नन्हे जानकार-मो. जाहिद हुसैन - Teachers of Bihar

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Sunday 8 May 2022

नन्हे जानकार-मो. जाहिद हुसैन

        नन्हे जानकार

          विश्व के अनेकों चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि नवजात शिशु को क्या-क्या जानकारियां  होती हैं तथा वे अपने आत्मज्ञान का प्रयोग किस प्रकार करते हैं। वास्तव में शिशुओं के समझ के बारे में अधिकांश लोग जितना समझते हैं, कहीं उससे अधिक जानकारी उनके पास होती हैं। शिशु के पास अनुभव काफी होता है। जो इन्हें स्नेह देते हैं, वे उनके मित्र बन जाते हैं। बच्चे अपनी मां की आवाज को सबसे पहले पहचानते हैं।

          सभी बच्चे एक जैसे होने के बावजूद अलग-अलग व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं। नन्हे शिशुओं में तीक्ष्ण बोध क्षमता होती है। बच्चों की संवेदनशीलता एवं ग्राह्य क्षमता सामान्य मस्तिष्क से कहीं अधिक होती है। शिशु साधारण वस्तुओं की अपेक्षा जटिल वस्तुओं को देखना ज्यादा पसंद करते हैं। एक रंग की चीजों की जगह रंग-बिरंगी शतरंज की पट्टी को देखना अधिक पसंद करते हैं। सीधी रेखाओं की जगह टेढ़ी-मेढ़ी चांदमारी निशान इन्हें अत्यधिक आकर्षित करते हैं। बच्चे स्वाद और गंध के प्रति भी काफी सजग होते हैं। जन्म के समय बच्चों की दृष्टि क्षमता 20/500 होती है, लेकिन 8 सप्ताह से 3 महीने के बीच वह विभिन्न आकृतियों एवं रंगों को पहचानने लगते हैं। यहां तक कि वे लंबाई और चौड़ाई में भी अंतर महसूस करने लगते हैं। शिशु पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की आवाज को अधिक पसंद करते हैं। शिशुओं में ध्वनि एवं भाषा की अतिसूक्ष्म वर्गीकरण की क्षमता होती है। हर बच्चा भाषा सीखने की कोशिश में पूरी ताकत झोंक देता है।भाषाई ज्ञान प्रकृतिगत एवं आनुवांशिक रूप से बच्चों में मौजूद होते हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा- 2005 में उल्लेख किया गया है कि बच्चे एक जन्मजात भाषा संकाय के साथ पैदा होते हैं।  (पृष्ठ 36, खंड 3.1 भाषा, एनसीएफ-2005 का पारा 1) "Children are born with an innate language faculty."

           भाषा का सहारा मिलने से पहले बच्चों की बुद्धि विकसित होने लगती है। 2 सप्ताह का शिशु भी बड़ों द्वारा जीभ निकालने की नकल करता है। बच्चे बड़ों की नकल के साथ-साथ विभिन्न क्रियाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की भी क्षमता रखते हैं। मनोवैज्ञानिक इस योग्यता को 'इंटरनेशनल परसेप्शन' की संज्ञा देते हैं, जिसके अंतर्गत नकल करने तथा आंखों एवं मांसपेशियों की क्रियाशीलता के बीच समन्वय स्थापित करने की क्षमता सन्निहित हैं। शिशुओं में सूझ भी उनके अंदर की आनुवंशिकता में छुपी होती है। शिशुओं में सीखने की प्रवृत्ति का विकास गर्भ के अंदर हो जाता है। अपने माता के क्रियाकलाप का भी बहुत कुछ असर उनके कार्यों में देखा जाता है। सुरक्षा भाव तथा जीवित रहने के लिए संदेश उसके जीन में विद्यमान होते हैं। नवजात शिशु को जब कभी गिरने की आशंका होती है तो वे कोई न कोई चीज पकड़ने के लिए अपने बाहें फैला देते हैं। नवजात शिशु को मेज पर सहारा देकर खड़ा कर दिया जाए तथा हाथ फिर छुड़ा लिया जाए तो वह चलने की कोशिश करता है। पानी के टब में उसे छोड़ देने पर वे तैरने की कोशिश करते हैं। बच्चों की योग्यताओं और बोध क्षमताओं में क्रमशः महत्पूर्ण परिवर्तन होते हैं। 2 महीने के बच्चे देर तक जगे रहते हैं, खूब मुस्कुराते हैं और नई नई चीजों को बड़े ध्यान से देखते हैं। आठवें महीने का होते-होते उसे अपनी अलग अस्तित्व का महत्वपूर्ण ज्ञान होने लगता है। इस उम्र में बच्चे काफी खुश रहते हैं और किलकारियां मारते हैं।

       बच्चों में मानसिक विकास की रफ्तार उसके शारीरिक विकास की भांति तेजी से होता है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि उसे किस उम्र में उन्हें नर्सरी स्कूल की शिक्षा वांछनीय है। अनेक विद्वानों का मत है कि तीसरे वर्ष से पहले बच्चे को स्कूल नहीं भेजना चाहिए। यूं तो बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति और क्षमता दूसरे-तीसरे वर्ष में आ जाती है, लेकिन इस उम्र के शिशु को मुख्य रूप से इस बात की आवश्यकता होती है कि उसके पास कोई व्यक्ति लगातार हो और वह उसकी परवाह करता हो। अतः इस समय में शिशु और उसकी मां के संबंध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मां शिशु के साथ स्वाभाविक रूप से भावनात्मक स्नेहपूर्ण व्यवहार करती है। वह उसके साथ प्यारी-प्यारी बातें करती है, पुचकारती है, खेलती है तथा उसे संसार से संबंध स्थापित करने में मदद करती है। जो माता अपने बच्चे का देखभाल ज्यादा अच्छे तरीके से करते हैं, उनके बच्चे अधिक सीखते हैं। मां और संतान के बीच भावनात्मक संबंध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। माता के साथ रहने वाला बच्चा यह समझता है कि मां उसे क्या कह रही है, क्या बता रही है। साथ ही शिशु भी अपनी मां को कुछ बताना चाहता है, बशर्ते कि उसकी मां उनकी बात पर ध्यान दें। यही कारण है कि बोर्डिंग स्कूल के बच्चे बिगड़ जाते हैं, क्योंकि उसे माता-पिता का प्यार यथोचित समयानुसार नहीं मिल पाता है। बच्चे को सबसे पहले स्नेह और अपनापन की आवश्यकता होती है, उसके बाद प्रेरणा एवं शिक्षा की। बच्चा एक नन्हा पौधे के समान है, जिसके अंदर असीम संभावनाओं के बीज मौजुद होते हैं, जो अंकुरित होकर वृद्धि करता है एवं पल्लवित एवं पुष्पित होते हैं। अतः उन्हे स्वस्थ्य वातावरण में यथोचित देखभाल की आवश्यकता है।

 संदर्भ सूत्र:

1. डाॅ लक्ष्मीकांत सिंह रचित  शाबाश डैडी (2012), जागृति साहित्य प्रकाशन,पटना

2. गिजुभाई बधेका की पुस्तकें

3. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा- 2005


       

   


मो. जाहिद हुसैन

प्रधानाध्यापक 

उत्क्रमित मध्य विद्यालय मलह विगहा चंडी, नालंदा

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