मातृभाषा ही पढ़ाई का माध्यम हो-हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

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Wednesday 6 January 2021

मातृभाषा ही पढ़ाई का माध्यम हो-हर्ष नारायण दास

मातृभाषा ही पढ़ाई का माध्यम हो

          जन सामान्य की धारणा है कि अंग्रेजी पूरी दुनिया में सबसे अधिक बोली जाती है इसलिए हमें अपने बच्चों को प्रारम्भ से ही अंग्रेजी में शिक्षा दिलानी चाहिए। यह मान्यता सही नहीं है। सबसे ज्यादा लोग चीनी बोलते हैं, उससे कम अंग्रेजी बोलते हैं तथा उससे थोड़े ही कम लोग हिन्दी बोलते हैं। दुनिया के विकसित देशों जैसे- जापान, फ्रांस, जर्मनी, रूस और चीन में पूरी शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही होती है। जिस व्यक्ति का अपनी मातृभाषा पर पूरा अधिकार हो उसे दूसरी भाषा सीखना सरल हो जाता है। अंग्रेजी को महत्व दें लेकिन आरम्भ से ही बच्चों पर मातृभाषा को छोड़कर दूसरी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने का भार डालना उचित नहीं है। इससे बच्चे के ऊपर मानसिक और परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ जाता है। बच्चों से जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएँ रखने से बच्चे दबाव में जीवन जीते हैं। फलस्वरूप उनका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होता है। मातृभाषा में पढ़ना बच्चों को बोझ नहीं लगता है। पूरी दुनिया के शिक्षा शास्त्री प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में कराने की सिफारिश करते हैं। वर्त्तमान में भी यदि आँकड़े इकठ्ठे किये जाएं तो इस समय जो डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या बड़े अफसर हैं वे प्रारम्भ में मातृभाषा में ही पढ़कर आए हैं।
          किसी भी भाषा को बोलने के लिए लगभग 800 शब्दों का ज्ञान होना आवश्यक है। अँग्रेजी भाषा के लगभग 300 शब्दों को तो हम प्रायः बोलते रहते हैं जैसे-रोड, रेल, स्टेशन, पोस्ट आदि। शेष 500 शब्द जान लेने पर तीन महीने के अभ्यास से हम अँग्रेजी बोलना सीख सकते हैं। अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ से ही बच्चों पर दबाव डालना कहाँ तक उचित है। एक गिलास पानी के लिए कोई कुआँ नहीं खोदता है। बच्चों का प्रारम्भिक शिक्षण मातृभाषा में न कराना उसके स्वाभाविक विकास में अवरोध उत्पन्न करना है।
आप यह कह सकते हैं कि मातृभाषा में पढ़ा बालक आगे चलकर उच्च कक्षाओं में कैसे पढ़ेगा, जहाँ अंग्रेजी में ही शिक्षण होता है, तब उसे पढ़ने में कठिनाई होगी। वस्तुतः यह मान्यता गलत है। किशोरावस्था में उच्च कक्षाओं की पढ़ाई में समस्या आएगी, यह सोचकर किसी के बचपन के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। तरुणाई के लिए कोई अपना बचपन क्यों खोए? बच्चा जब तरुण होगा तो एक विषय के रूप में वह अंग्रेजी को भी सीख लेगा। उस आयु में उसकी क्षमताएँ भी बढ़ जाती हैं। एक विषय के रूप में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान वह प्रारम्भ से प्राप्त कर रहा है। अतः उसे परेशानी नहीं होगी। अन्य विषयों को मातृभाषा में ही पढ़ाना उचित रहेगा। तरुणावस्था में तूफान का सामना करना पड़ेगा इसलिए कोमल बच्चे को बवंडर में झोंक देना कहाँ तक उचित है। इससे बालक की सृजनात्मक शक्ति का अपव्यय होता है।दूसरी भाषा में पढ़ने से पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा होती है।
आप यह कह सकते हैं कि सारी दुनिया में अंग्रेजी का बोलबाला है, ऐसे में अंग्रेजी माध्यम से बालक को पढ़ाने में कौन सा बोझ पड़ने वाला है? इस संदर्भ में निवेदन यह है कि बच्चा गर्भकाल में और फिर शैशवकाल में मातृभाषा सुनता और उसका अनुकरण करके बोलता है। भाषा शिक्षण के चार चरण हैं--सुनकर समझना, बोलना, पढ़ना और लिखना। इनमें से प्राथमिक दो चरण सुनकर समझना और बोलना उसे आता है, मात्र पढ़ना और लिखना सीखना होता है। शब्दभंडार उसके पास होता है। अंग्रेजी में पढ़ने के लिये उसे जो विषय गणित, विज्ञान आदि आत्मसात करने होते हैं, उसे रटने पड़ते हैं। इस प्रकार उसके जीवन की बुनियाद ही कच्ची रह जाती है। समझ का विकास नहीं होता है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाला बालक प्रातः विद्यालय, दोपहर ट्यूशन और सायंकाल होमवर्क करता है। उसे खेलने के लिए समय नहीं मिलता जिससे उसके व्यक्तित्व का चहुमुखी विकास नहीं हो पाता। वह बचपन को नहीं जी पाता। हम उसे बाल मजदूर बना देते हैं, हम उसका बचपन छीन लेते हैं, उस पर बोझ बढ़ाकर उसकी प्राकृतिक शक्तियों को दबा देते हैं। बच्चे को जिस भाषा में सपना आता हो, उसी में उसकी पढ़ाई चले, यही उसके हित में है।
          हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले बालक का अंग्रेजी ज्ञान कमजोर रहता हो, ऐसा नहीं है। वह अंग्रेजी विषय में अच्छे अंकों को प्राप्त करेगा। सच्चाई यह है कि अभिभावक ही लघुता अनुभव करते हैं। हमने बच्चों के दिमाग में यह ठूँस-ठूँसकर भर दिया है कि अंग्रेजी बोलने वाला महान होता है। यह हीनता की भावना हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए।इंग्लैंड में बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी अंग्रेजी बोलता है तो क्या वह विद्वान हो जाता है? अनपढ़ भारतीय भी इंग्लैंड चला जाए तो 6 महीने में अंग्रेजी बोलने लगता है तो क्या 6 महीने में वह बहुत योग्य और विद्वान हो जाता है। गणित और विज्ञान जैसे विषय रटने के नहीं, समझने के हैं। जो ज्ञान आत्मसात करना हो उसे मातृभाषा में ही पढ़ना चाहिए तभी वह सरलता से समझ में आएगा।
        मातृभाषा में पढ़ाने वाले बहुत से अच्छे विद्यालय हैं।अच्छे स्कूल की पहचान बढ़िया भवन, आधुनिक फर्नीचर, टाई-बैल्ट, जूते-मौजे, लंच बॉक्स और वाटर बोटल से नहीं होती है। यह सब तो बाहरी चमक दमक और शानो शौकत की चीजें हैं, इनसे हमें प्रभावित नहीं होना चाहिए। इनका पढ़ाई से कोई संबंध नहीं है। अच्छे विद्यालय के केन्द्र में बालक होता है जहाँ छात्र का सर्वांगीण विकास हो सके वह अच्छा विद्यालय है। अंग्रेजी  माध्यम के बच्चे बिना ट्यूशन के नहीं चलते जबकि हिन्दी माध्यम वाले बच्चे स्व-अध्ययन से ही आगे बढ़ जाते हैं।मातृभाषा में पढ़नेवाले बच्चों को उनके माता-पिता भी मदद कर सकते हैं। पढ़ाई, ट्यूशन और होमवर्क का बोझ लादकर हमें बच्चे का बचपन छीनने का क्या अधिकार है? क्या उसे खेलकूद, मनोरंजन का आनन्द नहीं मिलना चाहिए?
अंग्रेजी विद्यालयों का अनुशासन स्वयं स्फुरित नहीं होता, वह उनपर थोपा गया होता है। बच्चों को मातृभाषा में बात करने पर सजा मिलती है, अर्थात उन्हें अपनी मातृभाषा में से अलग रखने का षडयंत्र रचा जा रहा है, उसे प्रकृति से दूर किया जा रहा है। थोपा गया अनुशासन बाहर आते ही समाप्त हो जाता है। बच्चे को दोहरा जीवन जीना पड़ता है। 
          बच्चों के अभिभावक सोचते हैं कि पड़ोस के बच्चे अंग्रेजी में पढेंगे तो हमारा बच्चा हिन्दी माध्यम से पढ़ने में हीनता का अनुभव करेगा। सच्चाई यह है कि बच्चे नहीं, उनके अभिभावक ही हीनता अनुभव करते हैं। पड़ोसी का बच्चा ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार गाता तो है लेकिन उसे उसका अर्थ नहीं मालूम होता। तोता को जैसे कुछ रटा दिया जाता है, वैसे ही वह बोलता है। मातृभाषा में पढ़ने वाला बच्चा गीत गाता है तो उसका अर्थ समझता है और गर्व के साथ गाता है।कविता उसके ज्ञान को भी बढ़ाती है। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाकर हम बच्चे को बाल मजदूर बना रहे हैं। मातृभाषा में पढ़ाना हमारे लिए गौरव की बात होनी चाहिए। अन्य भाषाएँ मातृभाषा की बुनियाद पर ही सीखी जाती है। हम अपने बच्चों को मातृभाषा और मातृभूमि से प्यार करना सिखाऐं, उसका आत्मगौरव जगाएं तो लघुता ग्रंथि का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं रहेगा। बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएं या मातृभाषा वाले स्कूल में, इसका निर्णय आप स्वयं अपनी विवेक बुद्धि और दूर दृष्टि से करें, दूसरों की देखा-देखी नहीं।अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने का पागलपन समाज में व्याप्त है, आप इस प्रवाह में न बहें।आप अपने क्षेत्र के डॉक्टर, इंजीनियर, एम. बी. ए, सी० ए और अन्य विद्वानों से पूछे कि वे किस माध्यम  से पढ़कर आये हैं तो आपकी समस्या का समाधान मिल जाएगा। कितने ही बच्चों को प्रारम्भ में शौक-शौक में अभिभावक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते हैं। जब वह नहीं चल पाता है तो पुनः हिन्दी माध्यम में पढ़ता और अच्छा छात्र सिद्ध होता है। अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणामों पर नजर डालें तो मातृभाषा में पढ़े बालक अंग्रेजी भाषा में पढ़े छात्रों से आगे निकल जाते हैं। उच्च शिक्षा में माध्यम अंग्रेजी होता है। हिन्दी माध्यम के छात्रों को प्रारम्भ में कुछ दिन परेशानी आती है लेकिन शिघ्र ही वह विकास की गति  को पकड़ लेता है क्योंकि उसकी मातृभाषा में शिक्षा होने के कारण उसकी ग्रहणशक्ति, समझशक्ति, तर्कशक्ति, मूल्यांकन शक्ति, समझदारी अधिक होती है। गणित और विज्ञान जैसे विषयों में इसी की आवश्यकता पड़ती है। अंग्रेजी स्कूल का छात्र यह विषय रटता है।
          बालक की10 वर्ष तक की उम्र में उसके संस्कारों का सिंचन होता है। यह कोमल भावनाओं की उम्र है। इस उम्र में बुद्धि के विकास की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। आगे चलकर उसकी बुद्धि और तर्कशक्ति का विकास होगा। संस्कार मातृभाषा में ही दिए जा सकते हैं। पहले बुनियाद डालनी पड़ती है, ऊपर की मंजिल बाद में बनती है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे, शिक्षाशास्त्री गुणवंत शाह, डॉक्टर जयंत नार्लीकर जैसे सभी विद्वानों का मत है कि मस्तिष्क के विकास के लिए मातृभाषा में ही शिक्षा जरूरी है। ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को अंग्रेजी सिखाने की जल्दबाजी हमें महँगी पड़ सकती है। यह शिक्षा बालक को हमारी संस्कृति से विमुख करेगी। परिणामतः परिवार, समाज और राष्ट्र को भारी हानि उठानी पड़ेगी। समझदारी से काम लेना अभिभावकों का धर्म है। भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने लिखा है- "मैं आज वैज्ञानिक बन सका हूँ, क्योंकि मैं मेरी मातृभाषा में पढ़ा हूँ।" महान वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु मातृभाषा बंगाली के स्कूल में पढ़े। सन1915 में एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था- "मातृभाषा की बुनियाद मजबूत होगी तो किसी भी भाषा का ज्ञान सहजता से मिल जाएगा।" बालक का सहज और स्वाभाविक विकास मातृभाषा के वातावरण में ही होता है।''
मातृभाषा में पढ़े बच्चे ऊँची कक्षाओं में ज्यादा अंक लाकर दिखाते हैं। हमें बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाकर शक्तिशाली एवं देशाभिमानी बनाएँगे और उनके उज्जवल भविष्य का निर्माण करेंगे।
          2020 के नई शिक्षा नीति के तहत मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही गई है, जो सराहनीय  पहल है।


हर्ष नारायण दास
मध्य विद्यालय घीवहा
फारबिसगंज अररिया

1 comment:

  1. Gandhijee
    Ravindra nath jaise aneko. Vidwano ka yahi manana tha par dhukh hai hamari sarkari tantra ki soch par

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