सुबोपलि-मो. जाहिद हुसैन - Teachers of Bihar

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Friday 15 January 2021

सुबोपलि-मो. जाहिद हुसैन

सुबोपलि (LSRW)

          सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना भाषा कौशल हैं जिसे संक्षिप्त रूप में 'सुबोपलि' कहा जाता है। शिक्षकों को प्रशिक्षकों के द्वारा समझाने के लिए अक्सर इसका इस्तेमाल किया जाता है। अब प्रश्न है कि सुनना क्या? बोलना क्या? पढ़ना तथा लिखना क्या? ये सभी भाषा-कौशल हैं जिसे  समझना होगा; क्योंकि कौशलों को जब तक समझेंगे नहीं तो भाषा की गाड़ी आगे बढ़ेगी कैसे? प्रशिक्षण में अक्सर लोग बोलते हैं कि सुनना, बोलना, भला! कोई कौशल है? बच्चे अपने-आप इसे सीख लेते हैं। हॉं पढ़ना और लिखना सीखने की चीजें जरूर हैं। ऐसी बात नहीं है कि यदि  कोई सुन लेता है तो वह समझता भी है। यदि वह समझेगा तो उसकी अपेक्षित प्रतिक्रिया होगी, अन्यथा नहीं। फर्ज कीजिए, किसी को 2 अण्डे लाने के लिए बाजार भेजा गया और वे दो डंडे लेकर आ गया तो क्या इसे अच्छी तरह सुनना कहा जा सकता है ? शायद नहीं। यदि सुना होता तो उसकी प्रतिक्रिया भी सही होती। सिर्फ सुन लेने और सुनकर समझने में अंतर है। बिल्कुल नहीं सुनना तो बहरापन या दिव्यांगता है लेकिन सुनकर न समझ पाना कौशल नहीं है। सुनने का मतलब यह भी नहीं है कि कोई कविता, गाना या कहानी यदि कोई सुने तो उसे हूबहू सुना दे, नहीं लेकिन यदि उसकी प्रतिक्रिया में उसका आशय या भाव बता दे तो समझा जा सकता है कि सुनकर समझा है और सुनकर समझना ही संप्रेषण है। यदि संप्रेषण नहीं होगा तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। घर में किसी बच्चे को कहा जाए कि किताब लेकर आओ। वह बच्चा कलम लेकर आ जाता है। टब लाने को कहने पर मग लेकर आ जाता है। मतलब कि वह सही से सुना नहीं। कई बार ऐसा नौकरों के साथ होता है और उसे झाड़ सुननी पड़ती है। ध्यान से सुनना, समझना और व्यक्त करना ही सुनना कौशल है और इसकी आवश्यकता वर्ग-कक्ष में पड़ती है ताकि बच्चे अच्छी तरह  शिक्षकों की बातों को समझ सकें। सुनना कौशल (listening Skill ) सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भाषा-कौशल का प्रथम सोपान है। सुनना से बोलना, बोलना से पढ़ना तथा पढ़ना से लिखना सीखना क्रमिक विकास है। सुनने और बोलने में अन्योन्याश्रय संबंध है। यदि कोई सुनेगा ही नहीं तो बोलेगा कैसे? और कोई  बोलेगा ही नहीं तो सुनेगा कैसे? यह तो दो तरफा संप्रेषण है। सुनना यदि प्रक्रिया है तो बोलना प्रतिक्रिया और बोलना यदि प्रक्रिया है तो सुनना प्रतिक्रिया। यह न्यूटन के तीसरे नियम के समान है।
          बोलना क्या है? बोलना एक प्रक्रिया है। चाहे वह परिस्थितिवश बोले या जवाब या वार्तालाप में कुछ बोले। इसीलिए तो कहा जाता है कि वर्ग-कक्ष में छोटे बच्चों को वार्तालाप करने की छूट तथा माहौल देना चाहिए। वार्तालाप से सुनने, बोलने का कौशल का विकास अनायास ही बखूबी होता है। शिक्षक बच्चों से बातचीत करें। उसके अनुभव को जानें।उसे व्यक्त करने का अवसर प्रदान करें। गॉंव में हो रहे सुखद घटनाओं का वर्णन उनसे सुनें। विभिन्न चित्रों को दिखा कर बच्चों से पूछें। यह क्या है? इसमें क्या है।  Bi-lingual Method में कहा जाता है कि यह एक कलम है । This is a pen, Direct Method  में कलम को दिखाकर This is a pen  कहा जाता है। बच्चे इशारे से समझ जाते हैं। जब कोई कोड वर्ड (Code Word) या माईम (Mime मुक प्रदर्शन) से समझ जाता है तो भला! TPR (Total physical response) से क्यों नहीं? TPR ऐसी गतिविधि है जिससे किसी भी भाषा को बिना अर्थ बताए, उसका अर्थ निकाला जा सकता है जिसे बच्चे भी आसानी से निकाल लेंगे। अगर हम रोल प्ले करते हैं और एक्शन Brush your teeth  कहकर करते हैं तो बच्चे दांतों में ब्रश करना ही समझते हैं न कि आंखों में ब्रश करना। बच्चों को बोलने के लिए उनकी झिझक को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
          प्रारंभिक कक्षाओं में बड़े बच्चों के लिए भाषण प्रतियोगिता, सेमिनार, वाद-विवाद, कविता वाचन, कहानी वाचन, अभिनय, संवाद वाचन, संवाद लेखन, तुकबंदी, मौलिक लेखन आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यालय में किया जाना चाहिए। इन सब गतिविधियों से बच्चे काफी सीखते हैं। कालांत में बच्चे काफी उबाऊ हो जाते हैं। इसलिए वे खेल, संगीत, चित्रांकन आदि से लुत्फ उठाना चाहते हैं इसलिए शिक्षण अधिगम को ध्यान में रखते हुए उनके मनोनुकूल प्रोग्राम जैसे- पहेली, चुटकुले, नाटक, रोलप्ले, एकांकी, गाना-बजाना, पाठ्य-पुस्तकों में दिए गए कहानियों, विभूतियों की आत्मकथा, जीवनी, यात्रा-वृतांत आदि को सुनाना, पाठ्य-पुस्तकों की एकांकी का मंचन करना आदि कार्यक्रम किए जा सकते हैं जिससे वैसे बच्चों को भी फायदा होगा; जो वर्ग-कक्ष में ध्यान लगाकर नहीं सीख पाते। वे खेल-खेल में आसानी से  आनंददायी वातावरण में सीख जाते हैं। इस सत्र का कुछ नाम भी दिया जा सकता है, जैसे बालमन-सत्र, प्रेरणा-सत्र, बाल-मंच, बाल-प्रतिभा, सृजना, आज की शाम, आकांक्षा आदि।
          चेतना-सत्र में प्रेरक कहानी, प्रेरक प्रसंग, उड़ती-फुड़ती खबरें, चुटकुले, समाचार पत्र वाचन, बापू की कहानी, पहेली, प्रहसन बच्चे का अनुभव आदि का आयोजन प्रतिदिन अलग-अलग टीम बनाकर किया जाना चाहिए। बाल-समाचार पत्र (Children's newspaper) निकाला जाना चाहिए जिसमें बच्चे ही संचालक होंगे। वही संपादक, वही रिपोर्टर, वही लेखक, वही कवि, वही कार्टूनिस्ट तथा वही आर्टिस्ट आदि होंगे। बस, शिक्षक का कार्य सुगमकर्ता की होगी। बच्चों के लिए विद्यालय के एक कोने में एक चिल्ड्रन कॉर्नर (Children corner) भी होना चाहिए। इसके द्वारा बच्चे अपनी-अपनी समस्याओं और विचारों की ओर शिक्षकों का ध्यान आकृष्ट करा सकते हैं। बाल-मंच, मीना-मंच के सुझावों को कार्ययोजना में शामिल किया जाना चाहिए। शिक्षक उनकी बातों को नोटिस करें। 'आज का विचार' तो चेतना सत्र से पहले ही शिक्षकों या बच्चों के द्वारा लिख दिया जाना चाहिए।
          पढ़ना सुनने-बोलने का ही क्रमिक विकास है। वर्ग में स्वर वाचन एवं मौन वाचन दोनों ही होते हैं। स्वर वाचन से ध्वनियों का अभ्यास होता है, उच्चारण सधते हैं तथा मौन वाचन में ध्यान की प्रबलता होती है। ऐसा देखा गया है कि स्वर पाठ जोर-जोर से कर रहे होते हैं लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि जो आप पढ़ रहे हैं उसमें क्या लिखा हुआ है? तो वह शायद ही सही से जबाब दे पाते हैं क्योंकि उसका ध्यान स्वर पाठ पर ही केंद्रित होता है, समझने में थोड़ा कम। जबकि ऐसा भी देखा गया है कि मौन वाचन करने वाले अखबार पाठक से अगर घटनाओं के बारे में पूछा जाए तो वह तड़ से घटनाओं का सारांश बखान कर देते हैं। शब्द-पाठ भर ही पढ़ना नहीं है बल्कि समझ-समझकर पढ़ना ही कौशल है, फिर उसे दूसरे को समझाने की भी समझ  होनी चाहिए। फोनिक ड्रिल (Phonic Drill) पढ़ना सिखाने में अनोखा नुस्खा है, चाहे कोई भी भाषा क्यों न हो। कल, कम, कब कट, कण, कट, कर आदि---फोनिक ड्रिल का उदाहरण है। अंग्रेजी में Fat, Cat, Rat, Sat ,Hat, Bat, Mat, Pat,Tat एवं उर्दू में من۔مل۔مگ۔مت۔مر۔مد۔۔۔۔। हिंदी के बारह खड़ी  और इंग्लिश के Vowels की ध्वनि-विज्ञान (Phonetics) को  समझा दिया जाए तो पढ़ना बिल्कुल आसान हो जाता है। यह मौखिक सिखाना बिल्कुल आसान है। a e i o u की विभिन्न आवाज क्या-क्या निकाले जाते हैं? पहले उसे बताना जरूरी है। उदाहरण स्वरूप -a को अ, आ, ए, ऐ e को इ, ए, i को आई, ई, o को अ, ओ, औ तथा u को अ, यू आदि अन्य वर्णों में मिलाकर  शब्दों को पढ़ा जाता है। पढ़ना शुद्ध रूपेण मानसिक प्रक्रिया है। अगला शब्द क्या हो सकता है? पढ़ने से पहले इसकी छवि दिमाग में बनी रहती है। बस! हल्की नजर पड़ती है और अनायास ही अगले शब्द या पंक्ति मुखर हो जाते हैं। अभ्यास करते-करते कुशलता इतनी बढ़ जाती है कि सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना, सब अवचेतन मन में रच-बस जाते हैं और फिर भाषा उसके लिए खेल बन जाता है। बच्चे जब वर्ग कक्ष में प्रश्नों की बौछार करतें हैं तथा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि बच्चों में सीखने की प्रक्रिया प्रबल है। जब वे धारणाओं से जादूगरी करने लगे तो समझ लें कि उनमें कुशलता या दक्षता आ गई है।
          TPR (Total Physical Response ), TPI (Total Physical Interaction) बच्चों को बोलकर एवं शारीरिक हलचल या अंतः क्रिया के द्वारा सिखाने की बहुत प्रभावकारी तकनीक है। बच्चे प्रत्येक भाषा का अर्थ निकाल (Interprete ) लेते हैं, बशर्ते कि शिक्षक का अभिनय  (Action ) सटीक हो। Mime (बिना बोले अभिनय कर अर्थ समझा देना) तथा कूट-भाषा से ज्यादा TPR  महत्वपूर्ण है जिसमें बच्चे आसानी से किसी भी शब्द या वाक्य को शिक्षक के साथ बोलकर अर्थ निकाल लेते हैं। विदित हो कि 'English is fun' रेडियो पर एक प्रोग्राम चलाया गया था। इस प्रोग्राम में भी TPR का इस्तेमाल किया गया था जिसमें एक शिक्षक की अहम भूमिका होती थी। जब रेडियों में Stand up  कहा जाता था तो शिक्षक खड़े हो जाते थे। उसके साथ बच्चे भी खड़े हो जाते थे। जब Sit down कहा जाता था तो शिक्षक बैठ जाते थे, बच्चे भी उन्हें देख कर बैठ जाते थे। जब रेडियो में Clap your hand उद्घोषक बोलते थे तो क्षक ताली लगाते थे, बच्चे भी उन्हें देखकर ताली लगाते थे। जब Snap your finger कहकर शिक्षक चुटकी बजाते थे तो बच्चे भी चुटकियां बजाने लगते थे। इस तरह वे पूरी तरह से बिना शब्दार्थ बताए शारीरिक अंतः क्रिया से उन वाक्यों का अर्थ निकाल लेते थे। अचरज की बात यह थी कि नन्हे बच्चे भी अर्थ को समझ जाते थे।
          पढ़ना क्या? क्यों? कैसे? पढ़ना सीखने के लिए भी फोनिक ड्रिल (Phonic Drill) बहुत ही कारगर है। फोनिक ड्रिल में बोलने के साथ पढ़ना भी होता है। बस, इसके लिए  बारह खड़ी और Vowels का इस्तेमाल Consonants के साथ कैसे होता है? का अभ्यास  शिक्षक बोलकर बच्चों से करायेंगे। इसे पॉकेट बोर्ड और फ्लैश कार्ड के द्वारा रोचक एवं आनंददायक बनाया जा सकता है। पॉकेट बोर्ड में कार्ड को बदल-बदलकर बच्चे विभिन्न शब्दों या वाक्यों को पढ़ने में सक्षम हो सकेंगे। यदि बच्चे स्वयं इस प्रक्रिया को करेंगे तो उनके मस्तिष्क में घर कर जायेंगे। पढ़ना कौशल (Reading Skill) विकसित करने के लिए शिक्षण-अधिगम सामग्री (TLM) बच्चों के द्वारा ही बिना खर्च (No Cost) या कम खर्च (Low Coste) में बनाया जाना चाहिए क्योंकि इससे बच्चे उन्हें  संभाल कर रखेंगे। कार्डबोर्ड पर विभिन्न वर्ण या Letter लिखा जा सकता है और उसे विभिन्न तरह से उलट-पलटकर, इधर-उधर कर, दूसरे वर्ण या शब्द को रखकर तरह-तरह के शब्द एवं वाक्य की रचना आनन्दायी ढंग से कर सकेंगे। बिना खर्च के फ्लैश कार्ड रैपर के सादे भाग से  बनाया जा सकता है। 
          पढ़ना सीखने के लिए रैपर का इस्तेमाल भी कारगर है।कपड़े, जूते, साबुन, टॉर्च, अखबार, कैलेंडर, चाॅकलेट या कोई भी सामान से निकले रैपर को कबाड़ से जुगाड़ कर उसका सकारात्मक उपयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है। स्वरों (Vowels) की ध्वनियों का ज्ञान होने के बाद वर्ण-विचार, शब्द-विचार, वाक्य-विचार, अनुच्छेद तथा कहानी आदि सीखना सरल हो जाता हैं। शब्दों (Words) को तोड़-तोड़ कर बारह खड़ी या 44 Souds को सिखाया जा सकता है। शब्दों तथा वाक्यों को तोड़-तोड़ कर बच्चे आसानी से पढ़ लेते हैं। फिर वे पूरे शब्द या वाक्य पढ़ने में कामयाब हो जाते हैं। उदाहरण स्वरूप- अभि यान=अभियान, टी का=टीका, लग भग=लगभग आदि। Bea u ti ful=Beautiful, S tu dent =Student, Te le vi sion=Television, S tu pid=Stupid, इस तरह बच्चे पढ़ना आसानी से सीख जाते हैं। फिर यह तो पढ़ने भर ही होगा। समझना तो आगे की प्रक्रिया है जो पढ़ते-पढ़ते समझ में आने लगती है। शिक्षक Mime, TPI, Action, ड्रामा, डायलॉग, आईसीटी का उपयोग कर अच्छा अधिगम प्रतिफल (Learning  Outcome)ले सकते हैं। बच्चे की प्रवृत्ति होती है कि जब बच्चे थोड़ा भी पढ़ना सीख जाते हैं तो साइन बोर्ड होर्डिंग्स, समाचार पत्र की सुर्खियां, धारावाहिक या फिल्म के नाम, पात्रों के नाम, रैपर आदि पढ़ने की उत्सुकता उनमें जागॄत हो जाती हैं और धीरे-धीरे अनुभव से सभी तरह के भाषा कौशल प्राप्त कर लेते हैं। 
          लिखना भाषा कौशल का अंतिम सोपान है। तीनों कौशलों के बिना भाषा नहीं होती। केवल वर्णों, शब्दों या वाक्यों को उतार भर लेने से लिखना नहीं आता। बस! यह केवल आड़ी-तिरछी रेखा या चित्र के समान होता है। बच्चों के लिए अक्षर या वर्ण विल्कुल चित्र जैसा ही है। यही वजह है कि स्थूल से सूक्ष्म या कहें कि चित्र से वर्ण, वर्ण से शब्द, फिर शब्द से अनुच्छेद तथा कहानी (भाषा एवं साहित्य की ओर) पहुंचा जा सकता है। क ल म का ज्ञान कराना हो तो पहले कलम का चित्र बनाना होगा और उसके नीचे कलम शब्द लिखना होगा, फिर उसे तोड़-तोड़ कर शिक्षक बोलेंगे। आखिरकार बच्चे पुर्नावृति कर पढ़ना और लिखना सीख जाते हैं। जिन वर्णों को सिखाया जाना हो उसके अनुसार चित्रों को बनाना होगा। प्राथमिक तथा प्रारंभिक कक्षाओं की पुस्तकों में चित्र की भरमार है। वर्णों की पहचान इसी प्रकार करवाई जाती है।मनोहर पोथी या किंग रीडर के बरसों पुरानी पद्धति को भी कभी नकारा नहीं जा सकता। मनोहर पोथी में दो वर्ण वाले शब्द, तीन वर्ण वाले शब्द, चार वर्ण वाले शब्द, 5 वर्ण वाले शब्द, बिना मात्रा वाले शब्द, मात्रा वाले शब्द फिर वाक्य बनाना, फिर अनुच्छेद पर आना तथा फिर कहानी पढ़ने की क्षमता या फिर किंग रीडर में फोनिक ड्रिल भरमार है। अंतर बस इतना ही है कि नवीन पद्धति में चित्र से वर्ण तक लाना टिकाऊ होता है, बच्चे के मस्तिष्क में घर कर जाते हैं। लाहौर वाला पुराना उर्दू कायदा बहुत ही वैज्ञानिक है। 
          दुनिया की सारी भाषाएं 9 स्ट्रोक्स से बनती हैं चाहे हिंदी हो, उर्दू हो या फिर फ्रांसीसी ही क्यों न हो। 9 स्ट्रोक्स (Strokes) हैं_  \  |  /  (    ) ..... ○ बच्चों को 9 स्ट्रोक्स का अभ्यास शुरुआती दौर में स्केच, पेन, पेंसिल आदि से प्रैक्टिस करवाया जाना चाहिए।  बहुत छोटे बच्चे को स्केच पेन से Drawing and colouring करवाया जाना चाहिए। फिर आगे 9 स्ट्रोक्स का अभ्यास कराना चाहिए। बच्चों में प्रवृत्ति होती है कि जब उसके हाथ में कलम आ जाए तो वे आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगते हैं। विद्यालयों में आनंददायी कक्ष में निचले हिस्से पर श्यामपट्ट बना दें ताकि बच्चे उस पर अपनी मर्जी से लिख सकें। फिर अनुलेख, प्रतिलेख, श्रुतलेख तथा सुलेख आदि करवाया जाए। उंगलियों को हवा में घुमा कर वर्णों की आकृति बनवाई जा सकती है जिसे फिर स्लेट या कॉपी पर लिखवाया जा सकता है, बच्चे जिधर भी जायेंगे, हवा में वर्णों को अभ्यास करते दिख जायेंगे। यह उसके लिए खेल बन जाता है फिर यही अभिवृत्ति उसे पढ़ना लिखना सिखा देती है। यदि S लेटर का उच्चारण सिखाना हो तो SUN के चित्र बनाकर उच्चारण करवाया जाता है। इस तरह S को पहचान जाते हैं। इसी तकनीक से सभी Letters की पहचान टिकाऊपन के साथ करवा दी जाती है। फिर धीरे-धीरे लिखने के लिए भी सीख जाते हैं। 
          लिखावट एक दस्तावेज है, जिसे हमेशा पढ़ा जाए। बहुत से लोगों की लिखावट स्पष्ट न रहने के कारण दूसरों के द्वारा नहीं पढ़े जाते। यहां तक कि कुछ लोग ऐसा लिखते हैं कि अपनी लिखी हुई बातों को बाद में सही ढंग से नहीं पढ़ पाते। सुलेख एक तोहफा है। अतः लिखावट में अभ्यास का काफी महत्व है। बोल-बोलकर लिखवाना (Dictation) शिक्षकों की खूबियां हैं। बस, इतना है कि क्रमानुसार बच्चों के वर्ग एवं स्तर (MGML-Multi-Grade Multi-level) का ख्याल रखना है।
        मुख्य रूप से तीन तरह की गतिविधियां हैं। मौखिक, लिखित तथा सामग्री आधारित गतिविधियां। तीनों गतिविधियों को एक-दूसरे में सुविधानुसार उपयोग में लाया जा सकता है। मौखिक को लिखित गतिविधि में आसानी से बदला जा सकता है। सामग्री गतिविधि को मौखिक तथा लिखित गतिविधि में परिवर्तित किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप- कुछ शहरों के बारे में बच्चों से बारी-बारी से पूछा जाए फिर उसे कॉपी पर लिखित करवाया जाए। फिर लैंग्वेज मैजिक आदि एक्टिविटी करवाए जा सकते हैं। उदाहरण स्वरूप- अंतराक्षरी के समानI  I am a student. Tea is  hot. The headmaster is a very good person.----------- ---------------------इस तरह की गतिविधियां करीब-करीब सभी भाषाओं में की जा सकती हैं। सरल से सरल, कठिन से कठिन। सरल छोटे बच्चों के लिए और कठिन बड़े बच्चों के लिए। शुरुआत सरल से करना चाहिए फिर धीरे-धीरे कठिन से। कल्पनाशीलता एवं सृजनात्मकता के लिए कहानी को कविता में, कविता को कहानी में रूपांतरण मौलिक लेखन कला की ओर ले जाता है। इस तरह की गतिविधियां बाल-पुस्तकालयों में करवाया जा सकता है।
          बच्चों में सोचने-समझने, खोजी प्रवृत्ति, परखने की क्षमता, सृजनशीलता, मौखिक-लेखन आदि  के सहजात गुण होते हैं। बच्चों से कैसे प्रश्न किए जाएं ताकि वे लिख सकें? उदाहरण स्वरूप- तुम पंछी होते तो क्या करते? यदि तुम्हें मुखिया या मुख्यमंत्री बना दिया जाए तो तुम क्या-क्या करोगे? राजगीर को मगध की राजधानी क्यों बनाई गई होगी? गाय पर लेख की पुरानी परंपरा को छोड़नी होगी। अक्सर शिक्षक कुछ नहीं तो बच्चों को गाय पर लेख लिखने के लिए कह देते हैं। गाय एक चौपाया जानवर है। गाय के दो सिंग होते हैं और दो कान होते हैं और एक पूंछ होती है। गाय दूध देती है। गाय घास खाती है---------। यह रटा-रटाया लेख होता है। ताज्जुब है कि बच्चों से शिक्षक भी इसी तरह का लेखन की अपेक्षा करते हैं जो गलत है। शिक्षक का कार्य ऐसी परिस्थिति की रचना करना है कि बच्चे सहज ढंग से सोचने पर मजबूर हो जाए और सहज ढंग से मौलिक लेखन करें। गाय पर लेख के एक पृष्ठ  में यदि 'गाय' शब्द की गणना की जाए तो मालूम हुआ कि गाय शब्द का ही इस्तेमाल 15 बार हुआ है। यह पुरानी परिपाटी छोड़नी होगी तभी सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, मौलिक लेखन की ओर बच्चों को ले जाया जा सकता है।
           व्याकरण, जिसे अंग्रेजी में ग्रामर (Grammar) कहते हैं, वास्तव में इसे 'गिरा -- मरा 'कहना उचित है। सवाल है कि पहले भाषा बनी या व्याकरण। उत्तर है :भाषा। इसलिए बच्चों को सीधे-सीधे शुरुआती दौर में भाषा सिखाने के लिए वाक्यों को बोल-बोल कर अभ्यास कराएं फिर बाद में पाएंगे कि उन वाक्यों में व्याकरण समाहित होंगे। फिर बाद में उसे व्याकरण पर आसानी से ले जाएं। वाक्यों की पुनरावृत्ति  Grammar तक ले आती है। अभ्यास के बाद बच्चे कभी भी I is  a  boy  नहीं कहता बल्कि वह I am a boy ही कहता है। English is caught, not taught. पर्यटन क्षेत्र में हम देखते हैं कि अशिक्षित व्यक्ति भी जो हैं वे अंग्रेजी, सिंहली जापानी आदि भाषा में बातें कर अपना सामान बेचते हैं। यह लाल किला, मथुरा, इंडिया गेट, वैशाली, ताजमहल, राजगीर आदि जगहों पर देखा जा सकता है।
          CBTL (Content-based Teaching Learning) भी एक अच्छी तकनीक है जिसमें विषय-वस्तु को सीधे-सीधे बिना शब्दार्थ और व्याकरण बताएं ही सिखाया जाता है। शब्दों के प्रयोग और बीच में ही व्याकरण वाक्यों की पुनरावृति से अपने-आप ही समझ में आ जाती है। शीर्षक पर आने के लिए शिक्षक में Warm up की कला होनी चाहिए। फिर Lead up लेनी चाहिए। बड़े-बड़े वाक्यों को छोटे-छोटे सरल वाक्यों में समझाया जाता है ,ताकि गद्य -पद्य स्पष्ट हो जाए। वाक्यों के तरह-तरह से इस्तेमाल कर प्रैक्टिस करवाई जाती है, जिससे संदर्भ के अनुसार शब्दों तथा वाक्यों का Interpretation हो जाता है,इसके लिए शिक्षकों में तकनीक होनी चाहिए। तकनीक ऐसी हो कि व्याकरण के तत्वों को भी उदाहरण से मस्तिष्क में आत्मसात करा दे। इससे  सिर्फ भाषा ही नहीं, बल्कि साहित्य का भी विकास होता है। भाषा तो संप्रेषण भर है, लेकिन साहित्य जिंदगी का आईना है। कहानी,कविता,जीवनी,आत्मकथा,
यात्रा-वृतांत, एकांकी,नाटक,दोहे, साखियां,प्रहसन ,कहावत, उपन्यास आलोचना आदि के द्वारा रूबरू कराया जाता है।
           स्कूल के पुस्तकों के अनुसार अनुस्वार वाले ,बिंदु वाले, चंद्रबिंदु वाले शब्दों, संयुक्ताक्षर,स्त्रीलिंग- पुलिंग आदि की सूची छोटे बच्चों से करवाया जा सकता है। बड़े बच्चों से मुहावरे, अलंकार वाले , तत्सम, तद्भव ,देशज ,विदेशज शब्दों को ढूंढने को कहा जा सकते है और उसे संग्रह कर पुस्तिका बनाई जा सकती है, ताकि इससे अन्य विद्यार्थियों को लाभ हो सके। यदि स्त्रीलिंग -पुलिंग की धारणा को बच्चे के अवचेतन में  पहुंचाना चाहते हैं तो नगमें या गाने, कविताओं,पाठ्यपुस्तकों के लिंग- निर्धारित वाक्यों से आराम से बच्चों  के मस्तिष्क में आत्मसात  कराया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप --मुझे नींद न आए,मुझे चैन न आए। काली- काली आंखें, गोरे-गोरे गाल। जिंदगी प्यार का गीत है। कि तेरी-मेरी कहानी है। मालिक ने हमें बक्शी थी एक ही धरती, हमने उसे भारत कहीं ईरान बनाया। इनसे लिंग निर्णय हो जाता है। इस तरह गानों और कविताओं से लिंग निर्णय बच्चे आसानी से सीख जाएंगे। इस बात को शिक्षक ध्यान रखें कि गाने फूहड़ न हों।ज्यादातर  भक्ति,देश- भक्ति, सरस सलिल, राष्ट्रीय गीत जैसा हो।
          कुछ -कुछ शब्द तो अपने- आप ही अपना इतिहास को व्यक्त करता है जैसे -Circle  से Bicycle  बना,Salt से salary,सब्जी मंडी विवाहोत्सव, हार्दिक आदि । क्या दो  अलग-अलग भाषाओं के जानकार एक दूसरे से विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। उत्तर है: नहीं। दोनों को एक ही भाषा-भाषी होना जरूरी है,तो ऐसा नहीं है कि वे  भाषा नहीं हैं।अपने-आप में ये भाषाएं हैं। चाहे फ्रेंच हो,फिर रूसी हो।
              एक बहुत ही दिलचस्प कहानी है।जब एक ग्रेजुएट गवाह कोर्ट में गवाही देने गया तो वकील यह जानकर उससे अंग्रेजी में सवाल करने लगा कि वह ग्रेजुएट है, इसलिए अंग्रेजी में ही जवाब दें। लेकिन गवाह  ग्रेजुएट जरूर था,लेकिन वह अंग्रेजी ठीक-ठीक  समझ नहीं पा रहा था। इसलिए वकील साहब के सवाल का जवाब सही से दे पाने में सक्षम नहीं था। लेकिन वकील साहब हैं कि धड़ाधड़ अंग्रेजी में ही सवाल किए जा रहे थे। गवाह बार-बार जज साहब से अनुरोध कर रहा था कि वकील साहब को आदेश दिया जाए कि वह हमसे अंग्रेजी के बजाय हिंदी में ही सवाल करें।मैं हिंदी में जवाब देने में सहज हूँ,  लेकिन जिरह अंग्रेजी में ही चलती रही।गवाह बहुत चालाक था। उसने तरकीब निकाली," हुजूर ,मैंने फारसी भी मौलवी साहब से पढ़ी है और मैं अच्छी तरह से जानता हूं।वकील साहब अंग्रेजी में सवाल करें लेकिन मैं फारसी में ही जवाब दूंगा।मैं उम्मीद करता हूं कि काबिल वकील साहब फारसी को जरूर समझेंगे और फिर फारसी में ही सवाल करेंगे। इतने में वकील साहब को बात समझ में आ गई और फिर वह हिंदी में ही सवाल करने लगा।
            भाषा केवल संप्रेषण काआ माध्यम ही नहीं है,बल्कि कल्पना, चिंतन तथा स्वप्न आदि में भी भाषा चलती रहती है।आइंस्टीन कहा करते थे कि मेरा दिमाग ही एक प्रयोगशाला है।
           भाषा शिक्षण के विभिन्न पहलुओं,जैसे-सुनना ,बोलना ,पढ़ना लिखना ,समझना ,तर्क करना, जिज्ञासा,अनुकरण,अभ्यास आदि को ध्यान में रखकर मूल्यांकन करने से सीखने-सिखाने की प्रक्रियाएं स्वाभाविकता लाती है।भाषा एक कौशल प्रधान विषय है ,जिसे जानना अवश्यंभावी है।कौशल का सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन(CCE) किया जाता रहना चाहिए। जब कभी भी बात करनी होगी, हम हिस्ट्री-केमिस्ट्री में नहीं करेंगे बल्कि भाषा में ही करेंगे। अतः भाषा अनमोल है।


मो. जाहिद हुसैन

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