साधारण सी लँगोटी से महामानव का सफर-देव कांत मिश्र - Teachers of Bihar

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Friday, 2 October 2020

साधारण सी लँगोटी से महामानव का सफर-देव कांत मिश्र

साधारण सी लँगोटी से महामानव का सफर       

"चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,                               
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि                               
उठ गये कोटि दृग उसी ओर।" 
              सोहनलाल द्विवेदी
         
          परिधान एक साधारण सी लंगोटी, तपस्वी का वेश लेकिन विचार उच्च कोटि का, साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल देने वाले तथा कथनी एवं करनी, विचार और आचार दोनों में अभेद रखने वाले महान कर्मयोगी, विभूति एवं तपी कोई और नहीं, हमारे ही देश के स्वप्नद्रष्टा, युग-पुरूष, महात्मा गांँधी जिनकी जयन्ती 2 अक्टूबर को सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन इस युग-मानव का हमारे देश की धवलमयी वसुंधरा पर आविर्भाव हुआ था। हम प्रतिवर्ष उनकी जयंती मनाकर उनके गुणों की बखान तथा देश के प्रति उनके अप्रतिम व अविस्मरणीय योगदानों की चर्चा करते हैं। सचमुच वे सत्य एवं अहिंसा के पुजारी व त्याग एवं सहनशीलता की साक्षात मूर्ति थे। पीड़ितों एवं दलितों के उद्धारक थे। इनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात प्रांत के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ था। इनकी माता का नाम पुतलीबाई तथा पिता का नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। इनका विवाह कस्तूरबा से हुआ था। उनके पिता करमचंद गाँधी एक उच्च तथा जवाबदेह पद पर तथा माता उच्च कोटि की धर्मपरायण महिला थीं। बचपन से ही वे सच्चे और ईमानदार थे। प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में ही हुई थी। प्रवेशिका परीक्षा पास करने के बाद वे कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन गए। 1891 ई. में अध्ययनोपरांत वहाँ से स्वदेश लौटने पर बम्बई उच्च न्यायालय में वकालत आरंभ की। 
          एक व्यापारी के मुकदमे के सम्बंध में वे दक्षिण अफ्रीका के नेटाल गये। वहांँ यूरोपीय निवासियों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे घोर अत्याचार व अन्याय को देखकर उनका हृदय काँप गया। सत्याग्रह नामक अस्त्र की सहायता से अपने प्रयत्न में सफलता पाई। उसी वक्त बिहार प्रांत में यूरोपियन निलहे प्रजा पर बहुत अत्याचार कर रहे थे। इन्होंने अपने कार्यक्रम का स्थानान्तरण मोतिहारी में किया। नील के किसानों का पक्ष लिया। उनके हस्तक्षेप से दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया। 1921 ई. में इन्होंने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। साथ ही 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ किया। इसके साथ-साथ विभिन्न तरह के आंदोलनों के द्वारा लोगों में आजादी की भूख जगाई। आन्दोलन के दौरान अनेक बार जेल भी गए लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी अपितु अपने कर्त्तव्य पथ पर डटे रहे। जन-जन में परस्पर चट्टानी एकता का संदेश दिया। अंत में उन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति की। विश्व के पटल पर हमारा देश भारत स्वतंत्र राष्ट्र की गिनती में शामिल हो गया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में इन्होंने सत्य, अहिंसा एवं सत्याग्रह रूपी शस्त्र का सहारा लिया। वे अपनी राजनीति के कारण महान नहीं थे अपितु उनकी महत्ता उनके जीवन के नैतिक दृष्टिकोण (moral outlook) में थी। उनके लिए सत्य सद्गुण या आदर्श नहीं था। यह उनका जीवन ही था। इस संबंध में ठीक ही कहा गया है: "He was prepared to face the mightiest power of the earth for the cause of truth and justice. "इस प्रकार सत्य और न्याय के सहारे वह किसी भी शक्ति का सामना करने के लिए तैयार रहते थे। वे स्वयं कार्य करने में विश्वास रखते थे तथा दूसरों को भी ऐसा करने को सदा अभिप्रेरित करते रहते थे। 
          पंजाब केसरी लाला लाजपत राय एक बार लाहौर से साबरमती आश्रम के। उन्हें महात्मा जी से कुछ परामर्श लेना था। बातचीत करते-करते भोजन का समय हो गया। गाँधी जी और लाला जी साथ-साथ भोजन करने बैठे। लालाजी कुछ जल्दी भोजन कर चुके। महात्मा जी ने कहा, " आप जाइए और आराम कीजिए। मुझे कुछ देर लगेगी।" थोड़ी देर बाद लाला जी ने देखा कि महात्मा जी जूठी थालियाँ धो रहे थे। इतने में लालाजी लपक कर आए और बोले- " बापू आपने यह क्या किया? जूठी थालियाँ क्यों धोने लगे?" गाँधी जी ने उत्तर दिया- आश्रम का नियम है अपना काम स्वयं करना चाहिए। आप आश्रम के अतिथि हैं इसलिए आपकी थाली मैं धो रहा हूँ। लालाजी ने उसी दिन से अपना काम स्वयं करने का संकल्प कर लिया। गाँधी जी ने अपने व्यवहार विचार से उनके जीवन को ही बदल दिया। वाकई इस प्रसंग से हमें प्रेरणा मिलती है कि  हमें अपने यहाँ आए अतिथियों की सेवा करनी चाहिए तथा अपना कार्य स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। यानि सेवा भाव सच्चे दिल से होना चाहिए। चाहे माता-पिता की सेवा हो, गुरुजनों की हो या अपने राष्ट्र की। खासकर हमारे देश की युवा पीढ़ियों, विद्यालयी छात्रों को भी गाँधी जी के जीवन से सीख लेनी चाहिए तथा तनाव मुक्त होकर हर तरह की परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। सहयोग एवं सहानुभूति की भावना रखनी चाहिए। लगन व परिश्रम से पढ़ाई करनी चाहिए। इस प्रकार गाँधी जी महान पुरुषों में से एक थे। ये महात्मा बुद्ध की दया और अहिंसा, स्वामी दयानंद के सत्य, तथा अछूतोद्धार के नियमों पर स्वयं चले तथा औरों को भी चलना सिखाया। इन्होंने अपना सम्पूर्ण सुख स्वदेश के लिए बलिदान कर दिया था। सादा जीवन उच्च विचार इनके जीवन का मूल मंत्र था। सेवा-भाव इनमें कूट कर भरा हुआ था। वे देश ही नहीं सारी दुनियाँ में सत्य और अहिंसा की प्रधानता के पक्षधर थे। सच में, वे महात्मा थे। 'महान आत्मा येन स:।' बिल्कुल सही चरितार्थ होता है। इन्हीं के चलते इन्हें यादगार व महान फल की प्राप्ति हुई। इस अप्रतिम व अलौकिक महान कार्य हेतु देश इनका हमेशा चिर ऋणी रहेगा। दुर्भाग्यवश आज दुनियाँ दूसरी ओर झुकी हुई हैं परन्तु हम उनकी राह पर चलकर ही अपने समाज, राष्ट्र तथा संसार को सुन्दर साँचे में गढ़ सकते हैं। इस संबंध में मेरा विचार है-

नई राह दिखाने, धरा भारत की आए।
निज हित का त्याग से, संसार में छाए।।
कर देश को आजाद, खिला दिए चमन।
जयंती पर उन्हें करें, हम शत् शत् नमन।।

देव कांत मिश्र 'शिक्षक' 
मध्य विद्यालय धवलपुरा
सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार

3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर आलेख बहुत ही मार्मिक ढंग से गांधी जी का चित्रण किया गया है ।👌👌👌👌

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  2. वास्तव में गाँधी जी के विचार और आदर्श अनुकरणीय हैं। अहिंसा का सिद्धान्त ही विश्वशशांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। बहुत सुंदर आलेख।👌👌💐💐💐

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