Sunday, 3 January 2021
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भाषा में संदर्भ-जाहिद हुसैन
भाषा में संदर्भ
भाषा में संदर्भ का काफी महत्व है। संदर्भ के अनुसार भाषा बदल जाती है तथा एक ही शब्द, वाक्यांश, वाक्य आदि का अर्थ भी बदल जाता है। जब कोई निरर्थक समझे जाने वाले शब्द किसी संदर्भ के मुताबिक इस्तेमाल किया जाए तो वह सार्थक हो जाता है, इस तरह वास्तव में कोई भी शब्द निरर्थक होता ही नहीं है। व्याकरण की पुस्तकों से निरर्थक शब्द हटा देने की जरूरत है। रोटी-ओटी, कलम-वलम, चश्मा- उश्मा आदि जैसे शब्द अन्य शब्दों की तरफ इशारा कर देते हैं।लोटा-डोरी, नाती-पोता, नाना-नानी, अठन्नी-चवन्नी आदि तो सहचर शब्द हैं, लेकिन लफ्फाडुग्गी, मथचट, पगलेटी, अलर-बलर, बतलाहा आदि शब्दों का अर्थ तो किसी शब्दकोश में भी ढूंढने से नहीं मिलेगा। लेकिन संदर्भ के अनुसार इनके भी अर्थ निकल जाते हैं जैसे- यह तो खाली इधर-उधर लफ्फाडुगी करता रहता है। अरे, यह आदमी तो बिल्कुल मथचट है यार! अगर अलर-बलर बतियाओगे न तो तेरहमा विधि लगा देंगे। यह तो हमेशा से बतलाहा ही रह गया। ज्यादा तुम पगलेटी करोगे, समझा दें तुम को हम। ये सारे निरर्थक शब्दों के अर्थ परिस्थितिवश वाक्य में प्रयोग से स्पष्ट निकल जाते हैं।
एक बड़ा ही दिलचस्प कहानी है। एक लड़का शिक्षक से एक सवाल किया, "जी सर, जड़में का मतलब क्या होता है?" शिक्षक इस शब्द का कभी नाम तक भी नहीं सुना था।उन्होंने कहा," इसे कल बताऊंगा। 'फिर कल भी यही प्रश्न बच्चे ने पूछा," फिर शिक्षक ने कहा, "अच्छा कल बताऊंगा। इस तरह दसियों दिना गुजर गए। शिक्षक महोदय ने पुस्तकालय के सारे शब्दकोशों को खंगालने के बाद भी इस शब्द का अर्थ नहीं ढूंढ पाए। अगले दिन भी बच्चा यही यक्ष प्रश्न को लेकर प्रस्तुत हो गया। वही पुराना सवाल? सर,' जड़मेंथा' का मतलब क्या होता है? शिक्षक महोदय इस बार झल्ला गए और बच्चे से पूछा," तुम ने किस पुस्तक में 'जड़मेंथा' को देखा है? "जी, सर इस किताब में। "लड़के ने किताब बढ़ाया। शिक्षक ने जब उसे पढ़ा तो अपना माथा ठोक लिया। वह वाक्य था। पानी जड़ में था, इसलिए पौधे को पटाने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल मिस प्रिंट होकर जड़ + में + था, मिलकर एक शब्द 'जड़मेंथा' बन गया था। लेकिन बच्चा पूरा वाक्य को पढ़कर समझ नहीं पा रहा था। लेकिन जब पूरे वाक्य को शिक्षक ने पढ़ा तो ग़लती पकड़ में आ गई। यही होता है, पूरी बात नहीं सुनने और पढ़ने एवं समझने में। इसलिए एक दूसरे को बोलने का मौका देना चाहिए। फिर सुनकर आगे वार्तालाप को बढ़ाना चाहिए। नहीं तो, संप्रेषण ठीक ढंग से नहीं होता है ।पूरी बातों को न समझ पाते हैं और न समझा पाते हैं।मानो जैसे दोनों हवाई फायरिंग कर रहे हों।
समाज में सम्मानित लोगों और बुद्धिजीवियों से कैसे बातें की जाए? किसी रूठे पत्नी या दोस्तों को कैसे मनाया जाए? मूड खराब होने पर कैसे ठीक किया जाए? इसमें भाषा-शैली काफी महत्व रखता है। भाषा ही बीड़ा खिलवाता है और भाषा ही पिटाई करवाता है। मीठी और तीखी बोली सुखद और दुखद अनुभव करा ही देती है। मीठी आवाज कानों में रस घोल देती है। तीखी आवाज जैसे आंखों में मिर्ची डाल गई हो। तीखी बातें करने वालों को लोग मिर्ची ही कहते हैं। एक सखी दूसरी सखी को काली जीरी तथा दूसरी पहली सखी को चुनापोती कहती है क्योंकि एक गोरी है और दूसरी काली। तो ऐसा होता है कि रंग-रूप,चाल-ढाल तथा काम-धाम के आधार पर लोग समाज में अलग-अलग नाम बुन देते हैं।विद्यार्थी जीवन में भी रुझानों के आधार पर अपने साथियों को माइकल जैकसन, रामानुजन, आइंस्टीन, नेताजी, बड़बोले, शब्दवीर, फिलोसोफर, प्रोफ़ेसर आदि कहने लगते हैं। गांव- ग्राम, टोले-मोहल्ले में तो यह आम बात है- खलीफा जी, जुगाड़ू, सेठ जी, मुखिया जी, बोकरात, महिनका आदि आदि।
मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म में आपने देखा होगा। जब साफ किए गए फर्श को एक विद्यार्थी ने गंदा कर दिया तो खिन्न स्वीपर आग बबूला हो गया। नायक देखकर उस स्वीपर को 'प्यार की झप्पी' देता है और दो मीठे बोल बोलता है जिससे उसका मूड बिल्कुल ठीक हो जाता है। एक ऑफिस में काम करने वाला व्यक्ति 4 मंजिले पर लिफ्ट से जाता है। प्रतिदिन केबिन में बैठे चालक को मुस्कुरा कर प्लीज स्टॉप कहा करता है और वह भी मुस्कुरा कर बड़े ही शालीनता से अभिवादन करता है। उसे चौथे तल्ले पर गप्पे-सप्पे करते ले जाता है। एक दिन की बात है कि पत्नी से उस व्यक्ति का झगड़ा हो गया। मूड ठीक नहीं था। वह नाश्ता करके भी नहीं आया था। इसलिए उस दिन लिफ्ट चालक को सिर्फ स्टॉप ही कहा, वह भी मुस्कुराकर नहीं, बल्कि गुस्से में। व्यवहार से लिफ्ट-चालक खिन्न हुआ और उसे चौथे तल्ले पर बेमन से ही आंखें लाल पीली कर पहुंचा दिया। ऑफिस में भी सही ड्राफ्टिंग तथा नोटिंग नहीं करने की वजह से साहब से भी झाड़ सुननी पड़ी। शाम होने पर होटल-मोटल में उल्टा सीधा खाकर घर जाकर सो जाता है। सवेरे उनकी पत्नी दो बेड टी लाती है और दोनों एक साथ बैठकर मीठी-मीठी बातें कर चाय पीने लगते हैं। यही है भाषा में संदर्भ का कमाल।
ऐसा देखा गया है कि व्यक्ति ज्ञानवान है लेकिन शर्मिला है। वह अपनी जरूरी बातों को पूरी तरह से सामने वाले को नहीं रख पाता है। बहुत सारी बातें छूट जाती है लेकिन नेता टाइप लोग किसी व्यक्ति से भी, चाहे वह प्रभावशाली और कड़क आला अफसर ही क्यों न, धड़ल्ले से अपनी बातों को रख देता है। यहां तक कि वह खरी-खोटी भी सुना देता है।
किसी गुलाब के पौधे में लगे रंग-बिरंगे फूलों को देखकर कवि अपनी कविताओं में उसका सौंदर्य-बोध कराता है तो वैज्ञानिक उसे देखकर उसके प्रजाति, उस पर पेप्टीसाइड छिड़कने की जरूरत, अच्छी कल्टीवेशन आदि को बतलाता है। एक पर्यावरणविद उसकी सुरक्षा, जल, जीवन और हरियाली से जोड़ता है। एक लेखक तो कश्मीर की वादियों में चला जाता है और ट्यूलिप की क्यारियों से भी साक्षात्कार करा देता है। आम व्यक्ति गुलाब को देखकर लाल टूह-टूह कहता है तो उसी लाल गुलाब को अपराधिक छवि के लोग लाल खून से तुलना कर देता है। मानसिकता से निकले हुए शब्द भी संदर्भ ही है।
एक दिलचस्प कहानी है। एक महिला के पति परदेश में रहता था। वह किसी से पत्र लिखवाने गई। पत्र एक आदमी ने लिख दिया लेकिन जब पता लिखने की बात आई तो महिला इधर-उधर झांकने लगी। दरअसल वह भारतीय पुरातन परंपरा वाली महिला थी जो अपने पति का नाम नहीं लेती थी और जब कोई बच्चा मिल गया होता तो वह कहती कि बसमतिया के बाबू के नाम बता दिहलन। लेकिन जब इधर-उधर ताकने से कोई न मिला तो महिला ने पता लिखने को कहा और पति के स्थान पर खाली छोड़ देने को कहा। महिला अब क्या करें ? अब क्या करें ? उसे एक उपाय सूझा। उसने लाल रंग से पति के नाम की जगह घेरा बनाया और उसके बीच में छेद कर दिया। फिर इस पत्र को पत्र-मंजूषा में उसने डाल दिया। पत्र तो उस पते पर परदेश पहुंच गया लेकिन डाकिए को समझ में नहीं आ रहा था कि यह पत्र किसका है क्योंकि उस पर नाम नहीं लिखा था। पत्र एक पान वाले को डाकिए ने दिखाया और पूछा- अच्छा, जरा बताइए तो यह पत्र किसका है? "पान वाले ने उलट-पुलट कर पत्र को देखा और उसने बताया कि जरूर यह पत्र छेदीलाल का ही है। जाइए, उस गली में छेदीलाल जी मिल जाएंगे। कूट-भाषा सटीक मूक प्रदर्शन के बिना समझना मुश्किल है। अगर कोई व्यक्ति 'न' समझाना चाहे और सर को ऊपर -नीचे करे या 'हां', को समझाना चाहे और सर को दाएं बाएं करे। मालूम हुआ कि अर्थ का अनर्थ हो गया। संदर्भ का महत्व तो कूट-भाषा में और ही बढ़ जाता है। हम लोग जब अपने दोस्तों के पास जाते हैं तो कहते हैं। यार, एक गिलास पानी पिलाना। अंतरंगता के कारण भाषा का प्रयोग इस प्रकार होता है कि मजाक करते-करते बात गाली-गलौज तक भी आ जाती है और यह उन लोगों के लिए एक आनंदायक खेल बन जाता है। वही आदमी जब घर में एक गिलास पानी मांगता है तो कहता है, "बेटा, एक गिलास पानी तो लाना।" अगर ऑफिस में जाएगा तो वह पहले आदेशपाल से पूछेगा, "यहां पानी की व्यवस्था है।" अगर साहब उसका लंगोटिया यार रहा है तो वह आदेशपाल पर ठीक उसी तरह हुक्म चलाता है जैसे साहब। संदर्भ तो व्यक्तित्व (ज्ञान, कौशल तथा व्यवहार ) में भी जाने-अनजाने झलक ही जाता है।
भाषा सीखने-सिखाने में स्थानीय परिवेश एवं घरेलू वातावरण का काफी प्रभाव पड़ता है। जिस घर में पढ़े-लिखे लोग हैं उनके बच्चे की बोली में कुछ हद तक शुद्धता रहती है। बच्चे जब विद्यालय आते हैं तो शिक्षक को चाहिए कि उसके परिवेश को ध्यान में रखकर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया करें। वह किस सामाजिक-आर्थिक (Socio economic back ground ) पृष्ठभूमि से आया है, इसका ध्यान अवश्य रखना होगा और उसके घरेलू भाषा को विद्यालय की भाषा से प्यार से जोड़ना होगा। इस तरह से जोड़ना होगा कि उसे यह महसूस ही न हो क्योंकि मातृभाषा से सबों को काफी प्यार होता है और उसे छोड़ना बहुत मुश्किल है। जिसे हम मानक भाषा कहते हैं, उसे बाद में वह सीखने-सिखाने योग्य माहौल में सहज ढंग से सीख जाता है। उसके भाषा का भी मान रखना पड़ेगा।
संदर्भ के अनुसार एक शब्द तो कई अलग-अलग अर्थ रखते हैं जिसे उपमा और अलंकार का नाम दिया गया है। किरणें जब ओंस की बूंदों पर पड़ती हैं तो यह मोतियों के समान चमकते हैं। आप तो मेरी जिंदगी में एक किरण की तरह आई। यह भी कोई जिंदगी है, यह तो मौत है मौत। किसी बहादुर को शेर कहते हैं या फिर शेर से तुलना करते हैं। You are as brave as a lion. You are a lion.You are a lion? You are a lion! इन सभी वाक्यों के बोलने की शैली (Tone) से अर्थ बदल जाते हैं। अरे, यह अदमिया सतुआ के दमाद है न? उत्तर-त बड़ी निमन हथिन। दूसरे सखी ने जवाब दिया-----त? रनिया के ठीक से रख-- हथिन,जी। बड़ी खच्चड़ हाथिन-'---'त! तीनों 'त' के अर्थ संदर्भ के अनुसार बदल जाते है।
जब कोई व्यक्ति यदि किसी को न देखा हो और उसके बारे में कोई उसके कान में उल्टे-सीधे बातों को भर दे कि वह व्यक्ति जिद्दी है, बदसूरत है, उठाईगिरा है, जालिम है, काला नाग है, खूंखार है तो उसकी छवि उसी तरह की उसके दिमाग में बनती है। उस अनदेखे व्यक्ति की छवि इस प्रकार बन जाती है कि असली व्यक्ति जब उसके सामने आता है तो वह उसे पहचान ही नहीं पाता। वह आपने आंखों पर विश्वास ही नहीं करता, क्योंकि नकारात्मक छवि को दिमाग से निकालना आसान नहीं होता। उस व्यक्ति का स्वभाव और व्यवहार अलग ही देखता है। वह व्यक्ति उस दुष्ट आदमी से झगड़ पड़ता है जिसने उसे गलतफहमी में रखा था या कहें उसके दिमाग में गंदगी भरी थी। बात तू तू, मैं मैं तक पहुंच जाती है। देखें भाषा संदर्भ के अनुसार कैसे बदल जाती है। भाषा संदर्भ के अनुसार ही रची जाती है। भाषा की प्रतिभाषा होती है।
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