गुगल पर खोजने पर हमें यह तो पता चल जाता है कि कितने आदिवासी समूह भारत भर में हैं या पूरे विश्व में। किन्तु इनकी पीड़ा का आकलन हम किसी गूगल खोज द्वारा नहीं कर सकते यह असम्भव है। विकास एक अजीब शय हैं। जिस 'विकास' और स्मार्ट शहरों का हो हल्ला है वह 'ऑल इनक्लूसिव' विकास के दायरे में नहीं आता। फिर भी हम इसी पर लहालोट हैं। यह हमारे संकीर्णता और संकुचित विश्वदृष्टि का प्रतिफलन है। हम गर्व करते हैं कि द्रौपदी मुर्मू जी, हमारी रष्ट्रपति आदिवासी हैं। किंतु यह केवल दिखावा है। असल में हम हमसे इतर रहन-सहन, रीति-रिवाजों को मानने वाले मनुष्यों के प्रति हमेशा भेदभाव करते आये हैं।
यह दिन 1982 में जिनेवा में स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक को मान्यता देने के लिए मनाया जाता है। आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनके मुद्दों पर ध्यान खींचने के लिए यह दिन दुनियाभर में मनाया जाता है।
हमारा न्यूनाधिक फैशन सेंस आदिम है। आदिम जातियों से उधार लिया हुआ है। और हम पता नहीं किस सभ्यता-संस्कृति की दुहाई देते रहते हैं।
जो सबसे अधिक सौहाद्रता का जीवन जीते हैं। जो इस विश्व के थोड़े दिन और बचे रहने की आखिरी आस हैं। उनकी साँसों को ही हम आखिर करने पर आमादा हैं।
मानव जाति की सबसे बड़ी उपलब्धि मूर्खता है। श्रेष्ठता-बोध की मूर्खता। जाति, धर्म, नस्ल, संस्कृति और राष्ट्रीयता इस आग में घी का काम करते हैं। इसका विलोम विनम्रता और गाम्भीर्य है। अब यह होने से रहा। सो यही आस बच जाती है कि हम अपने अव्वल होने के बोध को कितना dilute और कम कर सकें।
विश्व आदिवासी दिवस की ढेर मुबारकबाद इस उम्मीद के साथ कि यह केवल रस्मी और कागज़ी न रह जाये। पर्यावरण-अध्य्यन केवल शोध का मामला न हो बल्कि प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो।
सुमन सौरभ
(संगीत शिक्षिका)
+2 सर्वोदय उच्च विद्यालय, वैनी, समस्तीपुर
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