Sunday, 17 April 2022
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क्षेत्रीय भाषा में शिक्षण
क्षेत्रीय भाषा में शिक्षण
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में प्रावधानित शिक्षण के माध्यम के रूप में मातृभाषा का स्वागत है, लेकिन समस्या यह है कि क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य का पूरा अभाव है। अत: क्षेत्रीय या आंचलिक भाषाओं में पाठ्य पुस्तकों का विकास करना बहुत बड़ी चुनौती है। उदाहरण के तौर पर यदि बिहार प्रांत को ही ले लें तो, शायद! भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका और सुरजापुरी आदि को कभी भी भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सकेगा। कारण कि इन क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य नगण्य रूप में है। हालांकि, भोजपुरी में साहित्य हैं, इस भाषा में गाने भी बहुत लोकप्रिय होते हैं; फिल्में भी काफी बनती हैं, लेकिन फिर भी इसे एक समृद्ध भाषा का रूप लेने में अभी समय लगेगा। हां, मैथिली भाषा का साहित्य समृद्ध है, इसलिए लंबे संघर्ष के बाद इसे आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है और इसका क्षेत्र व्यापक हो गया है। मातृभाषा में बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था के लिए क्षेत्रीय भाषा और साहित्य का विकास अत्यंत आवश्यक है, नहीं तो सोचना ही बेकार है। याद रहे कि कोठारी कमीशन से लेकर अब तक की सारी नीतियों में त्रिभाषा सूत्र की बात होती रही, जिसमें मातृभाषा पर भी जोर देने की बात है, लेकिन मातृभाषा में कितने लोग पढ़ाई करते हैं? यह देखने की बात है। इस समस्या के मूल में भूमंडलीकरण भी है, जिसमें अंग्रेजी और अंग्रेजियत हावी हो गई है। ज्ञान की विविध धाराओं या संकायों में अंतरराष्ट्रीय या ग्लोबल भाषा की आवश्यकता पड़ती है और अंग्रेजी की शब्दावली (Terminology) समृद्ध है, जिसका इस्तेमाल अधिकांशतः विज्ञान में होता है और आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का युग है। अत: हमें भारतीय भाषाओं का विकास एवं प्रचार-प्रसार उस हद तक करना होगा कि ये विश्व की भाषा एवं आशा बन जाए और आंचलिक भाषाओं में तो बहुत ज्यादा मेहनत करने एवं साहित्य रचने की आवश्यकता है।
एनईपी-2020 में बहुभाषावाद का स्वागत है, लेकिन स्कूली शिक्षण विषयों के रूप में संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और यहां तक कि हिंदी के शिक्षकों की भी भारी कमी है। यह बहुत बड़ी समस्या है। मेधावी युवाओं को तलाशने और इस अंतर को भरने की आवश्यकता है। क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों को नीचा देखा एवं समझा जाता है और उन्हें गंवार कहा जाता है। उन्हें अहूठ बोला जाता है। किसी दूसरे की मातृभाषा के लहजे या टोन में अंतर होने के कारण सुनने वाले को अटपटा-सा लगता है। वे बोलते हैं, " _बोलऽ हथिन कैसे अहूठ ऐसन।"_ लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते ही हैं। नतीजा यह होता है कि मातृभाषा-भाषी भी आत्मघृणित (Inferiority complex)महसूस करते हैं, जो कि बिल्कुल गलत है, क्योंकि हर कोई अपनी मातृभाषा से प्रेम करता है और यह बुनियादी बातों को समझने में सबसे सशक्त माध्यम है। इन चुनौतियों को सीधे स्वीकार करना मुश्किल है, लेकिन जो किया जा सकता है, वह किया जाना चाहिए। बच्चे की मातृभाषा की शब्दावली को सूचीबद्ध किया जाना चाहिए, ताकि क्षेत्रीय भाषाओं का एक शब्दकोश बन सके, जो आने वाले छात्रों के लिए फायदेमंद होगा। इसे एक परियोजना या शैक्षणिक गतिविधि के रूप में विभिन्न परिवेश से विद्यालय में आने वाले विभिन्न मातृभाषा-भाषी बच्चों की सहायता से तैयार किया जा सकता है। यथा- नून=नमक, गाछ=पेड़, बिछौती=छिपकली, गैया=गाय मैया=माँ, चूल=बाल, डिम=अंडा, जिनिस=चीज़, धुरीया=धूल, बुतरूआ= बच्चा, मुंडा= लड़का, मुंडी= लड़की, कुड़ी=लड़की, छोरी=लड़की आदि।
विभिन्न क्षेत्रों के बोलचाल के लहजों का भी सम्मान करना होगा। एक ही शब्द को संपूर्ण भारत में एक ही जैसे लोग उच्चारण नहीं करते। बंगाली कभी भी 'जल' नहीं बोल सकते। वे 'जोल' बोलते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'जल' हो या 'बीड़ी' वे उसे खाते हैं; पीते बिल्कुल नहीं। _आमि माछ-भात खाबो, आमि जोल खाबो। आमी सिगरेट खाबो।_ एक दिलचस्प कहानी है। एक बंगाली बच्चा अपने माता-पिता के साथ कोलकाता घुमने गया। वह ग्रामीण परिवेश का था। उसने रंग-बिरंगे खिलौने खरीदा। उसे भूख लगी तो माता-पिता के साथ फास्ट फूड का आनंद भी लिया। जब वह हावड़ा ब्रिज के पास पहुंचा तो उसके पिताजी ने कहा, _"ओ खोखा, ईटा हावड़ा ब्रिज आचे।"_ बच्चे ने कहा," _आमि ईटा खाबो।"_ पिताजी ने कहा," _ऊ रे बाबा, ईटा खाबर जिनिस ना, ईटा देखवर जिनिस।"_ (यह हावड़ा ब्रिज है। यह खाने की चीज नहीं है, यह देखने की चीज है)
भैय्या, उत्तरी बिहार में अक्सर ''घोरा सरक पर दौड़ता है", ना कि घोड़ा सड़क पर दौड़ता है। असम में "चिड़िया सु सु करती है", ना कि चिड़िया चूं चूं करती है। पंजाबी में 'बडा-सा ' ही होता है, ना कि बड़ा-सा। इन भौगोलिक लहजों की बनावट को समझना होगा और उन सबका मान रखना होगा। इसी प्रकार बच्चे अपने घर से जो भी भाषा लेकर आते हैं, उसका मान रखें और विद्यालय की भाषा से बहुत ही सहज एवं सुगम ढंग से उन्हें जोड़ें। घर की भाषा और विद्यालय की भाषा के बीच सेतु बनाना शिक्षकों का कौशल होगा। शिक्षक घर की भाषा और विद्यालय की भाषा को इस प्रकार जोड़ें कि बच्चे उसे पर्यायवाची शब्द ही समझें, न कि उनके मस्तिष्क में विलगाव एवं हीन भावना पैदा हो," हम तो कुछ जानते ही नहीं हैं।" हालांकि, उन्हें अपनी मातृभाषा में कुछ संकल्पनाएं स्पष्ट होती हैं, जिसे विद्यालय में व्यक्त नहीं कर पाते हैं; शिक्षकों को यहीं पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि वह अपनी मातृभाषा में ही किसी भी संकल्पना को व्यक्त करें। फिर उसे शिक्षक विद्यालय की भाषा या मानक भाषा में समझाने का प्रयास करें, अथवा वे यह कहें कि इस चीज को ऐसे भी कहा जाता है। बहुभाषिक शिक्षण विधि को समझने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता पड़ेगी, जिसके लिए शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम में समुचित शिक्षण शास्त्र (Pedagogy) का समावेश करना होगा।
मो. जाहिद हुसैन
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित मध्य विद्यालय
मलह बिगहा,चंडी (नालंदा)
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