लेता है। कक्षा से बाहर निकाले जाने पर वह स्कूल से बाहर घूमते रहता है और छुट्टी होने के समय वापस स्कूल बस में आ जाता है। ये दोनों प्रसंग बच्चे के घर की स्थितियों को उजागर करते हैं। बच्चे और माता-पिता के बीच "संवाद''की स्थिति होनी चाहिए और दोनों को एक दूसरे की बात सुनने का साहस और धैर्य लेकिन माँ माया अवस्थी और पिता नन्द किशोर अवस्थी दोनों अपने बच्चे के साथ संवाद स्थापित करने की योग्यता नहीं रखते। अक्सर माता-पिता बच्चे के बीच संवाद होता है तो उसकी शुरुआत भी "पढ़ाई'' से होती है और समापन भी "पढ़ाई'' से होता है। बहुत बार यह समापन पिटाई या डांट के साथ भी समाप्त होता है जिससे  भविष्य के सभी संवादों पर रोक लग जाती है। ईशान जनता है कि गणित में फेल होने पर उसके माता-पिता उसे माफ नहीं करेंगे। वह स्कूल से भागता रहता है। कितना डर होगा ईशान के मन में कि वह सबको कैसे और कब तक झेलेगा। अच्छे स्कूल में दाखिला  कराकर, फीस देकर, खाना, कपड़ा और ट्यूशन का प्रबन्ध कर माता-पिता की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। बच्चों को अपने परिवार का गुणात्मक समय, विश्वास और भरपूर स्नेह, आत्मीयता की आवश्यकता होती है। इसी फिल्म में ईशान के स्कूल के शिक्षकों से जुड़ी घटनाओं, उनके व्यवहार के माध्यम से इस ओर संकेत किया गया है कि एक अच्छा और प्रभावी शिक्षक वह है जो अपने बच्चों को उसी रूप में स्वीकार करता है जैसे वे हैं। ईशान के शिक्षक उसे समझ ही नहीं पाते और उन्हें लगता है कि ईशान लापरवाह है, कक्षा में मस्ती मारता है और एकदम शिक्षा के अयोग्य है जबकि वास्तविकता यह है कि स्वंय ईशान भी अपनी परेशानी से परेशान है। 
          शिक्षकों को यह समझना होगा कि प्रत्येक बच्चा अपने आप में एक अद्वितीय व्यक्तित्व का स्वामी होता है। उन सबकी विशिष्ट क्षमताएँ, रुचियाँ और सीमाएँ होती है। एक ही कक्षा के यहाँ तक कि एक ही परिवार के जुड़वां दो बच्चे किसी भी रूप में एक समान नहीं होते और न ही हो सकते हैं। उनमें व्यक्तित्व भिन्नताएँ होती ही हैं। इसलिए शिक्षकों में यह योग्यता होनी ही चाहिए कि वे बच्चों की अद्वितीय  क्षमताओं को पहचाने और उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उचित प्रकार से शिक्षण का कार्य करें। एक और मुख्य बात  यह है कि बच्चों में सकारात्मक आत्म-अवधारणा तब बनती है जब उसका परिवार, उसके शिक्षक और हम उम्र साथी उसके प्रति सकारात्मक रवैया अपनाते हों। शिक्षकों का अविश्वास बच्चों में स्वंय के प्रति अविश्वास उत्पन्न करता है। यह बात इनके दृढ़ विश्वास का आधार है।
          ईशान के नए कला शिक्षक राम शंकर निकुम्भ जिसकी भूमिका आमिर खान ने निभाई है। राम शंकर निकुम्भ की शिक्षण शैली बाकी शिक्षकों की तुलना  में बिल्कुल भिन्न है। बम बम भोले में उनके व्यक्तित्व और शिक्षण शैली का परिचय मिल ही जाता है लेकिन इसका ईशान पर कोई असर नहीं पड़ता है। वह सिर झुकाए कक्षा से बाहर चला जाता है। एक अच्छा शिक्षक होने की पहली और अनिवार्य शर्त ही यही है कि शिक्षक की नजर से कोई भी बच्चा, उसके  संवेग, उसके मन में उठने वाली तरंगे बिल्कुल भी ओझल न हों। यही किया निकुम्भ सर ने भी। वे ईशान के व्यवहार पर निरन्तर अपनी दृष्टि बनाए रहे और यह जान लिया कि ईशान हमेशा उदास रहता है और कक्षाई गतिविधियों में उसकी सहभागिता शून्य है। वे उसके काम को भी गहराई से देखते हैं और ईशान की उदासी की तह तक जाने की कवायद में वे उसके घर तक जा पहुँचते हैं। वहाँ वे ईशान के माता-पिता से मिलते हैं और ईशान का कमरा, उसकी ड्राइंग्स देखते हैं। फ्रिलप बुक में जो वे देखते-समझते हैं उसे अब तक ईशान के माता-पिता भी देख-समझ नहीं पाए थे। फ्रिलप बुक में जैसे-जैसे आप पन्नों को तेजी से पलटेंगे वैसे-वैसे आप एक छोटे बच्चे को अपने परिवार से दूर होता पायेंगे। वह छोटा बच्चा कोई और नहीं बल्कि स्वयं ईशान ही है जिसे उसके अपने भी नहीं समझ पा रहे। होता भी यही है, ईशान को अपने परिवार से दूर बोर्डिंग हाउस में भेज दिया जाता है। निकुम्भ सर ईशान की ड्राइंग्स के द्वारा यह समझाने की सफल कोशिश करते हैं कि ईशान बहुत ही सृजनात्मक बच्चा है और यदि उसे सही दिशा-निर्देश, उसपर अतिरिक्त ध्यान दिया जाय तो उसे डिस्लेक्सिया की समस्या से उबारा जा सकता है। बच्चों की वैयक्तिक भिन्नताएँ वैयक्तिक अनुदेशन की मांग करती है। निकुम्भ सर की मेहनत, स्नेह, अपनेपन और धैर्य के कारण ईशान की पढ़ाई-लिखाई में सुधार आना शुरू होता है। एक चित्रकला प्रतियोगिता में ईशान के द्वारा बनाये चित्र को सर्वश्रेष्ठ और निकुम्भ सर के चित्र जिसमें ईशान का स्केच था, को रनर अप घोषित किया जाता है तो गुरु और शिष्य दोनों अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं रख पाते और अश्रुधारा बहने लगती है। यह दृश्य शिक्षकों की उस प्रतिभा की ओर संकेत है जो बच्चों को उनकी अद्वितीय प्रतिभाओं, क्षमताओं और विशिष्टताओं से परिचित कराती है। शिक्षा का उद्देश्य भी यही है। बच्चों में अंतर्निहित क्षमताओं का अधिकतम विकाश करना जिसमें शिक्षक की भूमिका  एक सुगमकर्ता की होती है, जो ऐसा परिवेश रचता है जिसमें बच्चे की प्रतिभाएं स्वंय ही उभरने लगती है। उन्हें पल्लवित, पुष्पित होने का अवसर मिलता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में ऐसे कितने "निकुम्भ'' सर होंगे लेकिन ईशान जैसे हजारों बच्चे हैं और कितने ईशानों को कितने "निकुम्भ सर'' मिल पाते होंगे? इसलिए जरूरत है सभी शिक्षकों, बच्चों और अभिभावकों को इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की।


हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
म०विद्यालय, घीवहा
फारबिसगंज(अररिया)

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