Friday, 28 May 2021
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एक पिता की सोच- मनीष कुमार राय
साथियों,
इस लॉक डाउन ने हमारा,आपका और हमारे बच्चों का क्या क्या छीना है इस पर चर्चा नही करूंगा,पर इस अवरुद्ध समय में यदि हमलोग अपनी ओर से कुछ सामाजिक भूमिका या दायित्व को निभा लें तो वह एक सार्थक प्रयास होगा।अंतरराष्ट्रीय माहवारी स्वच्छता दिवस पर हमें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि हम समाज में सदियों से चले आ रहे इससे संबंधित मिथक,अपराधबोध,लांछन जैसे शब्दों से स्त्रियों को आजादी दिलाने में सहयोग करें।उनके भ्रम,लज्जा,संदेह,संकोच के आवरण को हटाने में उनकी मदद करें।
प्रायः घर में जब हम टी वी पर सपरिवार कोई कार्यक्रम देख रहे होते हैं और उस बीच यदि सैनिटरी नैपकिन या पैड का विज्ञापन आ जाये तो सबसे पहले हम रिमोट ढूंढने लगते है या असहज हो जाते हैं या कोई दूसरी बात छेड़ कर सभी का ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं।ये जो हरकतें हमलोग कर रहे होते हैं दरसअल वह हरकत एक दीवार है पुरुषों और स्त्रियों के बीच। संकोच की दीवार।सबकुछ जानकर भी अनजान बने रहने की दीवार।
विश्व में इस विषय पर मुखर होकर आवाज उठाने वाली गैर सरकारी जर्मन संस्था(एन जी ओ) वाश ने 2014 से इसे दिवस के रूप में मनाना शुरू किया।इस क्रांति के छोटे से बीज को जल्द ही बरगद का रूप मिल गया और इसकी शाखाएं आज विश्व के अमूमन हर कोने में फैल चुकी है।
जानते है 28 मई को ही यह दिवस क्यों चुना गया?क्योंकि स्त्रियों में मासिक धर्म अर्थात जिसे हम मेंस कहते हैं,का चक्र हरेक महीने 28 दिनों के बाद आता है और यह 5 दिनों तक होता है।इसलिए 28 वीं तारीख और 5 वें महीने को प्रतीकात्मक रूप से इस दिवस के लिए चुना गया है।
ये तो इसके पीछे की कहानी का इतिहास है पर वर्तमान में अब भी हमारे देश में लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं इसके बारे में बात करने से भी संकोच करती है या इसे नज़रंदाज़ करनेका प्रयास करती हैं।जहिर है ऐसा सदियों से चली आ रही पीढ़ी दर पीढ़ी का यह संकोच विरासत में मिला है।
यह दिवस मात्र इस संकोच या लज्जा को तोड़ने का दिवस मात्र नहीं है।बल्कि इससे संबंधित वर्जनाओं,मौन,असक्षमता,और अधूरे ज्ञान के कारण उपजी शारीरिक पीड़ा को वैज्ञानिक तरीके से तोड़ने का भी दिवस है।भारत में भी शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के द्वारा इसकी शुरुआत हो चुकी है।जब पहली बार लड़कियों के लिए विद्यालयों में अलग शौचालय का निर्माण हुआ।2014 से ही मासिक धर्म से संबंधित ज्ञान देने का सिलसिला आरंभ हुआ।मासिक धर्म से जुड़े छोटी छोटी हस्तपुस्तिकाएँ विद्यालयों तक पहुंचने लगीं।ग्रामीण स्तर पर जीविका के माध्यम से सबला कार्यक्रम के तहत गांव की महिलाओं को मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों और "उन दिनों" के बारे में बताया जाने लगा।स्वच्छ भारत मिशन के तहत भी इसे जोड़ा गया।इस कार्यक्रम के माध्यम से मासिक धर्म संबंधी स्वच्छता के महत्व ,होने वाली बीमारियों आदि की चर्चा की जाने लगी।उन 5 दिनों को बरती जानेवाली सावधानियों के बारे में और संक्रमणों के बारे में बताया जाने लगा।
जाहिर है इन सब बातों का व्यापक असर भी देखने को मिल रहा है।अब ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं और लड़कियों के भी बीच इस जागरुकता की रोशनी पहुँच चुकी है।
मेरे विद्यालय में:- मेरे विद्यालय में भी मैने इस बात को महसूस किया।हालांकि विद्यालय की एक वरीय शिक्षिका के द्वारा मार्गदर्शन पहले से उन्हें मिलता आ रहा था।पर वहः झिझक,संकोच अब भी हावी थी।उन दिनों मैं उनलोगों के लिए नया शिक्षक ही था।बच्चों के बीच स्थापित होने के किसी अवसर को मैं ज़ाया होने देना नही चाहता था।सर्वप्रथम मैने बाल संसद और मीना मंच की बैठकें नियमित रूप से आयोजित करनी शुरू कर दीं।हालांकि पहले से ये मंच स्थापित तो थे पर शिक्षकों की कमी के कारण ढंग से आयोजित नही हो पा रहे थे।नियमित बैठकों में ही वर्ग 7 और 8 कि छात्राओं को वैज्ञानिक तरीके से मासिक धर्म के बारे में समझाया।सबसे बड़ी बात जो उन्हें असर की वह यह कि जब मैंने उनसे कहा कि यह दुनिया की सभी औरतों,लड़कियों के साथ होता है।चाहे वह मेरी या तुम्हारी माँ,चाची,नानी दादी,फुआ,दीदी कोई भी क्यों न हो।मेरे ख्याल से इन्ही शब्दो ने सबसे ज्यादा असर किया।एक मंच बना किशोरी चेतना जिसके नामकरण में बेगूसराय की एक शिक्षिका दीदी ने मेरी मदद की।उन बच्चियों ने आपस में सहयोग राशि का जुगाड़ किया।मैंने भी उसमे आर्थिक सहयोग दिया।और उसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा।छात्राएं मुझसे आकर जब नैपकिन मांगती तो मुझे उनके व्यवहार पर आश्चर्य होता।एक बार यदि हम खुल जाएं तो विश्वास की नींव मजबूत बनते देर नही लगती।छात्राओं के लिए मैं विद्यालय में उनकी माता या बड़ी बहन की भूमिका में कब आ गया पता भी न चला।यह विश्वास ही था जब उनके आर्थिक सहयोग को भी नज़रंदाज़ कर मैने अपने ही पैसे से नैपकिन लाना शुरू कर दिया।मुझे कभी यह अखरने जैसा लगा भी नहीं।एक बार विद्यालय में यूनिसेफ के तरफ से एक टीम इस विषय पर छात्राओं से बात करने और काउंसलिंग करने आई थी पर विद्यालय के द्वारा पूर्व से लिए गए कदम से वे भी प्रभावित हुए।मुझे वह गौरवान्वित करने वाला पल अब भी याद है।वे आश्चर्यचकित थे कि एक पुरुष प्रधानाध्यापक होकर मैं बच्चियों के इतने करीब था।सच कहें तो मुझे खुद से ज्यादा अपने विद्यालय की छात्राओं पर गर्व हुआ था।शिक्षको के बीच भी अब तक इस अवधारणा से जुड़ी भ्रांतियां मौजूद है।जैसे शिक्षिकाओं को दिया जाने वाला विशेषावकाश को प्रायः इसी दृष्टि से देखा जाता है जबकि विभाग द्वारा भी यह कई बार स्पष्ट किया गया है कि शिक्षिकाओं को उनके दोहरे कार्यभार के कारण सम्मानपूर्वक यह अवकाश दिया जाता है।न कि उन दिनों के लिए।दुःखद ये है कि इस भ्रम को तोड़ने में भी कई साल लग गए।इसी से हमारी मानसिकता या कहें कि इस अवधारणा की दूरी का पता चलता है।और ऐसा नही है कि यह भ्रांति पूरी तरह से मिट गई है।
आज इस दिवस पर इतनी आत्मीयता से लिखने का दुस्साहस कहें या इसे जो भी नाम दें वह इसलिए संभव हो पाया कि मैं भी एक पुत्री का पिता हूँ।हालांकि मासिक धर्म के बारे में मैट्रिक इंटर के समय पढ़ा जरूर था पर आज उन दिनों के अनुभव को मैं अब ज्यादा समझ और महसूस कर पा रहा हूं।सच पूछिए तो एक सामान्य लड़के को इन घरेलू समस्याओं के बारे में मेरी तरह विवाहोपरान्त ही सही जानकारी मिलती है।मुझे भी इसी तरह मिली।लड़कियां औरतें भी सामान्य तौर पर इसे सम्मानजनक ढंग से न देख पाने के कारण अपने परिवार के पुरुष सदस्यों से भी दूरी बनाकर रखती है।उन्हें समझना होगा कि यह सामान्य शारीरिक हार्मोनल प्रक्रिया है जो मनुष्यों के इस पृथ्वी पर बने रहने का कारण है।रजस्वला से रजोनिवृत्ति तक चलने वाली प्रक्रिया को समझना आज की तारीख में इसलिए भी जरूरी है कि महिलाएं सुरक्षित रहें,निरोग रहें और ससम्मान इसे धारित करें।
गनीमत है की अब इस विषय पर पैडमैन जैसी सार्थक फीचर फिल्म भी बन चुकी है जिसे आपार सफलता भी मिली।सदियों से दबी इस धारणा को अब एक मुखर सम्मिलित प्रयास की जरूरत है जो सिर्फ एक स्त्री विमर्श नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है।यह अपने घर की हरेक स्त्री के लिए जरूरी है कि हम भी उन दिनों का सम्मान करें।
मनीष कुमार राय
प्रधानाध्यापक,
मध्य विद्यालय सिमरिया
प्रखंड-कसबा
जिला-पूर्णियाँ
manishroy6711@gmail.com
MobNo.9431865016
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बहुत खूब!सार्थक कदम!शिक्षकगण प्रेरित होंगे।
ReplyDeleteVery inspiring and educational.Hatsoff to you Sir.
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